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अभिसार शर्मा ने अब यह पर्दाफाश किया...


लोग आपके खाने मे शौच मिला रहे हैं

— अभिसार शर्मा


अभिसार शर्मा अपने फेसबुक से पर्दाफाश करते हैं:
मानो सामूहिक सम्मोहन किया गया हो. आज सुबह एक शो किया अपने चैनल पर जिसमे भारतीय रेल का पर्दाफाश किया था. मुद्दा ये था कि जो खाना आप खाते हैं, उसमे शौच के पानी का इस्तेमाल हो रहा है और ये पहली बार नहीं, खुद मैंने इसका expose कुछ दिनों पहले किया था जिसमे शौच के पानी से लोगों को चाय कॉफी पिलायी जा रही थी. जब इसका प्रसारण हुआ तब कई ऐसे लोग सामने आए जो इसमे भी सरकार की तरफदारी करते दिखे. मैंने यही मुद्दा उठाया कि जो लोग आपके खाने मे शौच मिला रहे हैं, क्या उन्हे सिर्फ फाइन करके छोड़ा जा सकता है? क्या उनपर पाबंदी नहीं लगायी जानी चाहिए? और ऐसे मे सरकार का रवैय्या इतना ढीला क्यों है?





आप विश्वास नहीं करेंगे कि कुछ लोग इस मुद्दे पर भी रेलवे मंत्रालय के पक्ष मे दिखाई दिए. आप कुछ लोगों के tweets पढ़ सकते हैं. ध्यान से देखिए इन्हें. विश्वास नहीं होगा. उनका मानना था कि इससे ज़्यादा और क्या किया जा सकता है. ये भी कि आर्थिक दंड तो बगैर टिकिट की यात्रा के लिए भी होता है और इसके लिए भी सिर्फ यही होना चाहिए.




सरकार ने अच्छा किया. यानी कि वही शौच परोसने वाले कांट्रेक्टर हमारे बीच फिर एक्टिव हो गए हैं, न जाने अब क्या परोसेगे, उन्हे इस बात की कोई चिंता नहीं है. मल मूत्र खा लेंगे मगर मोदी सरकार की आलोचना बर्दाश्त नहीं करेंगे. कुछ लोगों ने तो सीधा ठीकरा जनता पर फोड़ डाला कि ये जनता अपने गिरेबां मे झांक कर देखे. इसकी ज़िम्मेदारी रेल्वे मंत्रालय की नहीं हो सकती. यानी कि ट्रेन लेट हो, एक्सिडेंट होते रहें, खाने मे शौच परोसा जाते रहे, मगर मोदी सरकार से कोई सवाल नहीं! हम "गू" खा लेंगे, मगर ये सरकार कुछ गलत नहीं कर सकती. क्या लोगों के ज़हन मे इस कदर सियासी गू भर दी गयी है? कि हम सवाल ही नहीं करेंगे और जो करेगा उसे ना सिर्फ खामोश करेंगे बल्कि उसके खिलाफ हर किस्म का झूठा और घटिया प्रोपोगंडा चलाएंगे?


क्या सत्तासीन लोगों को आभास है कि घृणा और नफरत की सियासत ने हमें किस मोड़ पर ला दिया है?

कठुआ और उन्नाव मे रेप पर हम आरोपी के पक्ष मे खड़े हो जाते हैं. ऐसा पहले होता देखा है कभी? न सिर्फ उसके पक्ष मे बल्कि बीजेपी नेताओं की शर्मनाक हरकत को जायज़ ठहराने का ज़रिया ढूंढते हैं? पोस्टमोर्टेम रिपोर्ट को गलत ढंग से पेश किया जाता है? सच सामने आए. ज़रूर आए. मगर झूठ का सहारा क्यों? उन्नाव मे गैंग रेप मे विधायक के पक्ष मे जिस तरह योगी सरकार ने सार्वजानिक तौर पर और अदालत के सामने अपनी नाक कटवाई है, ये तो अप्रत्याशित है! ऐसा कब हुआ है जब सरकार रेपिस्ट के साथ खड़ी दिखाई देती है? और जनता मे इस बात का कोई आक्रोश नहीं? और ये सब नफरत के चलते? माफ कीजिए ये भक्ति नहीं है. ये एक श्राप है. एक ऐसा काला श्राप जो आपको आने वाले वक़्त मे भुगतना होगा. जब आपने नाकाम सरकार से सवाल करना बंद कर दिया था.

हिंदी की बड़ी लेखिका ने ऐसा क्यों कहा... 




मुझे ताज्जुब नहीं के लोग खाने मे शौच बर्दाश्त कर सकते हैं, धर्म के नाम पर खुला खेल खेल रही सरकार से सवाल नहीं कर सकते! क्योंकि यही शौच पिछले कुछ अर्से से उन्हे हर जगह परोसा जा रहा है. टीवी चैनलों पर खबरों के नाम पर घृणा और दोहराव पैदा करना, लोगों के खिलाफ, धर्म विशेष के खिलाफ माहौल बनाना. दंगा तक भड़काने से परहेज़ ना रखना और जो समझदारी की बात करे, उसे खामोश कर देना. सूचना प्रसारण मंत्रालय से अदृश्य फरमान जारी करके लोगों की ज़ुबान पर अंकुश लगाना? तो जब नफरत परोसी जाएगी तो दिमाग मे तो गोबर ही तो भरेगा ना? तब लोगों को शौच युक्त खाना खाने मे क्या दिक्कत होगी, जब आए दिन उन्हे news चैनल के ज़रिए यही परोसा जा रहा हो, जब चुनावी मंचों पर श्मशान, कब्रिस्तान जैसी बातें की जाती हो! जब देश के प्रधानमंत्री विदेश जाकर कहते हों कि रेप पर सियासत नहीं होनी चाहिए और कुछ दिनों बाद यानी एक हफ्ते के अंदर उसे भूल कर, कर्नाटक की सियासी भूमि मे उसी बात का गला घोंट देते हों?



जिन्ना मर गए. उनकी एक तस्वीर अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय मे होगी, मगर उस मुद्दे को दोबारा उठा कर हमने लाखों जिन्ना अपने टीवी स्टूडियो के ज़रिए देश भर मे जन्म दे दिए!

किसी ने ये नहीं पूछा कि बीजेपी सांसद सतीश गौतम इस मुद्दे को अब क्यों उठा रहे हैं? क्योंकि आज़ादी के इतने साल बाद भी मोदी सरकार आपको पीड़ित बने रहने का पाठ पढ़ा रही है. कि बेचारा हिंदू अब भी मुगल काल की तरह इन अत्याचारी मुसलमानों के हाथ मे बंधक है. और जब हम सरकारी propaganda जिसे कुछ news चैनल के ज़रिए प्रसारित किया जाता है, पर विश्वास करते हैं, तो इसी तरह हम अपने भोजन मे भी मल मूत्र बर्दाश्त कर लेते हैं. ये बना दिया है भक्ति ने आपको. जो व्यक्ति हमारा नायक होता है, वो हमें प्रेरित करता है, बेहतर बनने के लिए, मगर हम तो और भी रसातल मे जा रहे हैं. गलत बयानी, झूठ मानो अब उपलब्धियां हो गयी हैं! किसी के बारे मे कुछ भी बोल दो, बगैर प्रमाण के उस पर विश्वास करके इंसान को सूली पर लटका दिया जाता है. त्वरित सियासी फायदे के लिए बीजेपी इस देश को कहां ढकेल रही है क्या अंदाज़ा है आपको? क्या अंदाज़ा है पार्टी के नेताओं को? वो भी क्या करेंगे जब घृणा की गंगोत्री ऊपर से बहती हो तो! दुखद है. और मुझे दुख मौजूदा पीढ़ी का नहीं, चिंता अपने बच्चों की है कि विरासत मे उन्हे क्या दिए जा रहा हूं!


(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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मुकाबला घाघ लड़ाकों से है मगर सरकार कांग्रेस की बनेगी @brajeshabpnews



आयो बूढो बसंत कांग्रेस दफतर में ...

:: सुबह सवेरे में ब्रजेश राजपूत: ग्राउंड रिपोर्ट


सोचा तो था कि इस ग्राउंड रिपोर्ट का शीर्षक बगरौ बसंत से शुरू करूंगा मगर हालत ऐसे नहीं दिखे तो बदल दिया। बहुत दिनों के बाद मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के तीन मंजिला दफतर में जो रौनक एक मई को नये अध्यक्ष कमलनाथ के पद भार संभालने के साथ आयी थी, वो अभी थोडे कम-ज्यादा अनुपात में हर मंजिल पर बनी हुयी है।

हांलाकि उस दिन तो भोपाल के शिवाजी नगर में कांग्रेस दफतर के बाहर तो क्या पूरे भोपाल में नये अध्यक्ष के स्वागत का जो मजमा उमड़ा था, वो यादगार था। एयरपोर्ट से शिवाजी नगर तक पोस्टर बैनर होर्डिग्स और स्वागत मंच तो गिने नहीं जा पा रहे थे। अगले दिन भोपाल के प्रमुख अखबारों ने भी तय प्रोटोकाल तोडकर पहले पेज पर कांग्रेस की खबर दी और बताया कि कांग्रेस के नये अध्यक्ष के काफिले ने बीस किलोमीटर का सफर छह घंटे में तय किया।
कांग्रेस दफतर के बाहर भी नजारा नये अध्यक्ष नहीं मुख्यमंत्री के शपथ लेने जैसा ही था। डायस सजा था मंच पर कुर्सियां थीं सामने समर्थकों की जोश में हिलोरे मारती भी भीड़ थी। बस नहीं थीं तो सिर्फ राज्यपाल। मगर पीसीसी की तीसरी मंजिल में बने अध्यक्ष के एंटी चैंबर में सोफे और काउच पर बुरी तरह से घुसे बैठे कांग्रेस के नेता दावे कर रहे थे कि देखना इस बार दिसंबर में शपथ भी होगी और यहीं होगी। वजह। वजह ये कार्यकर्ताओं की स्वतस्फूर्त भीड़ और मजमे को देखो क्या उत्साह उमड़ कर आया है।

मगर ये क्या मध्यप्रदेश के राजनैतिक इतिहास पर यादगार किताब लिखने वाले हमारे मित्र ने उत्साह से लबरेज कांग्रेस के इन नेताजी को याद दिलाया कि मत भूलिये फरवरी 2008 में जब सुरेश पचौरी और अप्रेल 2011 में कांतिलाल भूरिया जब पीसीसी चीफ बनकर आये थे, तब भी ऐसा ही मजमा और उत्साह उमड़ कर आया था। मगर चुनावों के रिजल्ट हमारे आपके सामने हैं। हमारे मित्र की बात सुन वहां बैठे सारे कांग्रेसी नेताओं के मुंह में कड़वाहट घुल गयी। मैंने भी सोचा नेताओं के उत्साह के गुब्बारे में पिन चुभोने की कारीगरी हम पत्रकारों को ही आती है।
खैर अभूतपूर्व उत्साह के चार दिन बाद भी माहौल वही था। नीचे कांग्रेस की किसान कलश यात्रा को रवानगी दी जा रही थी। किसानों में कांग्रेस का माहौल बनाने किसान कांग्रेस की ओर से इस यात्रा को मंदसौर तक ले जाया जाने वाला है। समझा जा रहा है कि वहां छह जून को यात्रा की समाप्ति पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी आ जायें क्योंकि जब मंदसौर गोली कांड हुआ था तो वे नीमच से ही वापस भेज दिये गये थे मगर अब उनके आने की योजना बन रही है।

राहुल गांधी और कमलनाथ के जिंदाबाद के बाद जब ये यात्रा रवाना हो गयी तो कांग्रेस दफतर में प्रवेश करते ही लिफट के करीब मिल गये गोविंद गोयल जिनको पार्टी ने कोषाध्यक्ष बनाया है। बेबाक और बिंदास अंदाज में रहने वाले गोंवंद इस पुनर्वास से प्रसन्न दिखे। वरना पिछले अध्यक्ष के समय तो उन्होंने पार्टी दफतर के सामने चरखा चलाकर गांधी गिरी की थी। गोयल ने जब पिछला चुनाव गोविंदपुरा से लड़ा था तब वो साठ साल के थे। पैंसठ साल में मिली ये जिम्मेदारी उन पर भारी है। नेता प्रतिपक्ष के कमरे की ओर बढते ही दिख गये चंद्रप्रभाष शेखर जिनका अपनी उमर को लेकर हंसी ठटठा चल रहा था। शेखर जी उन पांच लोगों में से हैं जिनको पद संभालने के पहले ही दिन अध्यक्ष जी ने जिम्मेदारी सौंपी थी। वो उपाध्यक्ष संगठन प्रभार हैं। सामने बैठे पत्रकार ने जब बातों बातों में उनसे उम्र पूछ ही डाली तो उनका जबाव था कि किसी पुरूष से उमर नहीं पूछी जाती मगर बता देता हूं छह चुनाव लड़े हैं तीन देवास से तीन इंदौर से। पूर्व सीएम पीसी सेठी से लेकर श्यामाचारण शुक्ला और अर्जुन सिंह तक की कैबिनेट में मंत्री रहा हूं। अब समझ लो पहली बार विधायक इंदौर तीन से 1972 में बन गया था। उस वक्त तुम्हारे में से कुछ तो पैदा भी नहीं हुये होगें। समझे अब चलने दो बहुत काम करने हैं। इस अंजानी उमर में काम के प्रति ये लगन देख दिल भर आया।



कांग्रेस दफतर के भूतल के किनारे वाले कमरे पर ही बैठे थे मानक अग्रवाल। मानक जी के अनुभव का कोई जबाव नहीं। पार्टी के वरिष्ट नेता है पर पिछले चुनाव के समय टिकट नहीं पर सारी जिम्मेदारियों को छोड़ पीसीसी से बाहर हो गये थे वरना हम मीडिया कि लिये वो सुबह दस से छह तक बाइट के लिये दफतर में रहते थे। मानक भाई मीडिया कमेटी के चैयरमेन हैं। प्रिंट मीडिया, इलेक्टानिक मीडिया, सोशल मीडिया और मोबाइल मीडिया के जमाने में मानक भाई कैसे सबको साधेंगे देखना होगा।
तीसरी मंजिल पर नये नियुक्त अध्यक्ष का कमरा था जो अध्यक्ष जी के नहीं होने पर पूरी तरह बंद था। वहां मौजूद पत्रकार मित्रों ने बताया कि पहले जहां हम अध्यक्ष के एंटी चैंबर तक चले जाते थे और वहीं पर कैमरा लगाकर बाइट ले लेते थे मगर अब यहां चैंबर के बाहर खड़े रहने वाले अध्यक्ष जी के स्टेनगन लिये सुरक्षा गार्डों से कमरे में झांकने के लिये भी जूझना पड़ता है। अध्यक्ष जी तक आपकी बात पहुंचाने वाले लोग भी नहीं है ऐसे में हम बाइट कलेक्टरों की मुश्किल बढने वाली है। मैंने उनको धीरज बंधाया यार वरिष्ठ नेताओं के साथ ये दिक्कतें आतीं हैं मगर हर हालत में जो काम ना निकाले वो कैसा टीवी जर्नलिस्ट इसलिये मुन्ना भाई लगे रहो...

पुनश्च :

सौ बात की एक बात दफतर के नीचे कांग्रेस से हाल में जुड़े एक प्रोफेशनलिस्ट ने कही कि यहां हमारे यहां नेताओं में आन-बान-शान की लड़ाई है मगर सामने मुकाबला चुनाव को युद्व समझ कर लड़ने वाले घाघ लड़ाकों से है मगर सरकार कांग्रेस की बनेगी क्योंकि यहां भले ही तैयारी कम हो मगर वहां जनता में सरकार का विरोध ज्यादा है। 

ब्रजेश राजपूत,
एबीपी न्यूज
भोपाल

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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#चुनावी_जिन्न: जानिये अलीगढ़ में स्ट्रींगर्स के चौधरी समूह की कारकिर्दगी



AMU से कंट्रोवर्शियल स्टोरीज़ और स्ट्रींगर्स ठेकेदार 

— सय्यदैन जैदी


मैं कई साल AMU में रहा कई बार यूनियन के कार्यक्रम में शामिल हुआ. यूनियन हॉल में जाने के सैंकड़ों मौक़े आए. मैने कभी नहीं ध्यान दिया की वहां जिन्ना की तस्वीर भी लगी है. दर्जनो पुराने नेताओं की तस्वीरें हैं. जिन्ना की भी लगी होगी.

मेरे लिए जिन्ना भूत काल के भूतों में से था...जिसमें अकेले जिन्ना नहीं सावरकर और तमाम लोग शामिल थे..

बहरहाल आगे बढ़ते हुए शैक्षणिक जीवन में मेरे लिए ये लोग बेमानी हो चुके थे. मैं पिछले दिनो अलीगढ़ में था. कुछ फैक्ट्स आपके सामने रख रहा हूं. कि कैसे इस मुद्दे को हवा मिली
बात शायद 2004 की है. मै इंडिया टीवी में आऊपुट यानी डेस्क का शिफ़्ट इंचार्ज था 
अलीगढ़ में लोकल स्ट्रींगर्स का एक ठेकेदार ग्रुप है जो तीन-चार बड़े चैनलों के लिए स्टोरीज़ निकालता है. आजतक, IBN, India Tv जैसे चैनलों को ये फीड मुहईय्या कराते हैं. ये सारा तमाशा उसी ग्रुप का खड़ा किया हुआ है. ये लोग AMU से कंट्रोवर्शियल स्टोरीज़ की ताक में रहते हैं. और जब भी दिल्ली मीडिया से नरेटिव बिल्ड करने के लिए ख़ुराक की मांग होती है तो...इस तरह के समूह एक्टिव हो जाते हैं

सय्यदैन जैदी
पुराना एक क़िस्सा सुनाता हूं अलीगढ़ में स्ट्रींगर्स के चौधरी इस समूह की कारकिर्दगी  समझ में आएगी :

बात शायद 2004 की है. मै इंडिया टीवी में आऊपुट यानी डेस्क का शिफ़्ट इंचार्ज था. अलीगढ़ से एक स्टोरी हमें असाईमेंट से फारवर्ड हूई जिसमें अलीगढ़ पुलिस ने किसी साईबर कैफे पर दबिश दी और वहां मौजूद लड़के लड़कियों से काफी बदसलूकी की. मैने जब फुटेज देखा तो स्टोरी का बिलकुल अलग एंगल नजर आया अलीगढ की पुलिस लड़कियों को बाल पकड़-पकड़ के खींच कर निकाल रही थी. ये अशोभनीय था क्योकि पुलिस के दस्ते में कोई महिला पुलिस नहीं थी. स्टोरी जो आई थी वो थी कि कैसे अलीगढ़ में नौजवान कैफे में DATING करते हैं. और पढ़ाई लिखाई के लिए जाते हैं ये सब करते हैं, वगैरह वगैरह. बतौर मीडियाकर्मी मैने फुटेज को तर्जी दी और स्टोरी पलट गई. दो दिन तक इंडिया टीवी पर छात्राओं के साथ पुलिस के अनप्रोवोक्ड दुरव्यहार की खबर खूब चली. तत्कालीन एसपी महोदय के हाथ पैर फूल गए. मेरे ज़ाती जानने वाले स्ट्रिंगर ने मुझे फोन पर एसपी और उसी ठेकेदार स्ट्रीिंगर की बातचीत सुनाई. वो स्ट्रिंगर ठेकेदार मुझे जबरदस्त गालिंया दे रहा था. "सर ये जैदी का किया धरा है. उसको तो मैं देख लूंगा. आने दीजए अलीगढ़, वो तो आता रहता है..." मामले ने तूल पकड़ लिया. विधानसभा में सवाल उठ गए. डीजीपी महोदय को बयान देना पड़ा. एसपी महोदय का ट्रांसफर हुआ. ये तो हुआ इनका बैकग्राऊंड...
अब सुनिये जिन्ना की कहानी कैसे बनाई गई. मैंने यूनियन हाल में पहली बार 1988 में जिन्ना की तस्वीर देखी थी और भी तस्वीरें थी. जाहिर है दशकों से लगी है....मुझे मिली जानकारी के अनुसार उसी स्ट्रिंगर ठेकेदार ने फोटो को शूट किया अलीगढ़ के MP सतीश गौतम को वो फोटो दिखाई गई और कहा गया, "बड़ा मुद्दा बनेगा...आप पत्र लिखिए वीसी को... " सतीश गौतम ने पत्र लिख कर हटाने की मांग कर डाली स्टोरी तैयार. हालाकि बाद में मामले को तूल पकड़ता देख कर सतीश गौतम ने पलटी मारी और बोला कि मैने तो ये लिखा था की देखिए की लगी है कि नहीं और जांच की जाए इत्यादि.

स्टोरी आईबीएन यानी मौजूदा TV 18 न्यूज को दी गई और फिर आगे सब इतिहास है. मैने इन स्ट्रींगर बंधुओं के साथ अपना तजुर्बा लिखा है...जो लोग उस समय मेरे साथ इडिया टीवी में थे वो इसका सत्यापन कर सकते हैं. यानी अाप समझे कैसे चैनलों द्वारा नरेटिव तैयार किए जाते हैं. कैसे स्ट्रींगर्स नंबर बढाने के लिए या अपनी आईडियोलाजी को पोषित करने के लिए ये काम करते हैं. लगभग अस्सी सालों से लगी तस्वीर की अब खबर ली गई. भारत में कई और जगह जिन्ना की तस्वीर मौजूद है लेकिन जिन्ना के जिन को AMU से ही निकालना था ना बात तो तभी बनती एजेंडा तभी रंग लाता....सियासत जो ना कराए!



(वरिष्ठ पत्रकार सय्यदैन जैदी की फेसबुक पोस्ट)
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देवदत्त पटनायक ने चमत्कार कर दिखाया — ममता कालिया


ज्ञान गुणसागर की प्रार्थना — ममता कालिया

ज्ञान गुणसागर की प्रार्थना 

रविवासरीय हिंदुस्तान से...





ऐसे समय में जब आधुनिकता और पश्चिमीकरण की दौड़ में हम अपनी प्राचीन भक्ति और धर्म से दूरी बना चुके थे, यकायक शिक्षित समाज के कुछ विद्वानों ने धर्म और इतिहास केंद्रित पुस्तकों को नवीन पद्धति से परखना शुरू किया। पारंपरिक और पौराणिक मिथकों को तर्कसंगत ढंग प्रस्तुत करने के लिए प्रसिद्ध देवदत्त पटनायक ने अपनी पुस्तक ‘मेरी हनुमान चालीसा' में यह चमत्कार कर दिखाया है। जो चालीसा प्रेमी गीता प्रेस की पतली-पतली चालीसा पुस्तिकाओं के अभ्यस्त हैं, हो सकता है उन्हें एक सौ पचानबे रुपये की यह नयनाभिराम पुस्तक महंगी लगे। लेकिन जो लोग चालीसा के निहायत सरल-से लगने वाले रूप में छिपे गूढार्थ का ज्ञान अर्जित करने को उत्सुक होंगे, उन्हें यह पुस्तक अच्छी लगेगी। इसमें प्रत्येक छंद की सारगर्भित व्याख्या की गई है।

मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई इस पुस्तक का सरल सुबोध अनुवाद भरत तिवारी ने किया है। हममें से जो मित्र अब तक भरत तिवारी को एक छायाकार, पत्रकार के रूप में जानते थे, जरा संभल जाएं। इस अनुवाद से  स्पष्ट है कि भरत के पास बड़ी समर्थ भाषा और भाव-संपदा है। यह पुस्तक अवधी से अंग्रेजी और अंग्रेजी से हिंदी में रूपांतरित होकर भी अपनी अर्थगर्भिता में अत्यंत समृद्ध है।

प्रायः मंगलवारों को हमने मंदिर के प्रांगण में हनुमान-भक्तों को बड़बड़ाहट, हड़बड़ाहट में हनुमान चालीसा के छंदों को गड़बड़-पाठ करते देखा है। विवाह के मंत्रों की तरह अबूझ, अगम्य होते हैं ये मंगलवारी पाठ। उन भक्तों से पूछा जाए तो वे शायद इसका अर्थ न समझा पाएं। वास्तव में ऐसे भक्तों के लिए हनुमान चालीसा मुख्य रूप से आस्था की चीज है। इसलिए वे इस पुस्तक से और किसी चीज की शायद  ही अपेक्षा करते हों। लेकिन देवदत्त पटनायक ने अपनी पुस्तक में आस्था को अक्षुण्ण रखते हुए इसमें अंतर्निहित पौराणिकता के सूत्रों का उद्घाटन भी बाखूबी किया है।

मेरी हनुमान चालीसा, देवदत्त  पटनायक, अंग्रेजी से अनुवाद : भरत तिवारी, रूपा पब्लिकेशंस, मंजुल प्रकाशन,  मूल्य : 195 रुपये।
हिंदुस्तान से साभार





(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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चाँद पर जो दाग हैं...वह पंछियों के ही प्रेम चिह्न हैं — रुचि भल्ला

प्रेम का ज़ख़्म तो वैसे भी सदा गहराता है...हरा रहता है ताउम्र...जैसे रहता है नीम के दरख्त पर झूमते पत्तों का रंग



दूर देस की पाती - 1

— रुचि भल्ला


चैत मास की यह सुबह...आकाश आज निखरा-निखरा सा दिख रहा है...कल शाम की बूँदा-बाँदी ने सूरज के चेहरे को झिलमिलाते आइने सा चमका दिया है...सूरज का यह आइना, हर रोज़ देखना ज़रूरी है, जीवन की आँखों के लिए। छत पर खड़ी मैं सूरज के चेहरे को देखती हूँ। उस जोगी के माथे पर किरणों की गुलाबी रेखाएँ त्रिपुंड सी सजी दिख रही हैं...वह जोगी शिव के प्रेम में धूनी रमाये दिखता है...जोगिया वस्त्रों को पहने ज्योतिषी बन कर बैठ गया है, आकाश के नीले बिछौने पर और अब बैठा खोल रहा है, दिन की बंद मुट्ठी को...हथेली की रेखाओं को देख रहा है कि दिन कैसा बीतेगा आज...दिन की यह मुट्ठी रहस्य की खुली पोटली है सूरज के हाथों में थमी हुई...

चाँद को यह ज्योतिष विद्या नहीं आती...वह तो क्रोशिए का बुना गोल रूमाल है चाँदी के तार का जिसके किनारों पर नीले तारों की बुंदकियाँ लटक रही हैं...। हाँ ! फलटन के आसमान में तारे भी नीले ही होते हैं...। दिन भर का थका सूरज जब पठार पर अपनी ठोड़ी टिका देता है और दिन को विदा देने लगता है, किरणों वाले अपने हाथ हिला कर...सारे तारे चाँद की गुफ़ा से निकल आते हैं और गोधूलि के आसमान का रंग ले लेते हैं अपनी हथेली में कैद करके...

फलटन के आकाश में मैंने नीले तारे देखे हैं...। चाँद की अँगूठी में जड़े नीलम रत्न वाले तारे...। चाँद की यह तारों वाली अंगूठी मैंने आकाश से उधार माँग कर पहन रखी है अपनी उंगली में...। पहना तो मैंने सूरज का गोल कंगन भी है कलाई में...। कौन कहता है कि सूरज को हाथ नहीं लगा सकते...। मैं तो सूरज के गोल जलाशय में सातारा के पंछियों को रोज़ डूबते-उबरते देखती हूँ...। अब यह बात अलग है कि पंछियो ने अपनी चोंच से हर रात चाँद के मस्तक को भी जाकर चूमा है...। चाँद पर जो दाग हैं...वह पंछियों के ही प्रेम चिह्न हैं..। ऐसे दाग जो कभी मिटते नहीं...चाँद पर पड़े गड्ढे वक्त की धूल से भी भरते नहीं...प्रेम का ज़ख़्म तो वैसे भी सदा गहराता है...हरा रहता है ताउम्र...जैसे रहता है नीम के दरख्त पर झूमते पत्तों का रंग...हाँ ! उन पत्तों पर पीली छाँव भी पड़ती है...पर दरअसल वह हरे रंग को हासिल करने की आखिरी सीढ़ी होती है...वही सीढ़ी जो धरती से आकाश की ओर आती-जाती है...जीवन से मृत्यु...मृत्यु से जीवन की ओर...। वह चाँद से पार की दुनिया है...जहाँ जाकर सूरज की गुफ़ा के भीतर से फ़िर लौट आना होता है...। यह आना-जाना...जाना-आना...सूरज और चाँद के दो पहियों पर सवार वह रथ है...जो हमें सैर कराता है इस दुनिया और उस पार की दुनिया की भी...। यह रंग पीले पत्तों पर हरा चढ़ना...हरे का पीला हो जाना होता है...मनुष्य की आँखें ही हर रंग नहीं देखा करतीं...दरख्त के पास भी आँखें होती हैं...सभी मौसमों के रंग वह योगी एक टाँग पर खड़ा होकर देखता रहता है...दरख्त से ज्यादा कौन बड़ा तपस्वी है इस संसार में...जो उसकी छाँव में रात-दिन बैठे , वह तो खुद सिद्धार्थ से बुद्ध हो जाता है...

रुचि भल्ला


दरख्त की जो बात चली...मैं घर की छत पर झुकते नीम के दरख्त की ओर देखने लगी...जितने पत्ते उतने ही फूल खिल आए हैं वहाँ...एक-दूसरे को होड़ देते हुए...इस रस्साकशी के खेल में आम का दरख्त भी पीछे नहीं रहता...अब उसमें भी उतनी ही अमिया हैं जितने पत्ते हैं वहाँ...मार्च का यह मौसम रानी रंग का हो आया है...आम और नीम के दरख्त घर के आँगन में हाथ में हाथ डाले खड़े हैं...एक दूसरे के प्रेम में उनके पत्ते रानी रंग के हुए जाते हैं...यह रंग उन पर आकाश से उतरता चला आ रहा है...

आसमान में बिखरते गुलाबी बादलों के गुच्छे अब ऐसे लग रहे हैं जैसे सूरज के हाथ में बँधी डोर हो गुलाबी गुब्बारों की...मैं आकाश की ओर देखने लगती हूँ...पच्चीस पंछियों का झुंड उड़ा चला जा रहा है दूर चहचहाते हुए...तीन बगूले भी हैं वहाँ ...बीस मिट्ठुओं का झुंड भी...नीलकंठ पंछी ने भी पंखों को खोल कर अपने सभी रंग सौंप दिए हैं आकाश को...बी ईटर ऐसे उड़ रही है जैसे लहराती पतंग हो कोई...सभी पंछी पतंग से उड़ते लग रहे हैं...रंग-बिरंगी उन पतंगों से फलटन का सारा आकाश भर आया है...और उन पतंगों की अदृश्य डोर सूरज के हाथ में थमी हुई दिखती है...

चैत के महीने का आकाश फ़ालसायी होता जा रहा है...पीली चोंच वाली एक चिड़िया भी कहीं से उड़ी चली आ रही है और आकर बैठ गई है नीम के दरख्त पर । मेरे देखते-देखते उसने खोल दी है अपनी पीली चोंच...उसकी चोंच खुलते ही सरगम के स्वर बिखर गए हैं आकाश में। पीली चोंच वाली यह चिड़िया अब चैती गा रही है।...मैं उसे देखती हूँ...याद आने लगते हैं उपेन्द्र नाथ अश्क...याद आती है उनकी लिखी किताब...'पीली चोंच वाली चिड़िया के नाम...' उस याद के साथ फड़फड़ा उठते हैं किताब के पन्ने फलटन की बहती हवा में...पृष्ठ दर पृष्ठ वह किताब खुद पलटती जाती है...और मैं पन्ना-पन्ना उसके पीछे-पीछे...और जा पहुँचती हूँ पीली चिड़िया के साथ उड़ते हुए सातारा के पठार की हद को लाँघते हुए इलाहाबाद शहर में...जहाँ उपेन्द्रनाथ अश्क लिख रहे होते हैं इस पीली चोंच वाली चिड़िया को अपने बगीचे में सेब की फुनगी पर बैठे देखते हुए—

अपनी किस्मत को सराहे या गिला करता रहे ।
जो तेरे तीर-ए-नज़र का कभी घायिल न बने।।


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कुछ झलक उस दिल्ली की जिसमें रामकुमार पेरिस के बाद...



कुछ भी ‘अतिरिक्त’ उन्हें पसंद नहीं था। न ही किसी भावना का भावुक प्रदर्शन करते थे। न रंगों-शब्दों की फिजूलखर्ची रामकुमार के यहां है। सौ टका टंच खरी चीजें थीं।

— प्रयाग श्‍ाुक्‍ल



रामकुमार जी ने भरा-पूरा जीवन जिया, बड़ी संख्या में चित्रों और रेखांकनों की रचना की। बहुतेरी कहानियां लिखीं, जो उनके चित्रों की तरह ही विलक्षण और सारवान हैं, जिनमें उनकी विशिष्ट छाप है। उनके चित्र और रेखांकन दूर से ही पहचाने जाते हैं और कहानी की पंक्तियां भी बता देती हैं कि वे रामकुमार की पंक्तियां हैं—कुछ मंथर, सोच में डूबी भाषा वाली, संवेदनशील, अंतरमन में प्रवेश करने वालीं।

इस एक महीने के अंतराल को छोड़ दें तो शायद ही 94 वर्षों के कलाकार-लेखक का कोई ऐसा दिन बीता हो, जब वे कोई चित्र-रेखांकन न बना रहे हों

वे मुझसे 16 बरस बड़े थे। जब हम बड़े हो रहे थे, लिखना-पढ़ना शुरू कर रहे थे, तो हमने उन्हें सबसे पहले कहानीकार के रूप में ही जाना था। तब हमने उनकी पुस्तक यूरोप के स्केच पढ़ ली थी और जान गए थे कि वे प्रमुख चित्रकार भी हैं। यह भी जान गए थे कि वे निर्मल वर्मा के बड़े भाई हैं। अपने घनिष्ठ मित्र अशोक सेकसरिया से उनके बारे में कुछ और जानकारियां मिलती रहती थीं। वे उनके घोर प्रशंसक थे। पर तब तक हमने उनका कोई चित्र आमने-सामने होकर देखा नहीं था। उनकी कहानियां कहानी पत्रिका में छपती थीं, जिसे प्रेमचंद के बड़े बेटे श्रीपत राय निकालते थे। हम उत्सुकतापूर्वक रामकुमार की चीजें ढूंढ़ते।

एक सप्ताह उनके साथ
कहानी में मेरी और मेरे बड़े भाई रामनारायण शुक्ल की भी कहानियां छपने लगी थीं। वे रामकुमार जी ने देखी होंगी, तभी 1962 में उनका एक पोस्टकार्ड मिला, “कलकत्ता आ रहा हूं, संभव हो तो मिलना चाहूंगा।” मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। एक सप्ताह उनके साथ घूमा-फिरा। फिर 1962 में मैं कल्पना पत्रिका में हैदराबाद चला गया। वहां एक बरस बिताकर दिल्ली में रहने-बसने के इरादे से दिल्ली आ गया। उस दिल्ली में जहां जैनेन्द्र थे, अज्ञेय थे, रामकुमार, हुसैन, इब्राहीम अलकाजी, यामिनी कृष्णमूर्ति और कृष्णा सोबती थीं। सभी कलाओं में नई गतिविधियां थीं। आ तो गया पर रहने का ठीक ठाक ठिकाना नहीं था।

राम कुमार, एमएफ हुसैन, तैयब और साकिना मेहता,  फोटो राम रहमान

वाराणसी के दिनों में उन्होंने हुसैन के कहने पर मुनीमों वाले बहीखातों में रेखांकन करना शुरू किया था। हुसैन ने उनसे कहा था, इन बहीखातों का कागज टिकाऊ होता है, और वे सस्ते भी होते हैं।


एक चाभी मेरे पास
एक दिन रामकुमार जी ने कहा कि जब तक कमरा नहीं मिल जाता, तुम मेरे स्टूडियो में आकर रह सकते हो। वे सुबह कोई नौ बजे आते और एक बजे तक करोलबाग वाले घर चले जाते। एक चाभी मेरे पास रहती थी। स्टूडियो गोल मार्केट में था। कनॉट प्लेस से दूर नहीं था। मैं वहां तीन महीने रहा। रामकुमार जी से मिलने के लिए मकबूल फिदा हुसैन, कृष्ण खन्ना, तैयब मेहता आते थे। सभी उनके मित्र थे। हुसैन साहब से मैं कल्पना में पहले ही मिल चुका था। बड़ौदा से कभी-कभी नसरीन मोहम्मदी भी आती थीं। उन्हीं दिनों मेरी भेंट स्वामीनाथन, अंबादास, जेराम पटेल, हिम्मत शाह आदि से भी होने लगीं, कॉफी हाउस में, कनाट प्लेस के एक रेस्तरां में, कला आयोजनों में। कभी श्रीकांत वर्मा, कमलेश, महेंद्र भल्ला के साथ। एक दिन रामकुमार जी के पास धर्मवीर भारती का पत्र आया, दिल्ली से किसी युवा लेखक-पत्रकार का नाम सुझाएं, जो धर्मयुग के लिए दिल्ली के कला आयोजनों पर छोटी-छोटी टिप्पणियां लिख दिया करे। रामकुमार जी ने कहा, कि “तुम तो कलाकारों से मिलते हो, प्रदर्शनियां देखते हो चाहो तो लिख सकते हो।” मुझ फ्रीलांसर के लिए यह एक और सुयोग था। टिप्पणियां लिखीं। छपीं। फिर बारी आई ‘दिनमान’ की। वहां बरसों तक कला पर लिखा।

बांये से: वर्षिता, प्रयाग शुक्ल, रामकुमार, विमलाजी, कृष्ण खन्ना (फ़ोटो: रघु राय, पीपल)

मित्र मंडली
मैं अपना जो प्रसंग यहां ले आया, वह अकारण नहीं। इच्छा यही है कि कुछ झलक उस दिल्ली की मिले, जिसमें रामकुमार पेरिस प्रवास के बाद आकर रहने लगे थे। उनकी एक मित्र मंडली थी। स्टूडियो था। कथाकार-कलाकार दोनों रूपों में सक्रिय थे। कहानी, धर्मयुग, सारिका, कल्पना में उनकी कहानियां छपती थीं। छपते थे उनके चित्र। उनकी कला के संग्राहक बढ़ने-बनने लगे थे। वे श्रीपत राय के निमंत्रण पर हुसैन के साथ वाराणसी हो आए थे। उनकी कला एक नई करवट ले चुकी थी। उदास, अवसादपूर्ण आकृतियों का अवसान हो गया था। उसकी जगह ले ली थी अमूर्त सैरों (लैंडस्केप्स) ने, वाराणसी की धारा ने, सांकेतिक नावों ने, पीछे दिखते घरों-घाटों ने, गलियों ने। आकृतियां अब कहीं नहीं थीं। पर थी और भी गहरी हो आई मानवीय करुणा, संवेदना जो मद्धिम से रंगों में, एक पवित्र-सी उजास में, फैली थी कैनवासों में। धीरे-धीरे यह और गहरी होती गई। एक नई चित्र-भाषा बन और संवर रही थी, जिसने स्वयं रामकुमार को छा-सा लिया था।

वाराणसीः एक यात्रा
कुछ ही बरसों बाद कहानियां उनकी कलम से कम ही निकलती थीं, ब्रश और पैलेट नाइफ उन्हें अधिक प्रिय हो उठे थे। गद्य उन्होंने कुछ लिखा जरूर बाद में भी। मेरे आग्रह पर पेरू की यात्रा पर उन्होंने एक वृत्तांत लिखा था दिनमान के लिए। और जब कल्पना काशी अंक (2005) का संपादन किया मैंने, तो आवरण के लिए अपना एक काशी-चित्र तो दिया ही, एक टिप्पणी भी विशेष रूप से लिखीः ‘वाराणसीः एक यात्रा’। यह कुछ दुर्लभ-सी ही चीज है।

सौ टका टंच खरी चीजें
रामकुमार विनम्र थे। संकोची थे। कुछ भी ‘अतिरिक्त’ उन्हें पसंद नहीं था। न ही किसी भावना का भावुक प्रदर्शन करते थे। न रंगों-शब्दों की फिजूलखर्ची उनके यहां है। सौ टका टंच खरी चीजें थीं। हैं। इसी ने उनकी कला को, व्यक्तित्व को एक चुंबकीय शक्ति भी दी। ‘एकांतवासी’ से रामकुमार से बहुतेरे लोग मिलना चाहते थे। गैलरियां उनके चित्रों को प्रदर्शित करना चाहती थीं, आगे बढ़कर। पत्र-पत्रिकाओं के कला-लेखक, साक्षात्कारकर्ता उनसे मिलने को बैचैन रहते थे। पर, स्वयं रामकुमार को अपने लिए आगे होकर, कुछ करते हुए नहीं देखा। काम और बस काम, रचना और बस रचना, यही उनकी दिनचर्या बनी रही अंत तक। 94 वर्ष की आयु में वे 14 अप्रैल की सुबह हमारे बीच से गए, अपने ही घर पर लेटे हुए। (उससे एक दिन पहले ही कोई महीना भर हॉस्पिटल में बिताकर घर आए थे) इस एक महीने के अंतराल को छोड़ दें तो शायद ही 94 वर्षों के कलाकार-लेखक का कोई ऐसा दिन बीता हो, जब वे कोई चित्र-रेखांकन न बना रहे हों।

जन्म शिमला में हुआ था। स्कूली शिक्षा भी हुई। पहाड़, वृक्ष, नदियां, जलधाराएं, बर्फ, हवा-सब हम उनके अमूर्त लैंडस्केप्स में देख सकते हैं। वहां विभिन्न ऋतुएं भी बसी हुई हैं। उनके चित्र हों या कथाएं, वहां ऋतुएं मानों रंगों में भी कभी-कभी प्रकट होती हैं।

‘एकांतवासी’ से रामकुमार
हां, उन्हें ‘एकांत’ में रहना प्रिय था। जब पत्नी विमला जी (जो संगीत की अनन्य प्रेमी थीं और रूसी कहानियों का सुंदर अनुवाद किया था) का कुछ बरस पहले निधन हो गया और बेटा-बहू (उत्पल, रेणु) और दोनों पौत्र (अविमुक्त, अविरल) ऑस्ट्रेलिया में थे, तो वह एकांतवास एक दिनचर्या भी बन गया। बीच में उनकी छोटी बहन निर्मला, पास में रहने आईं जरूर, और बेटा उत्पल तो प्रायः ऑस्ट्रेलिया से आ ही जाता था, पर, कुल मिलाकर उनका एंकातवास, एक दिनचर्या-सा बन गया। रोज स्टूडियो में काम करना, पढ़ना—कुछ न कुछ और ‘भारती आर्टिस्ट कालोनी’ (दिल्‍ली) के अपने 18 नंबर वाले निवास के पास के, सुंदर, हरियाले पार्क में टहलना, शाम को टीवी पर कुछ देखना यही तो था नित्य का जीवन। कभी-कभी कुछ आत्मीय मिलने आते। दिल्ली से, दिल्‍ली के बाहर के भी। उन्हें छोड़ने गेट तक आते। सर्दियों में धूप में बाहर के हिस्से में किसी किताब के साथ दिखते या यों ही चुपचाप बैठे हुए।

अंधेरा उतर आता
पिछले साल की ही तो बात है, अपने कला-प्रेमी, मित्र अमन नाथ के आग्रह पर रामगढ़ गया था, जहां ‘नीमराना नॉन होटल्स’ में रामकुमार के नाम पर एक कमरा है। अमन नाथ की इच्छा थी कि मैं उस कमरे में दो-एक दिन रहूं, जहां कई बरस पहले रामकुमार-विमला जी बीस-पच्चीस दिन रहे थे। उस कमरे को और आसपास के वातावरण को ‘फील’ करूं और रामकुमार जी पर उस प्रसंग से एक टिप्पणी लिखूं, जो उस कमरे में लगाई जाए। मैं गया। टिप्पणी लिखी। अंग्रेजी में। रामकुमार जी को सुनाई। संतोष हुआ कि उन्हें पसंद आई। वहां के अधिकारियों-कर्मचारियों से मालूम हुआ कि रामकुमार जी बालकनी में बैठ जाते, घाटी की ओर, पहाड़ों की ओर देखते रहते। अंधेरा उतर आता। हां, उन्हें पहाड़ों से लगाव था। जन्म शिमला में हुआ था। स्कूली शिक्षा भी हुई। पहाड़, वृक्ष, नदियां, जलधाराएं, बर्फ, हवा-सब हम उनके अमूर्त लैंडस्केप्स में देख सकते हैं। वहां विभिन्न ऋतुएं भी बसी हुई हैं। उनके चित्र हों या कथाएं, वहां ऋतुएं मानों रंगों में भी कभी-कभी प्रकट होती हैं। 1980 के बाद के चित्रों में नीला, हरा, पीला आदि उनके रंगाकारों में कई रूपों में बस गए। कभी तीव्र ब्रश स्ट्रोक्स में, कभी मंथर गति से, कभी किसी पट्टी में, कभी रंग लेप में। टेक्सचर में। चित्र वाराणसी के हों या फिर हों लैंडस्केप्स, वहां मानो उनके अंतरमन की ही प्रतीतियां हैं।

हुसैन ने उनसे कहा
उस अंतरमन की, जिसकी अपनी एक विशिष्ट सौंदर्य दृष्टि थी। यही सौंदर्य दृष्टि उनके सादे पहनावे में, उनके उठने-बैठने-बतियाने में प्रकट होती रही। और कहानियों में भी तो ऋतुएं, रंग और पात्रों के अंतरमन ही क्रमशः उजागर होते हैं। उन्होंने उपन्यास भी लिखे, एक है घर बने घर टूटे, कहानी संग्रह कोई दर्जन भर हैं, हुस्नाबीबी और अन्य कहानियां तथा समुद्र जैसे। चित्र-रेखांकन तो हजारों की संख्या में हैं, जिनकी देश-दुनिया में बहुतेरी प्रदर्शनियां हुईं और जो दुनिया भर में, उनके कला-संग्राहकों के यहां एक ‘निधि’ की तरह सुरक्षित हैं। उन्होंने कई देशों की यात्राएं कीं। इन यात्राओं ने उनकी कला के रंगों पर छाप छोड़ी। ग्रीस और न्यूजीलैंड की यात्राओं ने विशेष रूप से। वाराणसी के दिनों में उन्होंने हुसैन के कहने पर मुनीमों वाले बहीखातों में रेखांकन करना शुरू किया था। हुसैन ने उनसे कहा था, इन बहीखातों का कागज टिकाऊ होता है, और वे सस्ते भी होते हैं।

बहीखातों में रेखांकन
ऐसे कुछ बहीखाते उनकी दराजों में बंद पड़े थे। मेरे और विमला जी के आग्रह पर, ये अंततः उन्होंने प्रदर्शनियों के लिए दिए। प्रदर्शनी मैंने क्यूरेट की। पहली प्रदर्शनी वढेरा गैलरी ने दिल्‍ली में 2012 में की थी फिर आकृति गैलरी ने कोलकाता में, मुंबई और दिल्‍ली में भी उनकी प्रदर्शनियां लगाईं। रेखाएं उनमें उन्मुक्त होकर विचरती मालूम पड़ती हैं, कुछ पुरानी स्मृतियों को और रेखांकन के वक्त की प्रतीतियों को बटोरती हुई। इनके तीन कैटलॉग बने-अलग-अलग।


प्रयाग शुक्ल
रामकुमार जी की यात्रा लंबी थी। उनके एक कथा संग्रह का नाम भी है, एक लंबा रास्ता। इस लंबे रास्ते पर वे धीर गति से चले, सब कुछ सूक्ष्म निगाहों से देखते हुए, बहुत कुछ संचित करते, रचते हुए, सौंदर्यशील ढंग से। यह चर्चा होती जरूर है कि अब कला नीलामियों में उनके चित्र करोड़ों में बिकते हैं। पर, इस पक्ष ने न उनके रहन-सहन को बदला, न पहनावे को, न खान-पान को, और कह सकता हूं कि 1962 में कोलकाता में हुई उनसे पहली भेंट और 2018 में हुई उनसे आखिरी भेंट यही बताती थी कि ‘वे नहीं बदले’ थे, कला अवश्य उनकी हमेशा कुछ ‘नया’ करती-रचती रही।



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अनुकृति की कहानी "मीरा"


जावेद मुस्कुराए। “ठीक है। चलो तुम्हें खाना खिलाता हूँ। साथ में जी भर कर तुम मुझे ताने खिला देना। ” मीरा हिचकिचाई। शायद मनु फ़ोन करे। उसे बाल भी धोने हैं, सुबह धोने-सुखाने का समय नहीं मिलता। जावेद तब तक एक छोटे से रेस्तराँ के सामने रुक गए। “ ‘साइज’ पर मत जाओ, ग्यूसिप्पी’ का रेस्त्रां है, ऐसा लज़ीज़ खाना बनाते हैं मियाँ-बीवी। ‘रोमानो’ टमाटर और ‘इटालियन बेज़िल’ इटली के अपने गाँव से मँगवाते हैं। ” उन्होंने द्वार पर आए कैप्टेन को दो अँगुलियाँ दिखाईं। छोटे, नीची छत वाले कमरे के एक कोने में उन्हें बिठाकर कैप्टेन ‘मैन्यू’ ले आया। “तुम तो शायद शाकाहारी हो?” मीरा ने सर हिलाया। “ ‘पास्ता’ ? यहाँ का ‘एरेबियाटा बहुत स्वाद होता है। या तुम ‘पेस्तो’ पसंद करोगी? और ‘एंटीपास्तो’?’

सोचने पर ही अहसास हो जाता है कि भाषा हिंदी को कैसा लगता होगा जब उसमे स्नातकोत्तर, विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान और स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाले इंसान का, एम.बी.ए करने के बाद जब वित्त जगत् में प्रवेश हो और वह उसे भूल जाए... 

और फ़िर एक रोज़ वापस आये...  

अनुकृति, वह हैं जिनकी गुज़ारिश हिंदी को रहती है. और वह वापस आयी हैं तो, कितनी अच्छी बात है कि हिंदी के लिए कहानी साथ लिखकर लायीं हैं और एक अच्छी बात यह है कि कहानी भी अच्छी है... बधाई!

भरत तिवारी




मीरा

— अनुकृति 


मीरा ने कमरे के द्वार पर आ दोनों ओर झाँका। गलियारे में कोई नहीं था। घर-बाहर के सब लोग जहाँ-तहाँ सो रहे थे। मीरा ने ‘टैम्पून’ की नन्ही ‘ट्यूब’ को हथेली में छुपाया और हाथ को साड़ी के पल्ले से ढाँप लिया। मन-ही-मन ‘टैम्पून’ के आविष्कारक को धन्यवाद देती वह धीरे से गलियारे में निकल आई और दूसरे छोर पर बने गुसलखाने की ओर बढ़ी। यदि यह छोटी-सी कपास और कृत्रिम ‘फाइबर’ की बनी, घनी सोखने वाली नली नहीं होती तो मेहमानों से भरे घर में यह छुपाना मुश्किल होता कि वह महावारी से है। फिर छूत-अछूत का झमेला, रसोई और पूजा घर से बाहर और अपनी अकर्मण्यता के कारण पर कनफुसकियाँ, शादी के दो सालों में भी दो ही रहने पर टिप्पणियाँ। ताई जी और मौसी जी ने तो उसके लौटने के अगले दिन ही कहा था, दोनों इतनी दूर रहोगे तो कैसे चलेगा? परिवार बढ़ाओ, बहू, घर में ख़ुशी आए, सबके आँसू रुकें।

जब मीरा ने इंजीनियरिंग में पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया था तो घर के लोग ही नहीं, नाते रिश्तेदार, दूर पार के सगोती तक बधाई देने आए थे। लेकिन साथ ही दबी ज़ुबान में सलाह दे गए थे, ब्याह करो छोरी का, हाथ से न निकल जाए। कॉलिज में चयन के लिए कंपनियों में से सबसे अग्रगामी तकनीकी कंपनी ने उसे चुना तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ था। लेकिन जब उसने न्यूयॉर्क के बजाए कंपनी के छोटे-से दिल्ली वाले दफ़्तर में काम करना चुना तो उसके सहपाठी कुलमुलाए थे। “ ‘वॉट क्रेज़ीनैस’ मीरा”, कॉलेज के ‘प्लेसमेंट’ निदेशक गुस्साए “क्या बेवकूफ़ी कर रही हो। न्यूयॉर्क में ‘टैक डिवेलपमेंट’ के बजाए दिल्ली में फुटकर किस्म का काम। इससे अच्छा होता कि तुम इस कंपनी के ‘इंटरव्यू’ में जाती ही नहीं, किसी और को मौक़ा मिलता। ” मीरा ने चुपचाप सुन लिया था, नहीं कहा था कि कानपुर से दिल्ली जाने के लिए ही उसे कितनी दलीलें देनी पड़ी थीं। दिल्ली में अकेली कैसे रहेगी छोरी, आए दिन दुर्घटनाएँ होती हैं, जवान लड़की के सौ दुश्मन। परिवार में सबकी कुछ-न-कुछ राय थी। मम्मी-पापा ने अलबत्ता उसका पक्ष लिया था, दिल्ली ही जा रही है विदेश नहीं, कानपुर से दिल्ली कौन दूर है, आती-जाती रहेगी, कोई-न-कोई बना रहेगा उसके पास। लेकिन उसके लिए रिश्ता खोजने की सरगर्मी उन्होंने बढ़ा दी थी। मनु का रिश्ता आने पर उनकी ख़ुशी बेहिसाब थी। आगरा का परिवार, पढ़ा-लिखा सुलझा हुआ लड़का दिल्ली में बैंक में, एतराज़ का सवाल ही कहाँ उठता था। उन्हें नौकरी वाली ही चाहिए, पापा ने कहा था, आज-कल दो जनें कमाएँ तभी बरकत है, बहनें थोड़ी तेज़ हैं लेकिन लड़का समझदार है, पढाई-लिखाई की कद्र समझेगा। यह कि मीरा को नौकरी करते पूरा साल भी नहीं हुआ, कि एक-दो मुलाक़ातों में अपरिचय दूर नहीं होता, कि अभी वह कुछ और जानना चाहती है, समझना चाहती है, ये सब बेकार के चोंचले थे और इन व्यर्थ की बातों से जिंदगी नहीं चलती थी।

शादी के बाद मीरा मनु के वसंत कुंज वाले फ़्लैट में आ गई थी। गुड़गाँव का उसका मकान जो उसने नौकरी के शुरूआती दिनों में चाव में सजाया था, छोड़ना पड़ा था। दफ़्तर से दूरी बढ़ गई थी। सप्ताह भर की भाग-दौड़ के बाद सप्ताहांत पर अक्सर आगरा जाना होता। भरे-पूरे परिवार में ऐसा ही होता है, मम्मी थकान से निढाल मीरा को कहतीं, कुछ न कुछ लगा रहता है तो मन अच्छा रहता है। गाड़ी से आते-जाते हैं, दो-तीन घंटे का तो रास्ता है, मनु कहता, लोग तो इतना अप-डाउन रोज़ करते हैं। दोनों जनें अकेले करोगे भी क्या, मीरा के ससुर कहते, अभी तुम लोग आ जाओ, हमारा पोता आ जाएगा तब हम आ जाएँगे। इस सब के बीच उसने काम पर ध्यान केंद्रित कैसे रखा वह ही जानती है । एक दिन उसके बॉस ने बुलाया था। "छ महीनों का ‘स्पेशल प्रोजेक्ट’ है न्यूयोर्क में। ‘ टैक डिवेलपमेंट’। ‘वैरी एक्साएटिंग’। तुम्हारा नाम दे दिया है। ‘यूल फाइंड इट रिवार्डिंग’। " कई दिन तक मीरा ने मनु को नहीं बताया। जब बताया तो मनु की भौंहें चढ़ गईं थीं। “छः महीनों के लिए कैसे जाओगी, मीरा? यहाँ ‘जॉब’ एक बात है, ‘यू.एस.’ जाना दूसरी। ‘वी हैव फ़ैमिली टू प्लान’। ”

“जुलाई से सितंबर तुम्हारा ‘बिज़ी सीज़न’ होता है, ‘बिजनेस ट्रिप्स’ बहुत होते हैं, छः महीने ऐसे ही निकल जाएँगे। ”

“उस समय साल भर के ‘टार्गेट्स’ ‘मीट’ करने का दबाव रहता है और उसी समय खाली घर में आओ और अकेले खाना गर्म करके खाओ... ‘एनी वे’ दो नावों में सवारी नहीं कर सकती तुम। ”

मीरा ने अपने बॉस से बात की थी। “ ‘वन ऑफ़ अ काइंड’ है ये मौका, मीरा। मुझे तो अपनी टीम से तुम्हें ‘स्पेयर’ करने में मुश्किल ही होगी लेकिन मैं तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ। एक बार जावेद से बात करो, वह ‘लीड’ कर रहा है यह प्रोजेक्ट। ” जावेद कंपनी भर में सबसे अग्रगामी तकनीकों और नवीनतर समाधानों पर अपने काम के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी ‘इनोवेशन टीम’ में चुने हुए तकनीकज्ञ थे। “देखो मीरा, यह ‘स्ट्रैच प्रोजेक्ट’ है। जटिल और बेहद दिलचस्प। मैं अपनी ‘इन टीम’ के बाहर से सिर्फ तीन लोगों को इस पर काम करने के लिए आमंत्रित कर रहा हूँ। ‘सिक्स मंथ्स ऑफ़ कमिटमेंट, कन्विक्शन एंड क्रिएटिविटी’ । सोच लो। ” मीरा ने दिन भर सोचा था।

“आज ‘प्रोजेक्ट लीडर’ से ‘कॉल’ था। पूरी ‘इंडस्ट्री’ में ‘फ़ेमस’ हैं अपने काम के लिए। " शाम को खाने की मेज़ पर मनु की थाली में गर्म रोटी परोसते हुए उसने बात उठाई थी। "बहुत जबरदस्त ‘थीम’ है, घरेलू ‘गैजेट्स’ में ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ का ‘इन्टेन्सिव’ प्रयोग। ” मनु का मुँह बन गया। ”सुनो तो सही, एकदम ‘साइंस फ़िक्शन’ है, घर के उपकरण अपनी 'प्रोग्रामिंग' को खुद-ब-खुद ‘मोडिफ़ाए’ करें, समय, मौसम, वातावरण और दूसरे ‘पैरामीटर्स’ के अनुसार। बहुत ‘एक्साइटिंग’ है। ”

“इन बातों का क्या फ़ायदा मीरा? हम इस बारे में बात कर चुके हैं। आधे साल के लिए यू.एस. जाना संभव नहीं है तुम्हारा। ”

“लेकिन आधे साल के लिए नहीं जाना है, सिर्फ तीन महीने के ‘इनीसिएशन वर्क’ के लिए। फिर यहीं दिल्ली से काम कर सकती हूँ। ‘प्रोजेक्ट लीड’ मान गए हैं। ” मीरा ने जल्दी से कहा।

“खाना खाओ। सोचते हैं। ” मनु ने पानी का घूँट लिया।

रात बिस्तर में मनु ने मीरा का नज़दीक खींचा था। मनु की छाती पर हथेलियाँ रख कर मीरा उठंग हो गई थी। “ ‘इट मीन्स ए लॉट टू मी’ मनु। बड़ा मौका है मेरे लिए। ”

“तीन महीने तीन महीने होते हैं मीरा। ”

“ज्यादा नहीं हैं, और हो सकता है पिछले साल की तरह तुम्हारी ‘मार्केटिंग ट्रिप’ हो यू.एस. में। हम छुट्टी ले सकते हैं। प्रोजेक्ट के बाद...”

“अंहs..” मनु की उँगलियाँ मीरा की नाइटी के बटनों से उलझने लगीं थीं।

“मैं कल हाँ कह दूँ? सचमुच समय का पता नहीं चलेगा...”

“ठीक है। मूड मत बिगाड़ो, मीरा। ‘कम हियर’। ” मनु ने भारी गले से कहा था। उसके हाथ मीरा की देह को मसलने लगे और उसका शरीर एक परिचित लय में डोलने लगा था। मीरा मन-ही-मन स्वीकार की ‘ईमेल’ का प्रारूप बनाने लगी। एक बार प्रोजेक्ट पर काम करने लगे, तीन महीने के बाद का तब देखा जाएगा। क्या पता जावेद वाक़ई उसे दिल्ली से काम करने देने के लिए राज़ी हो जाएँ या मनु ही एतराज़ ना करे...

मैनहैटन में एक पुराने ‘ब्राउनस्टोन’ में मीरा और फिलीपीन्स के दफ़्तर से आई नीना के लिए फ़्लैट का प्रबंध किया गया था। नीना, मीरा और टिम वैंग को छोड़ कर प्रोजेक्ट दल के बाक़ी सभी सदस्य जावेद की ‘इनोवेशन टीम’ से थे, लेकिन टिम न्यूयॉर्क का ही बाशिंदा था और नीना के साथ उसका ‘बॉय-फ्रैंड’ आया था टूरिस्ट वीजा पर। मीरा ने ज़रूरत भर का न्यूयॉर्क अकेले ही संधाना । पहले ही दिन उसने घर से दफ़्तर और सुपर मार्केट का रास्ता फ़ोन के जी। पी। एस। में दर्ज़ कर दिया। एवन्यू और स्ट्रीट के ज्यामीतीय सुनियोजन से वह प्रभावित हुई और हडसन के चौड़े, नील प्रवाह और सैंट्रल पार्क के हरे विस्तारों से भी। जुलाई के धूप-करारे नीले दिनों में, असंख्य काँच-खिडकियों में चिलकता और नियोन बत्तियों में रात जगाता न्यूयॉर्क उसे भाया, शोर, गुंजार और चमत्कृत करने वाली रंग-बिरंगी भीड़ समेत। वह अक्सर दफ़्तर पैदल आती-जाती। नीना और उसका मँगेतर दफ़्तर के बाद इकट्ठे बाहर जाते, कभी बार तो कभी कोई रेस्तरां या सिनेमा। एकाध बार उन्होंने और दफ़्तर के दूसरे सहकर्मियों ने साथ बाहर जाने का प्रस्ताव रखा किंतु मीरा को अकेले घर में लौटना, टी। वी। पर कोई हिंदी या अंग्रेज़ी पिक्चर देखते या किताब पढ़ते हुए दूध-कार्नफ्लेक्स या सैंडविच खाना ज़्यादा आरामदेह लगता। उसे अच्छा लगता कि देर तक ऑफ़िस में काम करने के बाद जब लौटती तब से लेकर सुबह तक के सारे घंटे उसके अपने होते। मनु दिल्ली में दफ़्तर जाते समय गाड़ी में से फोन करता, बीते दिन के ब्यौरे, परिवार, दोस्तों के हालचाल, नौकरानियों के निकम्मेपन के बारे में बताता। टी। वी। पार आँखें गड़ाए मीरा सुनती रहती और बीच-बीच में हुंकारा भर देती। “चलो, दफ़्तर पहुँच गया। कल फ़ोन करूँगा। ‘मिस यू’। ” मनु कहता। मीरा दुहरा देती। फिर फ़ोन रख, झटपट दाँत साफ़ कर बिस्तर में घुस जाती। सोने से पहले वह अपने सहज, एकल जीवन पर एक आश्चर्य भरी दृष्टि डालती। अक्सर नीना और उसके मँगेतर के प्यार करने की आवाजें उसकी नींद में छेद करती मगर वह करवट बदल, कान पर तकिया रख सो रहती। कमरे की खिड़कियों पर लगे ‘ब्लैक आउट’ परदों के पहरे में अँधेरा गहरा होता और उसी अनुपात में उसकी नींद भी।

जब तीन हफ़्ते पहले आधी रात फ़ोन की घंटी बजी तो मीरा कुँए-सी नींद से यत्न से उबरी। “मीरा... मम्मी बीमार हैं... बहुत ज़्यादा बीमार, समझ नहीं आ रहा क्या करूँ...” मनु के शब्द अंत में एक लम्बी साँस में बदल गए। मीरा पलँग के सिरहाने की टेक लगा कर बैठ गई। लैंप की रोशनी से निंदासी आँखों को बचाते हुए घड़ी देखी। रात का एक बज रहा था। “तुम सुन रही हो, मीरा?”

“हाँ मनु। क्या हुआ अचानक? मम्मी से कुछ दिन पहले ही तो बात हुई थी। ” मम्मी ने हाजमे के पुराने मर्ज़ का ज़िक्र किया था, उसके लौटने की तारीख़ के बारे में पूछा था, पापा के डॉक्टर का कहा न मानने की शिकायत की थी। फिर गैस पर पकते आँवले नरम पड़ गए थे और उन्होंने मीरा को सदा सुहागिन रहने का निर्देश दे कर फ़ोन रख दिया था। “मम्मी अभी कहाँ हैं?”

“यहीं गवर्नमेंट हॉस्पिटल में। मैं दो घंटे पहले पहुँचा हूँ। सुबह पापा ने फ़ोन करके बताया था कि मम्मी को साँस लेने में तकलीफ़ है”

“हॉस्पिटल में? डॉक्टर से बात हुई? क्या बताया?”

“मीरा... डॉक्टर कह रहे हैं कैंसर है...”

“कैंसर? बायोप्सी के बिना कैसे कह सकते हैं?”

“ओफ्फ़ोह, मीरा दो दिन से ‘एडमिट’ हैं, मुझे आज ही बताया। बायोप्सी हुई है शायद, मुझे पूरा पता नहीं, यहाँ उथल-पुथल मची हुई है। डॉक्टर्स कह रहे हैं उम्मीद कम है...” मनु का गला भर आया। बगल के कमरे में पलँग जोर से हिला और नीना ने एक ऊँची सिसकी ली जो अंत को दबी हँसी में बदल गई... “तुम वापस आ जाओ। वैसे भी तीन महीने करीब-करीब पूरे हो गए हैं। कैसी आवाज़ है ये?”

“कहाँ?” मीरा ने आँखें हाथ से ढांप लीं। “यहाँ कुछ नहीं शायद ‘कनेक्शन’ गड़बड़ है। ”

“तुम टिकट बुक कराओ जल्दी। बड़ी जीजी तो दो दिनों से अपने घर एक बार भी नहीं गई हैं। ” मनु की बड़ी बहन आगरा में ही रहती थीं, मनु से पंद्रह साल बड़ी थीं। “कल कावेरी जीजी आ रही हैं कानपुर से और ताई जी वगैरह भी एकाध दिन में आ जाएंगे फ़रीदाबाद से। तुम भी कल परसों में आ जाओ। ”

“सोलह घंटो की तो फ्लाइट ही है, मनु, फिर काम भी एकदम ‘पीक’ पर है। ”

“काम? काम ‘इंपोर्टेंट’ नहीं है इस समय। सब तुम्हारे बारे में पूछ रहे हैं। तुम ऑफ़िस में बोल दो, और अमित भाई को कहो टिकट ढूँढ दें। ”

“मैं कल बात करती हूँ बॉस से। तुम डॉक्टर से बात करो, अगर दिल्ली या बॉम्बे में दिखाने से कुछ हो सके। ”

“उन्हें बहुत तकलीफ़ है मीरा... मुझसे देखा नहीं जाता... तुम आ जाओ बस। ”

“ठीक है। इतना घबराओ मत मनु। अपना ध्यान रखो। ” फ़ोन रख कर मीरा ने अपना लैंप बुझा दिया और करवट बदल ली।

प्रोजेक्ट का काम तेज़ी से चल रहा था, मीरा तो शनिवार, रविवार भी दफ़्तर जा रही थी। अगले हफ़्ते बोर्ड की एक कमिटी के सामने महत्वपूर्ण प्रस्तुति थी और प्रस्तुति के बाद पूरी टीम फिलाडेल्फिया जा रही थी दो दिनों के लिए। जावेद की योजना थी। “तुम लोग इस क़दर मेहनत कर रहे हो, देखें पार्टी करना भूल तो नहीं गए। ‘लेट्स ऑल गो टू फ़िली आफ़्टर द प्रेजेंटेशन’। ”

“बहुत मँहगा है फ़िली। आपके लिए ही ठीक है, बॉस, हमारी औक़ात नहीं है। ” दल के सदस्य ने पेंच कसा था।

“ ‘गाइज़, इट्स ऑन मी’, तुम कंजूसों से मुझे कोई उम्मीद ही नहीं है !” मीरा ने।

अगले दिन दफ़्तर में मीरा की आँखें भारी थीं। कॉफ़ी का तीसरा कप लेने ऑफ़िस के दूसरे छोर पर धरी कॉफ़ी-मशीन तक गई थी। न्यूयॉर्क की चित्र-विचित्र इमारतों के नज़ारे वाला, चालीसवीं मंज़िल पर का यह दफ़्तर इतने दिनों बाद भी उसे चमत्कृत करता। जहाँ तहाँ, गुच्छों में या एकाकी रखीं मेंज़-कुर्सियाँ, काम करते वक्त बैठने के लिए ‘पॉस्चार बॉल्स’, पारदर्शी प्लास्टिक के ज्यामितिक आकारों के ‘मीटिंग पॉड्स’, ‘लेज़र’ और ‘होलोग्राफ़’ के ज़रिए प्रस्तुति करने के लिए बड़े-बड़े पटल, मनोरंजन-कक्ष में मनुष्य जैसे रोबोट के साथ ‘पूल’ या शतरंज के खेल। कॉफ़ी मशीन भी किसी भविष्य-विज्ञान वाले सिनेमा से निकली हुई लगती, ‘रॉबोटिक’ हाथ कॉफ़ी का कप पेश करते और एक मधुर स्वर समय और तापमान बता कर हाल-चाल पूछता। “साढ़े नौ भी नहीं बजे और तीसरी कॉफ़ी?” कॉफ़ी मशीन के पास खड़े जावेद ने टिप्पणी की।

“अच्छा? इतनी कॉफ़ी आपकी सेहत के लिए अच्छी नहीं। ” मीरा ने ईषत मुस्कान के साथ कहा।

“मैं अपनी नहीं तुम्हारी कह रहा हूँ , ‘मिस स्मार्ट –एलैक’ ! ‘बाइ द वे’ ‘कोड’ तुम्हारा लाजवाब निकला। ‘वर्क्ड लाइक ए ड्रीम इन येसटरडे'ज़ ट्रायल । ” मीरा सारी थकान भूल गई। दो हफ़्तों की दिन-रात की मेहनत सफल हुई। “और तुमने इतनी आसानी से लिख डाला सो अगला ‘रिगर असाइनमेंट’ भी तुम्हारा !”

“ठीक है। फिर कॉफ़ी की संख्या पर ‘कमेंट’ मत कीजिएगा !”

जावेद हँस पड़े। “न्यूयॉर्क का हवा-पानी अच्छा है तुम्हारे लिए। ‘परमानेंटली’ रहना चाहिए तुम्हें यहाँ। ”

मीरा के कानों में मनु का स्वर तैर गया “तुम आ जाओ...जल्दी...”

दफ़्तर से निकलते-निकलते दस बज गए। लिफ्ट में नीना, मीरा और टीम के दूसरे सदस्यों के साथ जावेद भी घुसे। “क्या बात है? ‘इन टीम’ जल्दी जा रही है आज? ‘टाइम-लाइन्स’ कसनी पड़ेगी!” जावेद ने फुलझड़ी छोड़ी। लिफ्ट में नकली कराहों का कोरस गूँजा। “बॉस स्लीपिंग-बैग्स मँगवा दीजिए। घर तो बस कुछ घंटे सोने ही जाते हैं !” “अच्छा? मुझे ‘एच। आर। से कोई ‘मेमो’ नहीं आया इस बारे में। ” जावेद नकली गंभीरता से बोले। लिफ्ट भूमितल पर आ रुकी। “बॉस, ऐसी बात कहने के बाद ड्रिंक्स बनती है !” “ओ। के। , ओ। के। ” जावेद ने हाथ खड़े किए, “तुम लोग मुझे बहुत ‘बुली’ करते हो! परसों ‘फ्राइडे’ को चलेंगे!” हँसते हुए और विदा पुकारते हुए सब तितर-बितर हो गए। मीरा ट्रैफ़िक-जंक्शन की ओर चल पड़ी।

“तुम अकेली जा रही हो?” जावेद ने उसके साथ कदम मिलाए। “नीना और तुम साथ रहते हो ना?”

“ हाँ, लेकिन उसका मँगेतर आया है। दोनों दफ़्तर के बाद बाहर जाते हैं, न्यूयॉर्क की नाइट-लाइफ ‘एंजॉय’ कर रहे हैं। ” मीरा मुस्कुराई।

“अच्छा। मुझे ये मालूम नहीं था। ” जावेद कुछ विचार करने लगे। क्रासिंग पर पद-यात्रियों वाली बत्ती लाल थी। गाड़ियाँ रवानी से निकल रही थीं। “मुझे बिल्कुल पता नहीं था...” बत्ती का रंग बदला और वे सड़क पार करने लगे। “तुम्हारे लिए न्यूयॉर्क नया है, हमने तुम्हारे रहने का इंतज़ाम यही सोच कर किया था कि नीना और तुम्हें कंपनी रहेगी एक-दूसरे की। ”

मीरा ने जावेद की ओर आश्चर्य से देखा। वे सामने देख रहे थे।

“मुझे कोई परेशानी नहीं है, जावेद। बहुत समय यों भी होता नहीं। आठ से पहले ऑफ़िस पहुँच जाती हूँ और लौटने में देर हो जाती है। ”

“ये तुम मुझसे ‘शेयर’ कर रही हो या बॉस के नाते ताना दे रही हो?”

“दोनों। ”

जावेद मुस्कुराए। “ठीक है। चलो तुम्हें खाना खिलाता हूँ। साथ में जी भर कर तुम मुझे ताने खिला देना। ” मीरा हिचकिचाई। शायद मनु फ़ोन करे। उसे बाल भी धोने हैं, सुबह धोने-सुखाने का समय नहीं मिलता। जावेद तब तक एक छोटे से रेस्तराँ के सामने रुक गए। “ ‘साइज’ पर मत जाओ, ग्यूसिप्पी’ का रेस्त्रां है, ऐसा लज़ीज़ खाना बनाते हैं मियाँ-बीवी। ‘रोमानो’ टमाटर और ‘इटालियन बेज़िल’ इटली के अपने गाँव से मँगवाते हैं। ” उन्होंने द्वार पर आए कैप्टेन को दो अँगुलियाँ दिखाईं। छोटे, नीची छत वाले कमरे के एक कोने में उन्हें बिठाकर कैप्टेन ‘मैन्यू’ ले आया। “तुम तो शायद शाकाहारी हो?” मीरा ने सर हिलाया। “ ‘पास्ता’ ? यहाँ का ‘एरेबियाटा बहुत स्वाद होता है। या तुम ‘पेस्तो’ पसंद करोगी? और ‘एंटीपास्तो’?’

“जो भी आपको ठीक लगे... आप यहाँ से परिचित हैं...”

“लेकिन तुम अपनी पसंद से तो परिचित हो ! बताओ, क्या अच्छा लगता है?” उन्होंने ‘मैन्यू कार्ड’ मीरा के सामने सरका दिया।

“मुझे वाकई पता नहीं क्या पसंद है...”

जावेद ने उसके चहरे पर एक निगाह डाली। “अच्छा, तो आज मेरी पसंद का ही सही। ” वेटर के जाने के बाद जावेद कुर्सी की पीठ से लग आराम से बैठ गए। “तो बताओ। यहाँ ठीक लग रहा है? थोड़ा ‘ओवर वैहल्मिंग’ है ये शहर लेकिन है ख़ूब। ”

“अच्छा शहर है, जितना देख पाई हूँ। ”

“माने? ‘मैनहैटन’ में रह कर न्यूयॉर्क न देख पाने के लिए कोई बहाना नहीं हो सकता। ”

“घर और ऑफ़िस के अलावा कहीं गई नहीं हूँ, मुझे अकेले जाने-आने की बहुत आदत नहीं है, लेकिन देखूँगी, धीरे-धीरे। ”

“बड़ी भारी गलती हुई मुझसे, मैं इसी गफ़लत में रहा कि नीना और तुम साथ में हो। तुम मुझे कोसती होंगी इस ‘प्रोजेक्ट’ पर काम के लिए राज़ी करने पर। ”

“कैसी बात करते हैं …मैं तो बहुत ‘ग्रेटफुल’ हूँ, इतना ‘कटिंग एज’ काम करने का मौक़ा मिल रहा है। ” खाना आ गया। जावेद ने ‘ब्रुशैटा’ और ताज़ा हरा सलाद मीरा की प्लेट में परोसा। "भई खाकर देखो। अच्छा न लगे तो कुछ और मँगाए...”

“बिना खाए ही कह सकती हूँ कि अच्छा है। रोज़-रोज़ दूध-सीरियल खा कर मन उकता गया है”

“दूध-सीरियल? या अल्लाह। ” जावेद ने काँटा फिरकी की तरह घुमाकर ‘स्पग्हैटी’ उस पर लपेटी। “ये अकेला रहने के कारण है। ”

“अकेला रहना बुरा नहीं लग रहा। मेरे लिए नया अनुभव है। हमेशा कोई न कोई साथ रहा है। काम के बाद जो मन आए करना अच्छा लग रहा है। ”

जावेद ने भवें उठाईं और उसकी ओर गौर से देखा... “बाहर कहीं जाती नहीं, डिनर में सीरियल खाती हो, जाने क्या मन का करती हो ऐसा?”

“ये भी तो मन का हो सकता है। ” मीरा मुस्कुराई।

रेस्तराँ के बाहर मीरा ने जावेद को धन्यवाद दिया। “खाना वाक़ई अच्छा था। थैंक्स!” “

‘थैंक्स’ कैसा? मैं घर जा कर अकेला खाता। यहाँ साथ में बढ़िया ‘पास्ता’ खाया। ”

“आपका परिवार यहाँ नहीं रहता?” वे सड़क के किनारे आ पहुँचे थे।

“तुम कैसे जाओगी? मैं ‘सब वे’ से ट्रेन लूँगा। ”

“पैदल। नज़दीक ही है। ”

जावेद ने इशारे से एक ख़ाली टैक्सी रोकी। “चलो, तुम्हें छोड़ देता हूँ। देर हो गई है पैदल जाने के लिए। ”

“मैं कई बार जा चुकी हूँ, जावेद आप ‘प्लीज़’ परेशानी न लें...”

“बैठो बैठो कोई परेशानी नहीं। इसी टैक्सी से स्टेशन चला जाऊँगा। ”

मीरा ने ड्राइवर को पता बताया। “आपको मेरी वज़ह से बहुत देर हो गई है...”

“कोई बात नहीं” जावेद ने रेडियो पर बजते गीत पर पैर से ताल दी। “मेरा परिवार लंदन में रहता है। दो साल पहले डाइवोर्स के बाद मेरी ‘एक्स’ बच्चों को लेकर लंदन चली गई, वहां उसके माता-पिता रहते हैं और बाकी परिवार। ”

“ओह...सॉरी...”

“नहीं, सॉरी की कोई बात नहीं, रिश्ता टूटा नहीं है, बदल गया है। अपने बच्चों के माता-पिता हम हमेशा रहेंगे। ” टैक्सी मीरा के घर के सामने रुकी। “ ‘बाय’। कल मुलाक़ात होती है। ”


दरवाज़े के ताले में चाभी लगाते हुए मीरा के फ़ोन की घंटी बजी।

“मीरा? सो गई थीं क्या?”

मीरा ने घडी पर निगाह डाली। पौने बारह। उसे याद आया कि उसने टिकट के लिए एजेंट को फ़ोन नहीं किया, जावेद से छुट्टी की बात भी नहीं की। “अंह...नहीं... मम्मी कैसी हैं?”

“वैसी ही। बल्कि पहले से कुछ ख़राब ही। शरीर में पानी भर गया है, बहुत कमज़ोर हो गई हैं। चम्मच भी नहीं उठा पातीं। तुम्हारे टिकट का क्या हुआ?”

मीरा ने हाथ का ‘बैग’ कुर्सी पर रखा और पलँग पर बैठ गई। “अमित भाई देखेंगे। मम्मी की ‘बायोप्सी’ की रिपोर्ट का क्या हुआ?”

“मृदुल जीजा जी ने डॉक्टर से बात की है। कैंसर है, जीजा जी कह रहे थे बहुत ‘अग्रेसिव’ है ‘ट्यूमर...”

“जीजा जी आगरा में हैं?”

“नहीं कानपुर में। वो कैसे आएँगे? सारे ‘हॉस्पिटल’ की जिमेदारी है उन पर। अपने ‘फ़ादर’ की ‘डैथ’ के बाद अकेले डॉक्टर रह गए हैं परिवार में। अभी नई सी। टी। स्कैन की मशीन खरीदी है, कावेरी जीजी कह रही थीं। फ़ोन पर बात की उन्होंने। कह रहे थे हर बात के लिए तैयार रहना चाहिए... तुम्हारा टिकट किस तारीख़ का है?”

“कल बताती हूँ। जल्दबाज़ी में महँगा मिलेगा। ‘सीज़न’ भी है अभी। ”

“अमित भाई को कहो ठीक प्राइज़ में देख दें, जल्दी से जल्दी का। ”

“ठीक है। वापसी का कब कहूँ? मेरा प्रोजेक्ट पूरा नहीं हुआ है, मनु। ”

“अभी कह नहीं सकते। तुम आओ, फिर सोचते हैं। शायद लम्बी छुट्टी लेनी पड़े तुम्हें। डॉक्टर्स कह रहे हैं महीनों भी खिंच सकते है। तुम ‘सबैटिकल’ के बारे में पूछ लो। ”

“ ‘सबैटिकल’? बीच प्रोजेक्ट में? ये ‘रियलिस्टिक’ नहीं है, नौकरी है...”

“तो नौकरी छोड़ देना। ” मनु ने गला भींच कर कहा। “मम्मी से ज़रूरी नहीं है तुम्हारी नौकरी। ” फ़ोन कट गया। मीरा ने गुसलखाने में जाकर मुँह धोया, क्रीम लगाई, पलँग पर आ लेटी।

“ ‘यू लुक टायर्ड’ ” सुबह किचन में दूध गर्म करती हुई मीरा को नीना ने कहा। “ ‘वी वर क्वायट लास्ट नाइट’। ” वह शरारत से मुस्कुराई। मीरा ने हल्के से हँस दिया। दिन भर काम के दौरान उसका सिर भारी रहा। जावेद उसकी मेज़ के पास से गुज़रे तो वह उठ खड़ी हुई। “जावेद आपसे बात कर सकती हूँ पांच मिनट? थोड़ा पर्सनल है। ”

“ ‘ऑफ़ कोर्स’। सब ठीक-ठाक तो है?”

“जी... दरअसल... नहीं, ठीक नहीं है”

“चलो कोने के बरिस्ता पर इंसानों की बनाई कॉफ़ी पीते हैं। बात भी हो जाएगी और मशीन की बदमजा कॉफ़ी से भी बच जाएँगे। ” बाहर बेहद रंगारंग सूर्यास्त हो रहा था। हवा में शिशिर की ठंडक थी। मीरा ने अपनी ‘जैकेट’ के बटन लगाए।

“ ‘फ़ाल’ जल्दी आएगा अब की बार। अगली टीम-ट्रिप ‘पेंसिलवेनिया’ की रखेंगे, ‘नेक्स्ट माइलस्टोन प्रेजेंटेशन’ के बाद। ‘ऑटम’ के रंग इस कदर ख़ूबसूरत होते हैं वहाँ। ”

“फ़ाल तो दूर है अभी...”

“इतनी दूर नहीं। ‘मिड’ या ‘एंड सेप्टेंबर’ में रखेंगे, बहुत ‘इंटेंस’ है ये ‘प्रोजेक्ट’ बीच में ‘ब्रेक’ नहीं लिया तो सब पागल हो जाएँगे। ‘टू कैपूचिनोज़ प्लीज़’। ” ऊँची स्कर्ट में लंबी चौड़ी, मैक्सिकन लड़की मेज़ पर लकड़ी के दो टोकन रख कर चली गई।

“मेरी ‘मदर-इन-लॉ’ की तबीयत बहुत ख़राब है, जावेद। मुझे वापस आने को कह रहे हैं...” मीरा ने बिना भूमिका के कहा।

“ओह... मुझे दुःख हुआ सुनकर। ज़रूर जाओ। मुझे आशा है जल्दी ही अच्छी हो जाएँगी। ”

“कैंसर ‘डाइगनोस’ हुआ है... हॉस्पिटल में हैं...” मीरा की आँखों में जैसे कुछ करकने लगा, “कुछ कह नहीं सकते कि क्या होगा...”

जावेद ने मीरा की बाँह थपथपाई। “ज़िंदगी और मौत खुदा के हाथ है। न अफ़सोस करना चाहिए, न शिक़ायत। कैंसर डरावना शब्द है लेकिन सभी कैंसर ‘फ़ेटल’ नहीं होते। जैसा होना चाहिए, वैसा ही होगा। कब जाना चाहोगी?”

“जल्दी आने को कहा है...”

“अगले हफ्ते पहला ‘माइलस्टोन प्रेज़ेन्टेशन’ है। मैनेजमेंट और बोर्ड के सामने आने का मौक़ा है। तब तक रुक सको तो अच्छा है। ”

अनचाहे ही मीरा की आँखें भर आईं, आँसू तिरमिराने लगे। उसने पलकें झपकाईं और सर दूसरी ओर घुमा लिया। वही मैक्सिकन युवती उनकी कॉफ़ी ले आई। चीनी-मिट्टी के गोलाकार प्यालों-से कप उनके सामने रख कर वह मीरा की ओर झुकी, “हनी, तुम्हारा काजल फ़ैल गया है। ” उसने तर्जनी आँख की कोर पर रख कर कहा। “धन्यवाद” मीरा ने नैपकिन से आँखें पोंछ ली और कॉफ़ी का एक लंबा गमकता घूँट भरा। “ठीक है। ‘प्रेज़ेन्टेशन’ के बाद जाऊँगी। ”

“ ‘गुड गर्ल’! और परेशान मत होओ। जब जहाँ हो, वहीं मन रखो, वरना सेहत और काम दोनों पर असर पड़ेगा। ”

मीरा ने प्याले को दोनों हथेलियों में भर लिया। “मैं अकेली बहू हूँ, बहुत ‘प्रेशर’ है...”

“समझ सकता हूँ, मीरा। लेकिन तुम बहू के अलावा भी हो, ये भूलना तुम्हारे खुद के लिए अच्छा नहीं होगा। मेरी टीम में एक ‘ओपन हैडकाउंट’ है। मैंने पिछले हफ़्ते ही तुम्हें ‘ऑफर’ करने का तय कर लिया था। आसान नहीं होगा, न निर्णय और न ही काम। एकदम चुनौती भरा और इसीलिए सबसे ‘सैटिस्फैक्ट्री’। ”

मीरा का जैसे मन मसोस गया। ‘इन टीम’ में शामिल होने का मौक़ा, जिसके लिए कंपनी का हर इंजीनियर ललचाता है। “मेरे बारे में सोचने के लिए धन्यवाद, जावेद, मगर मुश्किल होगा मेरे लिए। मनु यहाँ आना नहीं चाहेंगे। मैंने आपको कहा नहीं लेकिन प्रोजेक्ट पर काम के लिए आने का ही काफ़ी विरोध हुआ घर पर...”

“देखो मीरा, मैं दबाव नहीं डाल रहा, प्रस्ताव है। अभी जवाब देने की ज़रूरत नहीं। सोच कर कहो। ‘लोकेशन’ के बारे में हल ढूँढा जा सकता है, कुछ‘अरेंजमेंट’ कर सकते हैं, जैसे छः महीने न्यूयॉर्क और छः महीने दिल्ली। मैं सिर्फ़ ये कहूँगा कि निर्णय लेने से पहले तुम अपने बारे में भी सोचो। पछतावे बेहद बुरे होते हैं। ‘रिज़ेन्टमेंट’ पैदा करते हैं। ” उन्होंने कॉफ़ी का आख़िरी घूँट लिया और दस डॉलर का नोट हवा में लहराया। वही मैक्सिकन लड़की आई। “बाक़ी तुम्हारा। ”

दफ़्तर की बिल्डिंग में घुसते हुए जावेद ने कहा। “रिश्ते अपनी जगह होते हैं, मीरा, व्यक्ति अपने जगह, अनुमान से नहीं, अनुभव से कह रहा हूँ। अपने आप से वफ़ादार रहना ज़रूरी है। अपनी मेहनत और क़ाबिलियत को ‘बिट्रे’ करने से और चाहे जो मिले, तसल्ली नहीं मिलती। घर जाओ, आराम करो आज। ‘पेल’ लग रही हो। ”

“नहीं, कोड आगे बढ़ाऊँगी। अच्छा ‘फ्लो’ है आज। खूब ‘प्रोग्रेस’ हुई है। ”

जावेद मुस्कुराए, “जो सैटिस्फैक्शन’ सफल कोड लिखने में है, बहुत ही कम चीज़ों में है। " लिफ्ट उनके फ़्लोर पर रुकी। "‘फ़िली’ का ट्रिप दिलचस्प रहेगी। ‘रियली लुकिंग फ़ारवर्ड’। ”

मीरा का फ़ोन बजा, सघन नींद की दीवार में सेंध लगाता। मनु था। “मीरा...तुरंत आओ, मम्मी जा रही हैं...”

उसके स्वर का आतंक महाद्वीपों और सागरों को पार कर मीरा के कान में अटक गया। “क्या... क्या मतलब?”

“क्या का क्या मतलब? ‘डोंट बी स्टुपिड’ मीरा। डॉक्टर्स कह रहे हैं बहुत समय नहीं है...एक-एक साँस के लिए तड़प रही हैं...”

“लेकिन...कैसे... जीजा जी ने कहा था समय है...”

“ ‘गॉड’... पहले क्या कहा, अब क्या कहा... ये बहस नहीं है, मीरा... ट्यूमर बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है, सारे ‘ऑर्गन्स’ पर दबाव डाल रहा है। मैंने अमित भाई को फ़ोन कर दिया है। तुम तुरंत ‘एअरपोर्ट’ पहुँचो। ” मनु ने फ़ोन काट दिया।

बाथरूम की तेज़ रोशनी में चौंधियाई आँखें अपने रंगहीन चेहरे पर गड़ाए मीरा ने दाँत माँजे। बुधवार को बोर्ड वाली प्रस्तुति थी। एक ‘ट्रेनिंग’ के लिए उसका नाम दिया था जावेद ने। “प्रोमोशन की तैयारी है ये ‘ट्रेनिंग’। ‘यू`व डन वेरी वैल’। ” ‘ह्यूमन रिसोर्स’ वाली लड़की ने कहा था। ज्यों-त्यों नहा कर उसने सूटकेस से ‘फिलाडेल्फिया’ के लिए रखे जींस, जैकेट्स आदि निकाले और उनकी जगह जो इने-गिने भारतीय कपड़े साथ लाई थी, रखे। फोन पर टैक्सी ‘एप’ से गाड़ी मँगाने के बाद उसने नीना के लिए एक नोट लिखा और 'रेफ्रिजिरेटर' पर चुंबक से चिपका दिया। लॉबी में टैक्सी का इंतज़ार करते हुए उसने अमित भाई को फ़ोन किया। “मीरा बेन, कोई फिकर ना करो। मैंने मनु भाई को जबान दी है। तमे कल रात तक आगरा पहुँचाने नू जिम्मा हमारा। ”

“जी। मैं ‘एयरपोर्ट’ ही जा रही हूँ। ”

“तम पहुँचो, टिकट ‘ईमेल’ कर दूँगा, रूटिंग कन्फर्म होते ही। बहुत दुःख है तमारे अने मनु भाई के लिए। "

टैक्सी में बैठ कर मीरा ने जावेद को ईमेल लिखा, अपने काम का ब्यौरा दिया, बचे कार्यों की फ़ेहरिस्त और उन्हें पूरा करने में सहायक जानकारी। अंत में अचानक जाने से होने वाली असुविधा के लिए क्षमा माँगी। घर की ज़िम्मेदारियाँ हैं, अभी कह नहीं सकती कितने दिनों की छुट्टी चाहिए, यदि प्रोजेक्ट की तिथियों के चलते मेरा काम किसी और को देना चाहें, तो मैं पूरे तौर पर समझ पाऊँगी।

एयरपोर्ट पहुँचने तक अमित भाई का ‘ईमेल’ आ गया। चार घंटे बाद की फ्लाइट थी। ‘चैक-इन’ करके मीरा ने ‘वेंडिंग मशीन’ से कॉफ़ी ली और प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठ गई। कॉफ़ी के बावजूद सर झनझना रहा था और आँखों में जलन लग रही थी। उसने फिलाडेल्फिया की यात्रा वाले ‘व्हाट्सऐप ग्रुप’ पर संदेश लिखा - पारिवारिक कारणों से अचानक भारत लौटना पड़ रहा है, सप्ताहांत की तस्वीरों की प्रतीक्षा रहेगी। कॉफ़ी का आखिरी घूँट लेकर, वह कप को कचरा-पात्र में डालने उठी। पौ फट रही थी। लोग जहाँ-तहाँ कुर्सियों पर आड़े-तिरछे सो रहे थे। सलेटी उजाले में सब कुछ बुझा-बुझा सा था। मीरा का फ़ोन बजा।

“जॉगिंग के लिए जा रहा था कि तुम्हारा ‘व्हाट्सऐप’ मैसेज देखा। तुम ठीक हो? किसी भी तरह की मदद चाहिए? फ्लाइट बुक हो गई?”

“जी। फ्लाइट तीन घंटे में है। अचानक हालत बिगड़ गई वहाँ, रात को एक बजे फ़ोन आया, छुट्टी के लिए ‘फॉर्मली’ लिखने का वक्त ही नहीं मिला...”

“उसकी कोई बात नहीं, मीरा। एयरपोर्ट कैसे जाओगी?”

“एयरपोर्ट पर ही हूँ, ढाई-तीन बजे से। ”

“इतनी जल्दी पहुँचने की क्या ज़रूरत थी? कुछ देर और आराम करना चाहिए था। दुआ करूँगा कि वहाँ हालत उतनी बुरी न हो लेकिन तुम्हें ताक़त की ज़रुरत होगी, बिना खाए और सोए सेनाएँ भी लड़ नहीं सकतीं। कुछ खाओ और उन सख्त बेआराम कुर्सियों पर ऊँघने की कोशिश करो। ”

मीरा के आँसू बहने लगे। धीरे से गला साफ़ किया। “काम आधा छोड़ कर जा रही हूँ...’वेरी सॉरी’...”

“तुम्हें ही आकर पूरा करना होगा। तुम्हारे ‘डेलिवरेब्ल्स’ अगले ‘फेज़’ के लिए मुल्तवी कर रहा हूँ। घर की जिम्मेदारियाँ पूरी करके आओ। ”

“थैंक्स...”

“फ़ोन करना चाहूँगा तुम्हारा हाल जानने के लिए। कोई परेशानी तो नहीं होगी?”

“नहीं, कोई परेशानी नहीं...”

“ठीक है। अपना ध्यान रखो। ‘गो सेफ़ली’। ”

प्लेन में बैठ कर मीरा ने मनु को संदेश भेजा – फ्लाइट 3 बजे रात उतरेगी दिल्ली। आशा है मम्मी आराम में हैं।

बीस घंटों की लंबी उड़ान में ‘इकॉनामी क्लास’ की सिकुड़ी सीट से अकड़ी देह को साधती मीरा ने दिल्ली हवाई अड्डे पर चारों ओर घूम कर परिचित चेहरा तलाशा। मनु का कोई संदेश नहीं आया था। इतनी रात गए फ़ोन करे या नहीं, इस पशोपेश में कुछ मिनट अनिश्चित खड़े रहने के बाद वह ‘प्री-पेड टैक्सी’ के काउंटर पर पहुँची। जब वह टैक्सी की पुश्त से सिर टिका कर बैठी तो आकाश के कोने मैले होने लगे थे। शुरू सितंबर की उमस से हवा बोझिल थी। पिछले चौबीस घंटों में बमुश्किल तीन-चार घंटे की नींद, प्लेन की बासी हवा की घुटन और जाने कब की थकान का बोझ उसकी पलकों, गर्दन, कंधों और कमर पर था।

आगरा पहुँचते-पहुँचते दिन उग आया। घर का बाहरी दरवाज़ा बंद था। लोहे के जँगले से सामने के छोटे से लॉन में बेतरतीबी से रखी प्लास्टिक की कुर्सियाँ और भीतरी द्वार के बाहर जूते-चप्पलों का अंबार दिखाई पड़ रहा था। साँकल खोल कर मीरा अपना सूटकेस घसीटती हुई भीतर दाख़िल हुई। जाली के दरवाज़े से फ़र्श पर जहाँ-तहाँ सोते लोग दिखे। मीरा ने मनु के ममेरे भाइयों और बड़ी जीजी के बेटे को पहचाना। दीवार से सटी चौकी पर उसकी सास की कुछ धुँधली, मुस्कुराती तस्वीर रखी थी। उस पर गुलाब और गुलदाऊदी का मुरझाता हार लटका था। धरती पर एक दीपक जल रहा था। मीरा घर की सीढ़ी पर बैठ गई। लाल से पीला पड़ता सूरज नीम, अशोक के पेड़ों के ऊपर उठ आया था और अमरुद के वृक्ष में तोते शोर मचा रहे थे।

“हाय राम, बहू तुम कब से यहाँ बैठी हो?” मीरा ने उठ कर मौसी के पैर छुए। “हाय बहू, सब खत्म हो गया। सरोज कल चली गई...” उनके आँसू झरने लगे। “हममें सबसे छोटी सबसे पहले गई, बहू ऊ ऊ ऊ...” उनके रोने की आवाज़ से घर में हलचल हुई। सोते पुरुष करवट बदलने लगे।

“मीरा... तुम अभी पहुँची? कैसे?” मनु भीतर से निकला।

“सुबह तीन बजे दिल्ली ‘लैंड’ किया फिर टैक्सी से...”

“तुम्हारा दिमाग ख़राब है? अकेले चली आई रात में? कोई बात हो जाती इस समय में तो?”

“मैंने ‘मैसेज’ किया था ‘प्लेन बोर्ड’ करते समय। उतर कर भी...”

“ ‘मैसेज’ देखने का वक़्त है ये? तुम फ़ोन नहीं कर सकती थी? वाकई ‘कॉमन सेन्स’ नहीं है तुममें। ”

मौसी जी ने बीच-बचाव किया। “गलती हो जाती है, समय ही ऐसा आया है, सभी की मति औंधा गई है। बेचारी सात समंदर पार से आई है हाल हाल...”

“गई क्यों थी?” देहली पर आईं बड़ी जीजी ने तल्ख़ स्वर में कहा “सब होने के बाद आई है अब। सास की कोई सेवा नहीं की। ” मीरा ने झुक कर उनके पैर छुए। “बाल बाँध लो तुम,” मीरा के खुले रूखे बालों को लक्ष्य कर के बोलीं, “तेल-शैम्पू नहीं करना है, सूतक लगा है तब तक। ”

घर में मेहमानों की रेल-पेल थी। मीरा ने पूजा घर में जाकर पापा के पैर छुए। उन्होंने मम्मी की तस्वीर की तरफ इशारा कर भरी आँखों से मीरा को क्षण-भर देखा और मूक माला जपते रहे। मीरा नहा कर जल्दी से रसोई घर जा पहुँची। ताई जी पीढ़े पर बैठीं दही बिलो रही थीं। “गौ-ग्रास और मनु के लिए खाना पकाना है जल्दी। गैया को खाना नहीं देंगे तब तक घर भर दाना नहीं डाल सकता मुँह में। ” मीरा ने चुपचाप साड़ी का पल्ला कमर में खोंसा और आटा गूँधने लगी। सबको खिलाते-पिलाते, दक्षिणा और रीतियों का सामान जुटाते दोपहर हो गई। गरुड़-पुराण का पाठ होने लगा और परिवार के लोग बैठ कर आत्मा की यंत्रणाओं के बारे में सुनने लगे। मीरा को ध्यान आया कि उसने सुबह से कुछ खाया-पिया नहीं है। ठंडी दाल के साथ एक रोटी जैसे-तैसे खा कर वह बैठक में लौटी तो बड़ी जीजी ने कड़ी आँखों से देखा। “बैठ कर सुनो। आख़िरी समय तक तो आईं नहीं, इतना तो उनकी आत्मा के लिए करो। ” मीरा एक ओर बैठ गई। उसकी कमर और पीठ दर्द से अकड़ रहे थे। जाँघों के बीच जब गर्म तरलता महसूस हुई तो वह समझी कि दर्द सिर्फ़ थकान का ही नहीं था। वह सँभल कर बैठ गई, साड़ी का पल्ला पीछे की ओर फैला लिया। सब आराम करने जाएँ तब ही गुसलखाने में जाकर ‘टैम्पून’ लगा पाएगी।

“अरे बहू कहाँ दौड़ी जा रही हो? देख कर, गिर-गिरा पड़ोगी। ” जल्दबाज़ी में मीरा का पैर कोने में रखी चौकी से टकरा गया था और हल्की नींद सोने वाली ताई जी जाग पड़ी थीं।

“कहीं नहीं, ताई जी, बस ‘बाथरूम’ जा रही हूँ। आप आराम कीजिए। ”

“बाथरूम? इस समय? सब ठीक तो है? जी घबरा रहा है?”

मीरा बिना जवाब दिए बाथरूम में घुस गई। प्लास्टिक ‘रैपर’ की आवाज़ को दबाने के लिए उसने नल चला दिया और साड़ी और पेटी कोट ऊपर उठाया। जल्दी-जल्दी मुँह-हाथ धोकर बाहर निकली तो ताई जी और मौसी जी दोनों को गलियारे में पाया। रसोई घर में जा कर वह चाय की तैयारी करने लगी। मेहमानों का ताँता लगा था। रिश्तेदार, अड़ोसी-पड़ोसी, पापा के पुराने सहकर्मी, मम्मी की किटी की सदस्याएँ, जिसको पता चल रहा था, आ रहे थे। “फिरने आने वाले सूखे मुँह न जाएँ, बहू। ” ताई जी का निर्देश था और मीरा चाय और सूखे नाश्ते की तश्तरियाँ तैयार कर लगातार बाहर भिजवा रही थी। “मम्मी के बनाए लड्डू-मठरी किस काम आ रहे हैं...” मनु क्षण-भर को रसोईं में आया। मुँडे सिर और कई दिनों की दाढ़ी वाला उसका चेहरा मीरा को अनपहचाना लगा । “बुआ जी आई हैं, पैर छू लो आकर उनके। ”

रात को मीरा मम्मी के कमरे में चादर बिछा रही थी। फ़ोन की घंटी बजी। जावेद थे।

“मीरा कैसी हो? आराम से पहुँच गई?”

“मेरी सास का देहांत हो गया जावेद...”

“ओह। बहुत अफ़सोस है। अपने परिवार वालों को मेरी ‘कॉन्डोलेंस’ कहना। ”

“जी, कहूँगी। ”

“किसी तरह की चिंता मत करो काम के बारे में, परिवार के साथ रहो, उन्हें ढांढस दो। ”

“जी। ”

“तुम्हारा ज्यादा वक़्त नहीं लूँगा। अपना ध्यान रखो, थकी सी आवाज़ आ रही है तुम्हारी। सेना वाली बात याद रखो। ”

मीरा ने पलकें झपका कर आँसू रोके। “तकिये और चादरें चाहिए। तुम्हें पता है क्या मम्मी ‘एक्स्ट्रा’ बिस्तर कहाँ रखती थीं?” पूछता हुआ मनु कमरे में घुसा। मीरा ने फोन अपने बैग में रख दिया। “अंदर के कमरे की आलमारी में। लाती हूँ। ”

दसवें के ब्रह्म-भोज की तैयारी हो रही थी। मीरा आँगन के पीछे वाले कमरे में सामान से घिरी, फ़ेहरिस्त पढ़ कर चीज़ें थैलों में सँजो रही थी।

“हो गया क्या मीरा?” बड़ी जीजी कमरे के द्वार पर आईं।

“बस जीजी, तीन और बचे हैं। ”

“क्या-क्या रखा?”

“लिस्ट में जो था, सब। एक साड़ी, एक शॉल, एक जोड़ी चाँदी के बिछिया और पायलें, एक तौलिया, एक साबुन। ”

“चाय और शक्कर नहीं रखे?”

“हाँ, मम्मी का तो दिन नहीं कटता था पाँच-छः कप चाय के बिना...” कावेरी जीजी भी आ गईं।

“वो तो पंडितों के सीधे की लिस्ट में है, सुहागिनों की लिस्ट में तो बस इतना ही था। ”

“इनमें भी रखो, जो इन्हें देंगे, मम्मी को मिलेगा। मैं दीपू को कहती हूँ, बाज़ार से और ले आए। ” वो चली गईं।

दीपू बड़ी जीजी का बेटा है। इसी साल इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला लिया है। मीरा ने लक्ष्य किया कि इस बार वह उसके इर्द-गिर्द अधिक मंडराता रहता। बर्तन उतारने, सामान उठवाने के बहाने उसके निकट होने की कोशिश करता। मीरा को अपनी देह पर उसकी दृष्टि महसूस होती और अपने मन में उसकी सत्रह-साला कामनाओं के लिए कुछ करुणा। यदि दीपू आस-पास होता तो बड़ी जीजी की कड़ी निगाहें भी मीरा पर लगी रहतीं। वह हर क्षण सतर्क रहती और दीपू से दूरी बनाए रखती।

दीपू सामान के थैले ले आया। “मैं मदद कर दूँ मामी? इतने सारे थैले हैं। ”

“नहीं बेटा, बस हो गया है। कावेरी जीजी,” उसने आँगन के पार खड़ी ननद को आवाज़ दी, “ ‘प्लीज़’ देख लेंगी एक बार कोई गलती तो नहीं हुई?”

शाम को पूजा घर में धुले बर्तन रखते कमरे में सहसा पड़ी छाया से मीरा चिहुँक उठी। मनु था। “पापा की जाप वाली माला यहाँ है क्या?” मीरा ने पूजा के सामान की टोकरी में से माला निकाल कर मनु की ओर बढ़ाई। सात-आठ दिनों में पहली बार मनु से अकेले में मिल रही थी। वह घर के भीतर काम में लगी रहती थी और मनु बैठक में लोगों की भीड़ में घिरा सारा दिन पूजा और पंडित के बताए अनुष्ठानों में बिताता। “जल्दी ख़त्म करो यहाँ। खाने का वक़्त हो रहा है पापा के। ” मीरा सीधी खड़ी हो गई। “मेरे लौटने की ‘डेट’ तय करनी है। मैंने छुट्टी पंद्रह दिनों की ली थी...”

“लौटना?” मनु ने अपने सिर के छोटे-छोटे बालों को हथेली से मसला, खसखसाहट हुई। “यानि यू.एस.?”

“हाँ। मैं सब बीच में छोड़ कर आई हूँ...”

“सोचना पड़ेगा। मुझे नहीं लगता तुम्हारा जाना संभव होगा। पापा अकेले पड़ गए हैं। बड़ी जीजी और कावेरी जीजी अपने-अपने परिवारों को देखेंगी। मेरा काम भी ‘री-जॉइन’ करने पर ‘हैक्टिक’ होगा। सोच रहा हूँ पापा को दिल्ली ले चलें। कम-से-कम साल-छः महीने के लिए। तुम भी वापस दिल्ली ‘पोस्टिंग’ ले लो। ‘वर्क फ्रॉम होम’। तुम्हारी ‘टैक’ कंपनियों में तो होता है। मैं कोशिश करूँगा कम ‘ट्रैवेल’ करूँ पर मेरा काम तुम जानती हो। ”

“मनु, जावेद ने मुझे ‘इन टीम’ ‘जॉइन’ करने का ‘ऑफर’ दिया है। प्रमोशन के लिए भी नाम रखा है। बहुत बड़ा कदम है मेरे लिए। मुझे कम-से-कम एक बार जाना होगा। ”

“ओफ्फ़ोह मीरा”, मनु खीज गया, “ये समय है ‘सैलफिश’ होने का? हमारी ‘प्रायोरिटी’ पापा हैं। मम्मी का बारहवां भी नहीं हुआ है और तुम्हे अपने काम की चिंता है। ” वह कमरे से बाहर हो गया।

रात सब काम निबटने पर रोज़ की तरह मीरा मौसी जी और बड़ी जीजी के बगल में गद्दे पर लेटी। फ़ोन पर जावेद का मैसेज़ था – 'गुड न्यूज़ ऑन मैनेजमेंट प्रेज़ेन्टेशन। विल कॉल’। जवाब देने से पहले ही फ़ोन की घंटी बजी।

“मीरा! कैसी हो?”

“जी, ठीक। ”

“मैंने सोचा तुम्हें बोर्ड का ‘रिएक्शन’ बता दूँ। बहुत अच्छा रहा ‘प्रेज़ेन्टेशन’। तुम्हारा काम बहुत सराहा गया। ‘इट स्टुड आउट’। ”

मीरा मुस्कुरा उठी। “थैंक्स। बहुत अच्छा लगा जान कर। ”

“आए एम वेरी प्लीज्ड टू’। ‘इन टीम’ का ‘ऑफ़र’ ‘फार्मली’ ‘मेल’ कर दिया है तुम्हें। ”

“थैंक्स...लेकिन मैं अभी सोच नहीं पा रही हूँ कुछ... यहाँ माहौल ऐसा है...”

“मैं समझ सकता हूँ लेकिन ‘शेयर’ करना चाहता था। तुम्हें सोचने के लिए समय है। ‘ऑफ़र’ हाथ में है तुम्हारे। ” मीरा ने फ़ोन कान के और पास सटा लिया। “टीम में सबने याद किया है और ‘प्रेयर्स’ भेजी हैं। ‘हैंग इन देयर’। अपना ध्यान रखो। ‘बाए’। ”

मीरा ने फ़ोन रख दिया।

"कौन था?" बड़ी जीजी उसे देख रही थीं।

"मेरे बॉस थे। "

“इतनी लंबी बात करता है तुम्हारा बॉस?” बड़ी जीजी बोलीं, “इतनी रात गए? कोई काम नहीं उसको?” मीरा लेट गई।

देर दोपहर बारहवें का भोजन और हवन संपूर्ण हो गया। लोग थक कर जगह-जगह सो गए। बैठक के बीचों-बीच ताँबे का हवन पात्र अब भी धुँआ उगल रहा था। पूजा के लिए निकाले चाँदी के थाल, दरियाँ, आसन जहाँ-तहाँ धरे थे। मीरा ने हवन कुंड को सरका कर दरवाज़े के बाहर किया। कल से मेहमान विदा होने लगेंगे। घर ख़ाली हो जाएगा। मंडी से टोकरियों सब्ज़ी और गोशाला से बाल्टी भर दूध लाने की ज़रूरत नहीं रहेगी। सब रीति-रिवाज़, जो दिनों को बाँट कर सहने योग्य बनाते हैं, निबट जाएँगे। मनु भी तीन-चार दिनों में दिल्ली लौटने को कह रहा था। पापा ने साथ जाने से मना कर दिया था। “हम यहीं रहे हैं हमेशा से, ये घर छोड़ कर नहीं जाएँगे। मिलने आ जाएँगे। तुम दोनों आना-जाना बनाए रखना। ” “आना-जाना क्या? मीरा को यहाँ रहना चाहिए अभी कुछ महीने। मनु शनिवार-रविवार आ जाए। बहू-बेटा किस दिन के लिए होते हैं। ” ताई जी बोलीं। “हाँ बहू, बुआ जी तुम्हारी बूढ़ी हुईं, उनसे ये घर नहीं सँभलेगा। सरोज ने एक-एक तिनका कितने मन से जोड़ा इसका...” मौसी जी रो पड़ीं थीं। मीरा झुक कर आसन वगैरह समेटने लगी। कमर में कौंधती पीड़ा की लहर को उसने होंठ दबा कर साधा।

“मामी, लाइए, मैं उठा देता हूँ। आप सुबह से दौड़ रही हैं। ” दीपू ने उसके हाथ से आसन ले लिए।

"थैंक्स दीपू बेटा। " मीरा ने एक-में-एक रख कर चाँदी के थाल उठाए। “ये आसन वगैरह पीछे के कमरे में रख आओ। ”

“ठीक है, मामी। बता दीजिए, वहीं रख दूँगा। ”

मीरा आँगन पार कर के सामान वाले कमरे में घुसी। उतरती दोपहर की धूप की चौंध के बाद कमरे का धुँधलका उसे अंधा कर गया। वह दीवार पर हाथ से बिजली का स्विच टटोलने लगी। “मामी, स्विच यहाँ है। ” दीपू ने आसन और दरियों का गठ्ठा जमीन पर पटक दिया और उसके बिलकुल निकट आ गया। उसने हाथ बढ़ा कर मीरा की कलाई पकड़ ली। अगले ही क्षण दीपू की बाँह मीरा के कमर के गिर्द थी और उसकी गहरी साँसें मीरा के कानों में। एक हाथ में थाल थामे मीरा ने दीपू को पीछे धकेलने की कोशिश की। “मामी” दीपू फुसफुसाया, “मामी, प्लीज़...” मीरा सिर-से-पाँव तक काँप गई। हाथ के थाल तीखी खनखनाहट के साथ नीचे गिर गए।

“क्या हुआ, क्या हुआ” की गुहार लगतीं मौसी जी और ताई जी आँगन में आए। पीछे-पीछे मनु और बड़ी जीजी भी।

“कुछ नहीं, मौसी जी, थाल छूट गए हाथ से। ”

“सारे घर भर को जगा दिया तुमने। दीपू, तू धूप में क्या कर रहा है?” जीजी के माथे पर बल थे।

“ ‘सॉरी’ जीजी। ” मीरा मनु की ओर मुड़ी, “मनु, मैं वापस यू.एस. जा रही हूँ दो दिन बाद। ” वह एक साँस में बोली और रसोई की ओर बढ़ गई।




(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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