कहानी: शोभा - प्राण शर्मा

कहानी 

शोभा 

प्राण शर्मा 


क्या छोटा और क्या बड़ा, हर एक को लता की चार साल की बेटी हद से ज़ियादा प्यारी थी। मोहक मुस्कान थी उसकी; हर एक के मन को स्पर्श करने वाली उसकी सौम्य और निश्छल भाव - भंगिमाएँ थीं। जापानी गुड़िया उसके सामने फीकी – फीकी लगती थी। उसका नाम भी कितना प्यारा था - शोभा। उसके रंग-रूप की सुगंध घर-घर में क्या फ़ैली कि वह मोहल्ले भर की चहेती बन गई थी ,हर कोई उसके चेहरे की शोभा की झलक पाने के लिए लालायित रहता था। लन्दन सुबह के आठ बजते और शोभा घर की चौखट में आ कर खड़ी हो जाती थी सज-धज कर। दफ्तरों और स्कूलों- कॉलेजों को जाते सभी को देख कर वह खूब खुश होती थी। कोई ऐसा नहीं था कि जिस पर वह अपनी मंद-मंद मुस्कान बिखेर कर हेलो-हेलो नहीं कहती थी कोई ऐसा नहीं था कि जिसको वह बाय-बाय नहीं बोलती थी, कभी एक हाथ से और कभी दूसरे हाथ से। उसकी इन मुद्राओं से उसके सभी प्रशंसक बन गए थे। कुछ तो प्रशंसा में रोज़ ही उसके लिए चॉकलेट लाते थे। वह सहर्ष स्वीकार कर लेती थी। उसने कभी किसी को ` ना ` नहीं कहा। चॉकलेट देने वालों को वह अच्छी तरह से जानती - पहचानती थी। उनसे खुल कर बातें करना उसे बहुत अच्छा लगता था। 

१३ जून १९३७ को वजीराबाद में जन्में, श्री प्राण शर्मा ब्रिटेन मे बसे भारतीय मूल के हिंदी लेखक है। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए बी एड प्राण शर्मा कॉवेन्टरी, ब्रिटेन में हिन्दी ग़ज़ल के उस्ताद शायर हैं। प्राण जी बहुत शिद्दत के साथ ब्रिटेन के ग़ज़ल लिखने वालों की ग़ज़लों को पढ़कर उन्हें दुरुस्त करने में सहायता करते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि ब्रिटेन में पहली हिन्दी कहानी शायद प्राण जी ने ही लिखी थी।


देश-विदेश के कवि सम्मेलनों, मुशायरों तथा आकाशवाणी कार्यक्रमों में भाग ले चुके प्राण शर्मा जी  को उनके लेखन के लिये अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए हैं और उनकी लेखनी आज भी बेहतरीन गज़लें कह रही है।
एक दिन वह भारत से बातें करने लगी - " अंकल, आप कहाँ रहते हैं ? "

" इस गली के उस मोड़ पर। अच्छा शोभा, आप बड़ी होंगी तो आपको सारी दुनिया की सैर कराऊँगा। लन्दन, पैरिस, टोक्यो जैसे बड़े - बड़े शहरों में घुमाऊँगा। हवाई जहाज़ में बिठाऊँगा आपको। आपने कभी हवाई जहाज़ देखा है ?"

तभी छत के ऊपर से हवाई जहाज़ गुज़रा। उसकी ओर ऊँगली करते हुए उसने झट जवाब दिया - " वो है हवाई जाज । "

" अरे,आप तो हवाई जहाज़ के बारे में जानती हैं। बहुत ख़ूब ! आप चलेंगी न मेरे साथ ?"

शोभा ने हिरणी जैसी अपनी प्यारी - प्यारी गर्दन हाँ में हिला दी। 

एक दिन नीरज शोभा के पास आ कर खड़ा हो गया था। उसके हेलो -हेलो कहते ही वह बतियाने लगा - " क्या आपने अभी स्कूल जाना शुरू नहीं किया है ? "

" नई। शोभा के जवाब में मासूमियत थी। 

" क्यों नहीं किया है ?"

" मैं अबी छोटी हूँ। "

" मुझे तो आप बहुत बड़ी लगती हैं। "

" नई, अबी मैं छोटी हूँ,चार साल की"

" आप चार साल की हैं ?"

" जी मैं चार साल की हूँ। "

" आप स्कूल कब जाना शुरू करेंगी ?"

" एक साल के बाद। "

" अच्छा ये बताइये, आपके पापा का नाम क्या है ?"

" दिपक। ",

" दिपक नहीं दीपक। क्या है आपके पापा का नाम ?"

" दीपक। "

" आपकी मुम्मी का नाम ?"

" लता। "

" आप तो बड़ी सयानी हैं बड़ी ही होशियार हैं। "

" अच्छा अब ये बताइये, आप बड़ी हो कर क्या बनेंगी ?"

" पता नहीं। "

" बड़ी होकर आप डॉक्टर बनना। गरीब बीमारों की खूब देखभाल करना। उनकी ढेर सारी दुआएं आपको मिलेंगी। बनेंगी न आप डॉक्टर ?"

शोभा ने हां में अपनी गर्दन हिला दी। 

" अब ये बताइये, मेरे हाथ में क्या है ?"

" चॉकलेट। "

" आपको पता है कि ये चॉकलेट मैं किसके लिए लाया हूँ ?"

" पता है। "

" किस के लिए ?"

" मेरे लिए। "

" अरे वाह आप तो सब कुछ जानती हैं। ये लीजिये। मैं चलता हूँ। कल मिलेंगे। बाय-बाय। "

" बाय - बाय। "

पास वाले मोहल्ले का मुकुल शोभा को बहुत अच्छा लगता था भले ही वह उसके लिए चॉकलेट रोज़-रोज़ खरीद नहीं पाता था। बेकार था. एक दिन शोभा को उसके घर की चौखट में न देख कर वह घबरा उठा था। उसने दरवाज़ा खटखटाया। शोभा को देख कर उसके चेहरे पर रौनक आ गई थी। वह अच्छी -भली थी। मुकुल ने जल्दी -जल्दी कहा - शोभा मैं इंटरवियु के लिए जा रहा हूँ। आपका आशीर्वाद लेने आया हूँ। ईश्वर से प्रार्थना कीजिये कि मुझे नौकरी मिल जाए। आपकी लिए ढेर सारे खिलौने खरीदूँगा। "



शोभा ने उसके सर पर अपने दोनों नन्हें - नन्हें हाथ रखने में देर नहीं लगाई 

मुकुल को नौकरी मिल गई। अच्छी-खासी तनख्वाह थी। वह अपना वायदा नहीं भूला। पहली तनख्वाह उसने शोभा के खिलौने पर खर्च कर दी। 

मोहल्ले के एक बुजुर्ग कवि थे - कृपा शंकर। शोभा के बड़े प्रशंसक थे। वह उसको देखते तो खिल-खिल जाते थे। उन्होंने तो शोभा की प्रशंसा में यह गीत ही रच डाला था -

   शोभा री शोभा 

   तुम कितनी प्यारी हो 

   रेशम की डोरी हो 

   पर्बत की छोरी हो 

   तुम तन की नहीं केवल 

   मन की भी गोरी हो 

   शोभा री शोभा 

   जब जब मुस्काती हो 

   निज खेल दिखाती हो 

   जापानी गुड़िया सी 

   तुम सबको भाती हो 

   शोभा री शोभा 

   तुम कितनी प्यारी हो 

   शोभा री शोभा 



गीत के बोलों की सुगंध दूसरे मोहल्लों में भी फैल गई थी। प्राय: हर किसी ने गुनगुनाना शुरू कर दिया था। मोहल्ले के दो-तीन व्यक्ति ऐसे थे जिनको शोभा के प्रति ऐरे-गैरे लोगों का अपनत्व अच्छा नहीं लगता था। उनमें एक थे - चंद्रपाल। अधेड़ उम्र के थे। लता के दायें वाले मकान में रहते थे। एक दिन उन्होंने लता को सलाह दी - " आप शोभा के माथे पर काला टीका लगाकर रखा कीजिये। ज़माना खराब है, हर किसी का प्यार - दुलार एक जैसा नहीं होता है। "

लता ने उनकी बात सुनी -अनसुनी कर दी थी। वह किसी वहम या भ्रम में नहीं पढ़ना चाहती थी। वह तो बस इतना जानती थी कि बच्चे भगवान के रूप होते हैं। वे सबको प्यारे लगते हैं। उनका बुरा कौन चाहेगा ? उसने शोभा को किसी से बात करने को नहीं रोका -टोका। वह नहीं चाहती थी कि बेटी में अभी से किसी तरह का डर पैदा हो। 

शोभा की कई हमजोलियाँ भी थीं। वह इतनी समझदार थी कि सारी की सारी चॉकलेटें खुद ही नहीं खाती थी, अपनी हमजोलियों में भी बाँटती थी 

मोहल्ले की महिलायें उसके प्यारे-प्यारे और भोले-भाले व्यवहार को देखती तो दांतों तले उंगलियाँ दबा लेती थीं। चार साल की बच्ची और इतनी सुसंस्कृत ! न कभी ऐसा देखा और न ही सुना। काश, हमारी भी कोई ऐसी बच्ची होती !

कमला और तोषी तो अपने -अपने घर के काम -काज निबटा कर अपने-अपने बच्चों को लेकर लता के घर में आ बैठतीं। वे शोभा को देखने को तरस जाती थीं। आते ही शोभा से उनका लाड़ -प्यार शुरू हो जाता था। सामने वाली उमा तो उस पर लट्टू ही हो गई थी। शोभा को छोड़ने का नाम ही वह नहीं लेती थी। उसको अपनी छाती चिपकाए रखती थी। कश्मीरी सेब जैसे उसके गालों को चूमना उमा का हर पल का काम था। मन ही मन उसने शोभा को अपनी बहु बनाने की ठान ली थी। अब तो उसने लता से यह कहना शुरू कर दिया था - " शोभा, तेरी नहीं, मेरी बेटी है। उसको अपनी बहु बना रहूँगी। तू कुछ साल और उसके साथ बिता ले। "

" अगर तेरा ये बेटा चुपचाप किसी और को घर ले आया तो ?"

" मेरा बेटा ऐसा कर ही नहीं सकता है, उठते ही ये शोभा का नाम जपने लगता है। कहना शुरू कर देता है - चलो न शोभा के घर। पूछ इस से। "

" बेटे तुझे शोभा अच्छी लगती है ?

" बौत अच्छी। 

" दीवाना कहीं का। " लता ने बढ़ कर उसे अपने गले स लगा लिया। 

कमला और तोषी को ये सब देख-सुन कर अच्छा नहीं लगता था। उन्होंने एक दिन अकेले में लता से साफ़-साफ़ कह दिया था - " हम आईंदा तेरे घर नहीं आएँगी। सारा समय तो उमा शोभा को अपनी छाती से चिपकाए रहती है, हमें तो वो एक पल के लिए भी उस से बात करने का मौक़ा नहीं देती है। हमारे बेटे शोभा से बात करने को तरसते रहते हैं। "

उमा ने जाना तो उसने सुखसांस लिया। लता से उसने ऐंठ कर कहा - " नहीं आती तो न आएँ। बड़ी आईं शोभा से मिलने वाली। अपने-अपने घर में बैठी रहें। मेरे और शोभा के बीच दीवार बन कर बैठ जाती थीं। "

कमला और तोषी के दुबारा न आने से उमा खुशी से फूली नहीं समायी थी। रोज़ ही वह यह कह -कह कर शोभा को लुभाती - " मेरी लाडली, आप कितनी प्यारी हैं , कितनी अच्छी हैं। आप मेरे कलेजे का टुकड़ा हैं। मेरा बस चले तो मैं आपको आठ पहरों निहारती रहूँ। " उमा कभी उसके गालों को पुचकारती और कभी उसके हाथ - पाँव चूमती। 

एक दिन उमा भाव विह्वल हो गई। लता से कहने लगी - " आज की रात शोभा मेरे साथ सोयेगी, प्यारी-प्यारी कहानियाँ सुनाऊँगी उसे। ले जाऊँ उसे ?"

" फिर कभी। " लता ने यह कर उमा को निराश कर दिया। उसे अच्छा नहीं लगा। 

फिर भी उसका आना-जाना और शोभा से लाड-प्यार करना बरक़रार रहा। 

एक दिन शोभा माँ से पूछने लगी - " कमला और तोषी आंटी अब क्यूँ नहीं आतीहैं ? उनसे मिलने को मन बौत करता है। "

" वे हमसे रूठ गयी हैं। "

" कल हम उनसे मिलने जाएंगे। चलोगी न माँ ?"

" चलेंगे। "

आधी रात को शोभा को खांसी उठी। सुबह हो गई लेकिन खांसी नहीं रुकी। बाहर सर्दी की तेज हवा थी। पति घर में होते तो खांसी की दवाई केमिस्ट की दूकान से भाग कर ले आते, वह तीन दिनों के लिए अपने माता-पिता से मिलने के लिए अमृतसर गए हुए थे। इतनी ठंडी में शोभा को ले कर बाहर निकलना उसके लिए ख़तरा हो सकता था

अचानक लता को याद आया कि कुछ महीने पहले ही तो उसने खांसी - ज़ुकाम की दवा खरीदी थी। मैं कितनी भुलक्कड़ हूँ ! झट उसने अलमारी से दवा निकाल कर शोभा को पिलायी। 

लता की जान में जान आयी। शोभा की खांसी थम गई थी। 

आठ बज चुके थे। दरवाज़े पर दस्तक हुई। उमा ने दरवाज़ा खोला। मुकुल था। नमस्ते कहने के बाद शोभा के बारे में पूछने लगा। 

" शोभा रात भर सोयी नहीं, खांसी थी उसे। "

" उफ़, ईश्वर उसे स्वस्थ रखे। जल्दी में हूँ, शाम को दफ्तर से लौटते समय मिलूँगा। "

जाते - जाते वह रास्ते में एक - दो परिचितों को शोभा के बारे में बता गया था। 

कमला और तोषी को मालूम हुआ तो वे दौड़ी - दौड़ी आईं। उन्हें देखते ही शोभा खिल उठी। वह दोनों के गलों से ऐसे मिली जैसे उनसे ज़ियादा प्यार कोई और नहीं था। 

कमला और तोषी की आँखों में तो अपनत्व के आँसुओं की झड़ी लग गई थी। 


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