विज्ञापन लोड हो रहा है...
कृपया एडब्लॉक बंद करें। हमारा कंटेंट मुफ्त रखने के लिए विज्ञापन ज़रूरी हैं।

प्रतिरोध - 2 | अप्रैल 8 | 2:30 बजे | कांस्टीट्यूशन क्लब



आइए!

देश के विवेक, लोकतंत्र और साझा संस्कृति पर हो रहे प्रहारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएं

रचने और सोचने वाले जागरूक लोग एकजुट हों और अपना इक़बाल बुलंद करें

तारीख़: अप्रैल 8, 2016

समय: दोपहर 2:30 बजे से

स्थान: मावलंकर हॉल, कांस्टीट्यूशन क्लब, रफ़ी मार्ग, नई दिल्ली

बात असहिष्णुता से बहुत आगे बढ़ गई है। नागरिकों पर ठेठ राजद्रोह मढ़ा जा रहा है, असहमति को कुचला जा रहा है; सरकारी मशीनरी का बेतरह दुरुपयोग करते हुए बौद्धिक गतिविधियों, अर्थात अभिव्यक्ति, विचार और वाद-विवाद-संवाद के आयोजनों के विरुद्ध जैसे कोई मुहिम व्याप्त है; विश्वविद्यालयों को बहुलता, मुक्त ज्ञान और आज़ाद ख़यालों के केंद्र बने रहने पर भी उन्हें तकलीफ़ है; बौद्धिक जिज्ञासा, असहमति और विरोध के इन केंद्रों का अवमूल्यन किया जा रहा है। इस सब से देश भर में भय, दबाव, धमकियों का माहौल खड़ा कर दिया गया है। कुचालों से लोकतांत्रिक, कानूनी और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं को हड़पते हुए भारतवर्ष, उसकी परंपरा और संस्कृति पर एक नितांत संकीर्ण और इकहरा रुख़ थोपा जा रहा है। हम इस रुख़, उसके भयावह आशयों और उसके तौर-तरीकों को आँखें मूँद कर देश पर हावी नहीं होने दे सकते। इसलिए कि हमें अपने देश, उसकी बहुलतावादी संस्कृति व परंपरा, नागरिकों की अपार संभावनाओं व क्षमताओं और उनके अतीत और संघर्षों से लगाव और सरोकार है।


'प्रतिरोध' के हक़ और जज़्बे को जारी रखते हुए हम - यानी हम और आप - 8 अप्रैल, 2016 (शुक्रवार) को फिर उसी स्थान पर जमा होने जा रहे हैं। आपको आना है। ...


आइए, कि आवाज़ उठाने का हक़ अदा करें।


वक्ता : कृष्णा सोबती, हरबंस मुखिया, कांचा इलैया, कुमार प्रशांत, गौहर रज़ा, सिद्धार्थ वरदराजन, वृंदा ग्रोवर, शोमाचौधरी, डोंथा प्रशांत (हैदराबाद विश्व.), राकेश शुक्ल (एफ़टीआइआइ), ऋचा सिंह (इलाहाबाद विश्व.), शेहला रशीद (जेएनयू)



निवेदक

अशोक वाजपेयी, ओम थानवी, एमके रैना, अपूर्वानंद, वन्दना राग और आप
००००००००००००००००



बाबा रामदेव — अगर सरकार गिरानी होती तो खुले-आम गिराता @Sheshprashn


बाबा रामदेव — अगर सरकार गिरानी होती तो खुले-आम गिराता @Sheshprashn

राजनैतिक उठापटक के बीच उत्तराखंड की सरकार गिर गई और राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। 

कोई इसे भीतरी उठापटक बता रहा है तो कोई इसे बाबा रामदेव का मास्टर प्लान कह रहा है। अमित मिश्रा ने बाबा रामदेव से की ऐसे ही कई मसलों पर बात...


लोग कहते हैं कि आपको उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार की वजह से काम करने में दिक्कत हो रही थी इस वजह से आपने उत्तराखंड की सरकार को गिरवा दिया?

बाबा रामदेव : हमें सरकार गिराने की फुर्सत कहां है। अगर हमें सरकार गिरानी ही होती तो हजार दो हजार करोड़ खर्च करके खुलेआम गिराते। हम कुछ भी लुक-छुप कर नहीं करते। जहां तक बात है यहां पर कांग्रेस सरकार में काम में परेशानी की तो अगर ऐसा है तो हम कहीं और चले जाएंगे। हमारे काम से तो उत्तराखंड के लोगों का भला ही हो रहा है। हमारा काम सरकार गिराना-बनाना नहीं है। अगर किसी के पास सबूत है तो सामने लाए।

कुछ लोगों का कहना है कि आप पीएम मोदी से खफा चल रहे हैं?

बाबा रामदेव : यह सब बकवास है। मेरा अब भी उनसे उतना ही स्नेह है जितना पहले था। जरूरी नहीं है कि मैं उनके दरवाजे यह वह मेरे दरवाजे रोज खड़े रहें। जब मेरा कोई काम होता है तो मैं उनसे या अमित शाह जी से बात करता हूं। मेरा काम लाइजनिंग करना नहीं है जो मैं रोज पीएम से बात करता फिरूं। फिलहाल मैंने खुद को राजनैतिक रूप से पीछे कर रखा है। मेरा फोकस आयुर्वेद, आरोग्य, स्वदेश, गौसेवा और एजुकेशन पर है।

आप दिल्ली में होने वाले श्रीश्री रविशंकर के प्रोग्राम में आने वाले थे लेकिन ऐन मौके पर नहीं आए। क्या ऐसा आपने प्रोग्राम पर हो रहे विवादों या श्रीश्री से किसी मनमुटाव की वजह से किया है?

बाबा रामदेव : मैं क्या उस प्रोग्राम में तो कई संत बुलाए गए थे लेकिन कोई नहीं आया। आखिर कोई क्यों नहीं आया इसका जवाब देना मुश्किल है। कोई तो कारण रहा होगा। फिलहाल मैं इसकी गहराई में नहीं जाना चाहता। श्रीश्री मेरे बड़े भाई की तरह हैं और मेरा उनसे कोई कंपीटीशन नहीं है।

आपसे कई लोग इस वजह से भी नाराज हैं कि आप लोगों को भारत माता की जय का नारा लगाने को जरूरी बनाने की बात करते हैं।

बाबा रामदेव : यह विवाद जेएनयू से शुरू हुआ था इसलिए जल्दी ही मैं जेएनयू जाने वाला हूं। वहां जाकर मैं लेफ्ट और राइट दोनों ही विंग के लोगों से खुल कर बात करूंगा।

आपको कन्हैया से बहस करने में डर नहीं लगता?

बाबा रामदेव : मैं क्यों डरूं कन्हैया से?  मैं उससे किसी भी मसले पर तार्किक बहस कर सकता हूं। डरते वो हैं जिनके पास तर्क नहीं होते हैं। मैंने अपना जीवन सामन्तवाद, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और ब्राह्मण से संघर्ष करके बिताया है। मैं इनके बारे में कन्हैया से ज्यादा अच्छी तरह से जानता हूं।

नूडल्स के बाद हर बार पतंजलि के नए-नए प्रॉडक्ट लॉन्च की अफवाहें आती रहती हैं। अब क्या लाने वाले हैं?

बाबा रामदेव : फिलहाल हमारा फोकस एजुकेशन सेक्टर पर काम करने का है और अगले 10 सालों में इस पर हम 20-25 हजार करोड़ रुपये खर्च करेंगे।
००००००००००००००००



Threats to Ghulam Ali from Hindu Sena - Shoaib Ilyasi Filed Case



The famous Pakistani Ghazal maestro Ghulam Ali is again getting threats from the Hindu Sena. 


Ghulam Ali who sung a song in Shoaib Ilyasi's 'Ghar Wapsi' is not allowed to perform in India. 

According to the previous reports, Ghulam Ali's concert in Mumbai was called off due to Shiv Sena's threats which caused Suhaib Ilyasi to shift the location from Mumbai to Delhi and has demanded protection by Delhi Police.

Due to continuous threats by Hindu  Sena, Ilyasi has now filed a case against them.



००००००००००००००००

नाटक लेखन पर भारी इंस्टैंट प्रसिद्धि की चाहत —अनंत विजय @anantvijay


नाटक लेखन पर भारी इंस्टैंट प्रसिद्धि की चाहत —अनंत विजय @anantvijay

Hindi drama writing, an Art form getting extinct. 

— Anant Vijay

इंदिरा दांगी के नाटक 'आचार्य' से मेरा जुड़ाव आत्मीय है, वो ऐसे कि इसके लिखे जाते समय इंदिरा और मेरी नाटक पर चर्चा होती रहती थी, कुछेक चरित्रों (मदिरा सेन) में शायद मैंने अपनी सलाह दी थी, जिसे नाटक ने ग्रहण भी किया.  'आचार्य' में इंदिरा दांगी ने इस समय की वास्तविकता को दर्ज किये जाने का जो काम किया है वह हमसे शायद ही रेखांकित हो सके, यह मानके चल रहा हूँ कि भविष्य इससे इतिहास पढ़ेगा.

बहरहाल समीक्षक मित्र अनंत विजय ने अपने ताज़े लेख में यह बड़ी उल्लेखनीय बात कही है —
"इंस्टैंट प्रसिद्धि की चाहत में नई पीढ़ी के लेखकों में उतना धैर्य नहीं है कि वो नाटक जैसी विधा, जो कि वक्त, श्रम और शोध तीनों की मांग करती है, पर अपना फोकस करें । जितनी देर में एक नाटक लिखा जाएगा उतनी देर में तो दर्जनों कविताएँ और चार छह कहानियां लिख कर हिंदी साहित्य को उपकृत किया जा सकता है । आज के दौर के स्टार युवा लेखकों में नाटक लिखने और उसको साधने का ना तो धैर्य दिखाई देता है और ना ही हुनर । नाट्य लेखन आज के दौर में लिखे जा रहे कविता और कहानी की तरह सहज नहीं है । नाटक लेखन करते वक्त लेखकों को अभिनय, संगीत, नृत्य के अलावा अन्य दृश्यकलाओं के बारे में ज्ञान होना आवश्यक है । इस ज्ञान के लिए बेहद श्रम की जरूरत है क्योंकि जिस तरह से हमारे समाज की स्थितियां जटिल से जटिलतर होती जा रही हैं उसको नाटक के रूप में प्रस्तुत कर दर्शकों को अपनी बात संप्रेषित करना एक बड़ी चुनौती है ।"

सही कहते हैं अनंत जिस धैर्यता की मांग साहित्य करता है वह बड़ी द्रुतगति से कम होती जा रही है. तुरंत प्रसिद्धि की और सोशल मिडिया पर चमकने की चाहतें साहित्य और साहित्यकार दोनों के लिए ही नुकसानदायक हैं.  सोशल मीडिया वरदान हो जाए यदि हमारी सोच से — वह मुझसे ज़्यादा पॉप्युलर (क्यों) है — निकल जाए!


भरत तिवारी


खत्म होती विधा को संजीवनी 

अनंत विजय 


हिंदी साहित्य में कई ऐसी विधाएं हैं जो वक्त के साथ साथ हाशिए पर चली गई जैसे तकनीक के फैलाव ने पत्र साहित्य का लगभग खात्मा कर दिया है । एक जमाना था जब साहित्यकारों के पत्रों के संकलन नियमित अंतराल पर छपा करते थे और उन संकलनों से उस दौर का इतिहास बनता था । उदाहरण के तौर पर अगर देखें तो भदन्त आनंद कौसल्यायन कृत ‘भिक्षु के पत्र’ जो आजादी पूर्व उन्नीस सौ चालीस में छपा था, काफी अहम है । उसके बाद तो हिंदी साहित्य में पत्र साहित्य की लंबी परंपरा है । जेल से लिखे जवाहरलाल नेहरू के इंदिरा गांधी के नाम पत्र तो काफी लोकप्रिय हुए । जानकी वल्लभ शास्त्री ने निराला के पत्र संपादित किए तो हरिवंश राय बच्चन ने पंत के दो सौ पत्रों को संकलित किया । नेमिचंद्र जैन ने मुक्तिबोध के पत्रों को पाया पत्र तुम्हारा के नाम से संकलित किया जो समकालीन हिंदी साहित्य की धरोहर हैं । हिंदी पत्र साहित्य के विकास में साहित्यिक पत्रिका सरस्वती, माधुरी, ज्ञानोदय, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि का अहम योगदान है । चांद पत्रिका का पत्रांक तो साहित्य की वैसी धरोहर जिसे हर साहित्य प्रेमी सहेजना चाहता है ।

इसी तरह से अगर हम देखें तो हिंदी साहित्य में नाटक लिखने का चलन लगभग खत्म सा हो गया है । साहित्य की हाहाकारी नई पीढ़ी, जो अपने लेखन पर जरा भी विपरीत टिप्पणी नहीं सुन सकती, का नाटक की ओर झुकाव तो दिखता ही नहीं है । कविता लिखना बेहद आसान है, उसके मुकाबले कहानी लेखन थोड़ा ज्यादा श्रम की मांग करता है । नाटक में सबसे ज्यादा मेहनत की आवश्यकता होती है । इंस्टैंट प्रसिद्धि की चाहत में नई पीढ़ी के लेखकों में उतना धैर्य नहीं है कि वो नाटक जैसी विधा, जो कि वक्त, श्रम और शोध तीनों की मांग करती है, पर अपना फोकस करें । जितनी देर में एक नाटक लिखा जाएगा उतनी देर में तो दर्जनों कविताएँ और चार छह कहानियां लिख कर हिंदी साहित्य को उपकृत किया जा सकता है । आज के दौर के स्टार युवा लेखकों में नाटक लिखने और उसको साधने का ना तो धैर्य दिखाई देता है और ना ही हुनर । नाट्य लेखन आज के दौर में लिखे जा रहे कविता और कहानी की तरह सहज नहीं है । नाटक लेखन करते वक्त लेखकों को अभिनय, संगीत, नृत्य के अलावा अन्य दृश्यकलाओं के बारे में ज्ञान होना आवश्यक है । इस ज्ञान के लिए बेहद श्रम की जरूरत है क्योंकि जिस तरह से हमारे समाज की स्थितियां जटिल से जटिलतर होती जा रही हैं उसको नाटक के रूप में प्रस्तुत कर दर्शकों को अपनी बात संप्रेषित करना एक बड़ी चुनौती है । नाटक लेखन का संबंध नाटक मंडलियों से भी है क्योंकि श्रेष्ठ नाटक मंडली का अभाव नाट्य लेखन को निरुत्साहित करता है । मंचन में नए नए प्रयोगों के अभाव ने भी नाट्य लेखन को प्रभावित किया है । मोहन राकेश के नाटकों के बाद संभवतः पहली बार ऐसा हुआ कि हिंदी का नाट्य लेखन पराजय, हताशा और निराशा के दौर से बाहर आकर संघर्ष से परास्त होते आम आदमी को हिम्मत बंधाने लगा । हिंदी साहित्य में उन्नीस सौ साठ के बाद जिस तरह से मोहभंग का दौर दिखाई देता है उससे नाट्य लेखन भी अछूता नहीं रहा । इस दौर में लिखे गए नाटक मानवीय संबंधों की अर्थहीनता को उजागर करते हुए जीवन के पुराने गणितीय फार्मूले को ध्वस्त करने लगा । इनमें सुरेन्द्र वर्मा का नाटक द्रौपदी, मुद्रा राक्षस का सन्तोला, कमलेश्वर की अधूरी आवाज, शंकर शेष का घरौंदा से लेकर मन्नू भंडारी का बिना दीवारों के घर प्रमुख हैं । इसके अलावा हम भीष्म साहनी के कबिरा खड़ा बाजार में, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के नाटक बकरी और रमेश उपाध्याय के नाटक पेपरवेट को नहीं भुला सकते । इसके बाद एक और प्रवृत्ति देखने को मिली । अच्छे साहित्य को जनता तक पहुंचाने के लिए मशहूर उपन्यासों और कहानियों का नाट्य रूपांतर होने लगा । मन्नू भंडारी के महाभोज का नाट्य रूपांतर काफी लोकप्रिय है । बाद में विदेशी नाटकों के अनुवाद भी होने लगे जिसमें भारतीय परिवेश का छौंक लगाकर स्थानीय दर्शकों को जोड़ने की शुरुआत हुई । इसी दौर में शेक्सपीयर, ब्रेख्त, कैरल, चैपर आदि के नाटकों का अनुवाद हुआ था । रघुवीर सहाय ने तो शेक्सपीयर के नाटक मैकबेथ का हिंदी अनुवाद बरनम वन के नाम से किया था । अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों के हिंदी अनुवाद भी होने लगे । बादल सरकार, गिरीश कर्नाड, विजय तेंदुलकर आदि के अनुवाद खूब पसंद किए गए । इन सभी देसी विदेशी नाटकों ने हिंदी नाटक को नई दिशा तो दी है उसको नई दृष्टि से भी संपन्न किया । लेकिन अनुवादों के इस दौर ने भी हिंदी में नाटक लेखन को हतोत्साहित किया । लंबे वक्त बाद असगर वजाहत का नाटक जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नइ- छपा तो हिंदीजगत में धूम मच गई।

अभी हाल ही में लमही पत्रिका में हिंदी की युवा लेखिका इंदिरा दांगी का नाटक आचार्य छपा है । सबसे पहले तो इस युवा लेखिका की इस बात के लिए दाद देनी चाहिए उसने इस दौर में कहानी और उपन्यास लेखन के अलावा नाटक लिखा । इंदिरा दांगी अपने दौर की सर्वाधिक चर्चित लेखिका है और उसको कलमकार कहानी पुरस्कार से लेकर साहित्य अकादमी का युवा पुरस्कार मिल चुका है । इंदिरा दांगी के इस उपन्यास को पढ़ते हुए पाठकों के सामने हिंदी साहित्य का पूरा परिदृश्य आपकी आंखों के सामने उपस्थित हो जाता है । यह पूरा नाटक एक साहित्यिक पत्रिका के संपादक विदुर दास और युवा लेखिका रोशनी के इर्द-गिर्द चलती है । इस नाटक का ओपनिंग सीन अंधकार से शुरू होता है जहां नायिका रोशनी आती है और बहुत ही बेसिक से सवाल उठाती है कि साहित्य क्या होता है । जरा संवाद पर नजर डालते हैं – साहित्य क्या होता है ? क्या जिसमें सहित का भाव निहित हो वही साहित्य है ? फिर हंसी । यही तो असली नब्ज है, सरकार सहित । प्रशंसा और प्रशंसकों से शुरू ये कोरा सफर विदेश यात्राओं, मोटी स्कॉलरशिप, हल्के-वजनी अवॉर्डों और हिंदी प्रोफेसर की नौकरी से लेकर अकादमी अध्यक्ष पदों की नपुंसक कर देनेवाली कुर्सियों तक पहुंचते-पहुंचते कितना कुछ सहित ‘लादता’ चला जाता है । उन्हें कृपया ना गिनें । लिखनेवाले का ‘लेखिका होना एक दूसरा ही टूल है सफलता का जिसका प्रयोग हर भाषा, हर काल, हर साहित्य में यकीनन बहुतों ने किया होगा और बहुतों को करना बाकी है । तौबा । इसके बाद नायिका मुंह पर हाथ रखती है और सयानपन से मुस्कुराते हुए कहती है स्त्री विरोधी बात ।

अब इस पहले दृश्य को ही लीजिए तो ये नाटक आज के दौर को उघाड़कर रख देता है । इंदिरा दांगी ने जिस तरह के शब्दों का प्रयोग किया है वो इस दौर पर एक तल्ख टिप्पणी है । स्त्री विरोधी बात कहकर जिसको उसकी नायिका मुंह पर हथेली रख लेती है वो एक बड़ी प्रवृत्ति की ओर इशारा करती है । ये प्रवृत्ति कितनी मुखर होती चली जाती है ये नाटक के दृश्यों के आगे बढ़ते जाने के बाद साफ होती गई है । जब वो कहती है कि लिखनेवाला का लेखिका होना एक टूल है जिसका इस्तेमाल होता है तो वो साहित्य के स्याह पक्ष पर चोट करती है । इसी तरह से शोधवृत्ति से लेकर प्रोफेसरी तक की रेवड़ी बांटे जाने पर पहले ही सीन में करार प्रहार है । अकादमी अध्यक्ष पद की नपुंसक कर देनेवाली कुर्सी से भी लेखिका ने देशभर की अकादमियों के कामकाज पर टिप्पणी की है । इस नाटक को पढ़नेवालों को ये लग सकता है कि यहां एक मशहूर पत्रिका का संपादक मौजूद है, साथ ही मौजूद है उसकी चौकड़ी भी । लेकिन इस नाटक के संपादक को किसी खास संपादक या इसके पात्रों को किसी लेखक लेखिका से जोड़ कर देखना गलत होगा । इस तरह के पात्र हिंदी साहित्य में यत्र तत्र सर्वत्र बिखरे पड़े हैं । जरूरत सिर्फ नजर उठाकर देखने की है । नाट्य लेखन के बारे में मेरा ज्ञान सीमित है लेकिन अपने उस सीमित ज्ञान के आधार पर मैं कह सकता हूं इंदिरा दांगी के इस नाटक में काफी संभावनाएँ हैं और इसके मंचन से इसको और सफलता मिल सकती है । फिलहाल साहित्य के कर्ताधर्ताओं को इस ओर ध्यान देना चाहिए कि एक बिल्कुल युवा लेखिका ने एक लगभग समाप्त होती विधा को जिंदा करने की पहल की है । अगर उसको सफलता मिलती है तो इस विधा को भी संजीवनी मिल सकती है । कुछ और युवा लेखक इस विधा की ओर आकर्षित हो सकते हैं । अगर ऐसा हो पाता है तो हम अपनी एक समृद्ध विरासत को संरक्षित करने में कामयाब हो सकेंगे ।  
००००००००००००००००

Gurus of Photography — Bharat Tiwari


Ashoke Chatterjee, Parthiv Shah, Aditya Arya & Samar S Lodha
Ashoke Chatterjee, Parthiv Shah, Aditya Arya & Samar S Lodha


Gurus of Photography 

— Bharat Tiwari

Photography is a visual documentation of time. It's an art that appeals to everyone but a mere photo click can't be art, one has to learn it with thorough dedication. Couple of years back someone told me, "Till you've clicked your first ten thousand photographs don't even think that you are a photographer", I felt awkward but now I know even a zero or two added in 10,000 can't make one a photographer less one is blessed with 'the eye' and ‘a guru’.
Ashok Khosla
Ashok Khosla
Talking about gurus, the scene worldwide, is not at all encouraging when it comes to teaching photography to young artists. Unfortunately the high fee charged by teachers, is making this art unreachable to many, depriving them and world of art both from a documentation that should’ve been done. Fortunately, in the meantime, there are sober people like Aditya Arya of ‘India Photo Archive Foundation‘ who are here, who know the importance of becoming accessible to those for whom it’s otherwise not easy.

I could see it in the eyes of Swarat Ghosh, when he came to me asking “Did you like my work… I saw you taking photo of them”. A wonderful essay of rag-pickers by him made me stand and watch the life go by. The smiling hearts of photographer’s chosen for this project was telling me ‘we have arrived’!  Not only their eyes communicating this but it was visible and audible from people present at the opening of the exhibition among whom were  Ashok Khosla, co-chair of the United Nations Environment Programme’s International Resource Panel sporting a shawl made of recycled coke plastic, Professor Rajeev Lochan,  Director of the National Gallery of Modern Art (NGMA) New Delhi, Parthiv Shah, photographer who as a jury selected and edited images for catalogue and the show, Bandeep Singh, Prabir Purkayastha , Vidya Shah, Dipankar Gupta, Harmala, Singh Samar Singh Jodha and Asha Rani Mathur, to name a few.

Rajeev Lochan
Rajeev Lochan
One last thing… I think I was making my third round (smile) of the show when the idea of capturing the artists’ with their work/smile/happiness/enthusiasm stuck me and when I asked them to pose they were like all of us… feeling shy on camera.

Vidya Shah
Vidya Shah
A fantastic collection, a great and a must see show curated by Aditya Arya opened on 1st April, 2016 is on till 11th April 2016 at India International Centre, Gate No 1, 40, Max Muller Marg, New Delhi

Here's the jury Parthiv Shah's analysis of the photographers chosen for project under the aegis of Neel Dongre Awards/Grants for Excellence in Photography (2016), a project aiming to providing a visual interpretation of the World of Recycle & Waste Management.


Bharat Tiwari

photographer bharat tiwari
WORLD OF RECYCLE — A Public Secret — Parthiv Shah

Parthiv Shah
Jury's presence, Parthiv Shah


पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य   पूर्णमादाय   पूर्णमेवावशिष्यते ॥

Om
That is the whole, this is the whole;
from the whole, the whole becomes manifest;
taking away the whole from the whole,
the whole remains.
Om. Peace! Peace! Peace!.

Recycling is a western term which was made popular sometimes in late 60’s. Humans thought that the earth has enormous resources but soon they realized that this will all go away very soon! Interestingly

In our part of world we had very little material resources and our ancient culture always believed in reincarnation and that we brought in day to day practice. In India even now a Saree becomes a cradle which becomes a quilt and turns in to a mop and sometime even a wick of lamp!

Recycling is not new to us but when western technology and material has taken over our lifestyle it is but natural that we have to think differently. One can see in local haat (weekly bazaar) of village bags and spice boxes made out of oil containers, hand-fans made out of tobacco gutaka pouches, rubber chappals made of truck tires etc.

Recycling is a hard and dirty job, mostly carried out by the lowest strata of society. To document these people and their work in camera is a real daunting task. This year nine young photographers have approached this subject in a very unique way. Some have concentrated on the human aspect while some have captured the visual play.

Cheena Kapoor
Cheena Kapoor
Exploring ‘the second hand cloth market’ and the exhaustive daily routines of the Gujarat’s Waghari tribe, Cheena Kapoor’s photographs reveal a world of congestion and disarray, but one that solves a crisis of recycle as well as necessity. It is through the stark colours of a variety of clothing set amidst a background of temporariness that the camera captures the noise and bustle of the market.

Manu Yadav
Manu Yadav
Manu Yadav’s visual account of rag-pickers at Connaught Place, is a call to confront and notice. In one of Delhi’s most posh areas, a community of scavengers lives a life of depravity induced by destitution. On the other hand there are initiatives like ‘Gulmeher’ that have brought together a community of women rag-pickers to recycle waste from ‘Gazipur Flower market’ into handmade crafts. While the two series offer a visual commentary on two separate setups, the contrast in terms of theme also unfolds the affects of abandonment and support.

Monica Tiwari’s Dust is work of irony, the candidness captured by the camera stands in striking contrast to the harsh realities of the occupational hazards, the lack of basic infrastructure and education. The children at the landfill occupy the frames, and the sentiment that plays out in its characteristic loud refrain is that of a practiced indifference. Landfills and garbage dumps have been shot by hundreds of photographers across the world and it is quite a challenge for any photographer to humanise this landscape. Children in all her frames remind in a way of the unfairness of policy measures that turn these landscapes of ‘dust and garbage’ into compromising means of survival.

Rahul Sharma
Rahul Sharma
The ‘Kabadiwallas of Jungpura’ by Rahul Sharma brings to the fore the idea of agency, the inherent bias of a photographic dialogue with the underprivileged . The hand painted portraits in a range of formats from 35mm, 4x5, digital, to 8x10 using a combination of film and paper negatives, surprise with their colours and the choice of eliminating the background  setting.

Saumya Khandelwal
Saumya Khandelwal
The Mayapuri Junkyard by Saumya Khandelwal documents the cycle of the process. We do not see the so much the people involved but the omnipresence of scrap is overwhelming. Each diptych denotes a visual quirk, and the juxtapositions narrate the lack of organised support  and the will to ‘make-do’ with what is available.

Siddharth Behl
Siddharth Behl
In a similar vein, Siddharth Behl captures the lives of workers at a construction and demolition recycle firm in Burari. The mechanical landscapes sweep over the efforts and hardships of labor. The children with their jugaad paraphernalia playing amidst a deserted field ironically underline the priorities of gentrification, and the cost of the same on the lower strata of society. The desolation of the setting subtly invokes the marginalisation faced by working classes.

Shweta Pandey
Shweta Pandey
Shweta Pandey’s series on ‘rag-pickers’ in Gurgaon dispenses with the habitus, focussing instead on the portrait photography. The attempt invokes the ethical contradictions of such close encounters: how apt the portraits are to capture their social existence? Form and content blend together interestingly in her use of old-dailies as a print medium.

Sreedeep
Sreedeep
Sreedeep’s visual foray into the automobile Junk Market delineates the ‘every day rituals’ among the scrap dealers. Between rest and work, the community unfolds through its routines. Sreedeep’s camera not only brings out the mundane but also manages the capture the compassion within the community.

Swarat Ghosh
Swarat Ghosh
Beginning with the sprawling landfills, Swarat Ghosh’s focus shifts to more personalised narratives within the living quarters of ‘rag-picking’ community’ in Bholakpur and BK Guda Basti. From the households to the neighbour,  the photographs offer subtle hints into the affects of marginalisation.

The present series is a testimony to the idea of ‘Public Secret’- something that is known, but fails meaningful articulation. The stories of waste recycling in India do not constitute a narrative that is new but a narrative that has been abandoned to a culture of compromise. The photographs in the series provide for a humane exposition of the issues concerning waste management in India. Covering multiple stories - scrap-dealers, construction waste, rag-pickers, recycled handicrafts and second hand markets - these works highlight the marginalisation faced by the disadvantaged and the layered narratives within.

It is good to know that the platform through this series is contributing to the mainstreaming of a marginal public issue which we as a community have been dedicated to over the years.

These photographs shall hopefully bring more voices and greater interest to the discourse that is mostly limited to closed circles. In their own ways they are attempts at articulation, of these many encounters with the ‘invisible’, that are generally avoided.

००००००००००००००००

मृतपत्र का पुनर्जन्म — आरिफा एविस #UttarakhandCrisis @harishrawatcmuk


Dr. Bhimrao Ramji Ambedkar, chairman of the Drafting Committee of the Constitution of India, referred to Article 356 as a dead letter of the Constitution
Cartoon courtesy :  Radhakrishnan Prasad

मैं यह उम्मीद करता हूँ कि यह एक ‘मृतपत्र’ है जिसका कभी भी प्रयोग नहीं होगा

— डॉ. बी. आर अम्बेडकर



डॉ. बी. आर अम्बेडकर ने अनुच्छेद 356 के विषय में कहा था कि “मैं यह उम्मीद करता हूँ कि यह एक ‘मृतपत्र’ है जिसका कभी भी प्रयोग नहीं होगा।” लेकिन अफसोस यह है कि भारतीय लोकतान्त्रिक सरकारों ने न सिर्फ इसमें संशोधन किया बल्कि 1950 में भारतीय संविधान के लागू होने के बाद से केन्द्र कि तमाम सरकारों द्वारा इस अनुच्छेद का प्रयोग 100 से भी अधिक बार किया गया है । जिसमें बिहार, पंजाब, मणिपुर, उत्तर प्रदेश में तो इसे सात से अधिक बार प्रयोग किया जा चुका है ।

अनुच्छेद 356, केंद्र सरकार को किसी भी राज्य सरकार को बरखास्त करने या राष्ट्रपति शासन लागू करने की अनुमति उस अवस्था में देता है, जब राज्य का संवैधानिकतंत्र पूरी तरह विफल हो गया हो या केंद्र कि नीतियों को लागू करने में असमर्थ हो । जाहिर है कि इस अनुच्छेद का प्रयोग अधिकतर केंद्र सरकार अपने नफे-नुकसान को देखते समय-समय राज्य सरकारों को राष्ट्रपति द्वारा बरखास्त करती है और इस अनुच्छेद से कोई भी राज्य बच नहीं पाया है । यह केवल अपनी विरोधी राजनैतिक सरकारों को समाप्त करने और अपने राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिए लागू किया जाता है। इसका लोकतंत्र से कोई लेनादेना नहीं है क्योंकि लोकतंत्र और भारतीय लोकतंत्र में जमीन आसमान का अंतर है । आज सच्चे लोकतंत्र को समझने के लिए लोकतंत्र और भारतीय लोकतंत्र में अंतर करना समय की जरूरत है ।

Dr. Bhimrao Ramji Ambedkar, chairman of the Drafting Committee of the Constitution of India, referred to Article 356 as a dead letter of the Constitution. In the constituent assembly debate it was suggested that Article 356 is liable to be abused for political gains. Dr. Ambedkar replied, "I share the sentiments that such articles will never be called into operation and they would remain a dead letter. If at all they are brought into operation, I hope the President, who is endowed with these powers, will take proper precautions before actually suspending the administration of the provinces. I hope the first thing he will do would be to issue a mere warning to a province that has erred, that things were not happening in the way in which they were intended to happen in the Constitution. If that warning fails, the second thing for him to do will be to order an election allowing the people of the province to settle matters by themselves. It is only when these two remedies fail that he would resort to this article.

उत्तराखंड में भी इसका प्रयोग अपने राजनैतिक विरोधी सरकार को बरखास्त करने के लिए किया गया है । यह अनुच्छेद लोकतंत्र के लिए ही नहीं बल्कि भारतीय संसदीय लोकतंत्र के संघीय व्यवस्था के लिए भी एक बड़ा खतरा है । इतिहास गवाह है कि सबसे पहले केरल की कम्युनिस्ट सरकार को बरखास्त करने के लिए इस अनुच्छेद का प्रयोग किया गया था । जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी तो उसने भी भाजपा शासित राज्यों में राष्ट्रपति शासन इस बहाने लागू किया कि “राज्य सरकारें धार्मिक संगठनों पर प्रतिबंध लगाने में नाकाम रही है।”

उत्तराखंड विधानसभा में कुल 70 सदस्य हैं । सत्ताधारी कांग्रेस के पास 36 विधायक हैं । इसे तीन निर्दलियों, दो बहुजन समाज पार्टी और उत्तराखंड क्रांति दल का एक विधायक का समर्थन भी हासिल था । लेकिन राज्य में राजनीतिक संकट उस समय पैदा हुआ जब विधानसभा अध्यक्ष ने विधानसभा में वित्तीय विधेयक पारित होने की घोषणा कर दी । मेरा मानना है कि भारत के इतिहास में पहली बार आर्थिक मामले के कारण किसी सरकार को बरखास्त किया गया है । कारण एकदम साफ़ दिखाई दे रहा था कि वित्तीय लूट का बंटवारा ठीक नहीं था वर्ना ये नौबत आती ही नहीं क्योंकि अभी भी भारतीय संवैधानिक लोकतंत्र में सभी पार्टियां आर्थिक मुद्दों पर एक हैं। उनकी निजीकरण, उदारीकरण, वैश्वीकरण की नीतियां एक हैं बाकि मुद्दों में चाहे दिखने में अलग क्यों न हो.

भाजपा और कांग्रेस के बागी नेता जो दावा कर रहे थे कि उनके मत विभाजन की मांग को अनुमति नहीं मिली। उन्होंने आरोप लगाया कि उपस्थित बहुसंख्यक सदस्यों द्वारा ध्वनिमत से विधेयक गिराया गया और विधानसभा अध्यक्ष ने हमारी मांग को ठुकरा दिया और इसे पारित घोषित कर दिया। जबकि 35 विधायकों ने विधानसभा अध्यक्ष को पहले से ही पत्र लिखकर कहा था कि हम सब इस विधेयक के खिलाफ मत देंगे लेकिन विधानसभा अध्यक्ष ने इस पर विचार करने से इंकार कर दिया।

असल में उत्तराखंड में जोड़तोड़ करके जो सरकार बनाई गई यह शुरू से ही अल्पमत की सरकार थी। जिसे कभी भी गिराया जा सकता था जिसे बहुमत में बदलने के लिए धनबल, भू माफिया और धनिकों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर कभी भी किया जा सकता था । केंद्र सरकार को अपनी सरकार बनाने के लिए यह उचित समय लगा । यह भी सम्भावना हो सकती है कि कल की खबर ये हो कि उत्तराखंड में अब बी.जे.पी. की सरकार बन रही है । देश के नेता और बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि ये लोकतंत्र की हत्या है जबकि ये सिर्फ भारतीय संवैधानिक लोकतंत्र की दिशा और दशा है अनिवार्य चरित्र है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। केंद्र में कोई भी सरकार आये इस अनुच्छेद का दुरुपयोग वह करती रही और आगे भी करती रहेगी क्योंकि यह हमारे संविधान में अंकित है जिसका इतिहास मैं आपको बता ही चुकी हूं।

राष्ट्रपति शासन किसी भी केंद्र सरकार का कुछ घंटों का एक खेल बन कर रह गया है जिसका उदाहरण उत्तराखंड है । शनिवार रात को उत्तराखंड के राजनीतिक संकट पर केंद्रीय मंत्रिमंडल की आपातकालीन बैठक हुई, राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने रविवार सुबह दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर किये । जिसमें राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफ़ारिश की गई। उधर जेटली ने तुरंत घोषणा कर दी कि ‘उत्तराखंड प्रशासनिक मशीनरी के चरमराने का असली उदाहरण है और संविधान के लिहाज़ से जो कुछ भी ग़लत हो सकता था वो वहां हुआ है । आप दिए गए समय का इस्तेमाल प्रलोभन देने और रिश्वत देने में इस्तेमाल कर रहे हैं जो कि संविधान का उल्लंघन है।”
आरिफा एविस Arifa Avis

आरिफा एविस 

हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार में  स्नातक
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, पुस्तक समीक्षा, कविता का प्रकाशन
ईमेल: arifa.avis@gmail.com

जबकि राज्य में कांग्रेस के नौ विधायकों की बग़ावत के बाद हरीश रावत सरकार को 28 मार्च तक बहुमत साबित करने का मौका मिल चुका था फिर इतनी हड़बड़ी क्यों? इसका उत्तर शायद सभी राजनीतिक पंडित अच्छी तरह से जानते हैं।

वैसे तो उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने के खिलाफ कांग्रेस की अर्जी पर मंगलवार को नैनीताल हाईकोर्ट में सुनवाई हुई। उत्तराखंड हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन पर रोक लगा दी और मुख्यमंत्री हरीश रावत को अब 31 मार्च को बहुमत साबित करने के लिए कहा है। हाई कोर्ट ने कांग्रेस पार्टी के बागी विधायकों को भी वोटिंग का अधिकार दे दिया है। केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट जाने कि तैयारी कर रही है और बाकी विकल्पों पर भी विचार विमर्श कर रही है । सवाल तो वहीं का वहीं रह गया कि कोर्ट की तरफ से कोई भी फैसला आये। क्या इस अनुच्छेद पर पुनः विचार–विमर्श होगा? क्या जनता का राजनीतिक पार्टियों पर पुनः विश्वास हो पायेगा ? यह अब संभव नहीं है क्योंकि यह अनुच्छेद कानून द्वारा ही लागू होता है ।

इस घटना ने हमारी राजनीतिक विद्रूपता की पोल ही नहीं खोली, बल्कि उसे और अधिक अविश्वसनीय बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । सरकारें बचाने के तमाम हथकंडों से जनता परिचित हो चुकी है और केंद्र की महत्वाकांक्षी मंशा को भी जमीन पर ला दिया गया है । अब हमें लोकतंत्र और भारतीय लोकतंत्र में अंतर तो करना ही होगा वर्ना भारतीय संसदीय राजनीति इस “मृतपत्र” अनुच्छेद का प्रयोग कर हर बार यूँ ही अवाम को बेवकूफ बनाती रहेगी ।

००००००००००००००००

'शब्‍दवेध' एक शब्‍दयोगी (अरविंद कुमार) की आत्‍मगाथा : अनुराग


'शब्‍दवेध' एक शब्‍दयोगी (अरविंद कुमार) की आत्‍मगाथा : अनुराग

पाठक के लिए किसी संस्कृत शब्द का अर्थ समझना कठिन नहीँ होता, बल्कि दुरूह वाक्य रचना अर्थ ग्रहण करने मेँ बाधक होती है 

— अरविंद कुमार



एक शब्‍दयोगी की आत्‍मगाथा : अनुराग 


शब्‍दों के संसार में पि‍छले सत्‍तर साल से सक्रिय अरविंद कुमार को आधुनि‍क हिंदी कोशकारि‍ता की नीवं रखने का श्रेय जाता है। कोशकारि‍ता के लि‍ए कि‍ए अपना सब कुछ दांव में लगाने वाले अरविंदजी का जीवन संघर्ष भी कम रोमांचक नहीं है। पंद्रह साल की उम्र में उन्‍होंने हाई स्‍कूल की परीक्षा दी और पारि‍वारि‍क कारणों से रि‍जल्‍ट आने से पहले ही दि‍ल्‍ली प्रेस में कंपोजिंग से पहले डि‍स्‍ट्रीब्‍यूटरी सीखने के लि‍ए नौकरी शुरू कर दी। एक बाल श्रमि‍क के रूप में अपना कॅरि‍यर शुरू करने वाले अरविंद कुमार कैसे दि‍ल्‍ली प्रेस में सभी पत्रि‍काओं के इंचार्ज बने, कैसे अपने समय की चर्चित फि‍ल्‍म पत्रि‍का ‘माधुरी’ के संस्‍थापक संपादक बन उसे एक वि‍शि‍ष्‍ट पहचान दी और फि‍र कैसे रीडर डायजेस्‍ट के हिंदी संस्‍करण ‘सर्वोत्‍तम’ की की शुरुआत कर उसे लोकप्रि‍यता के शि‍खर तक पहुंचाया, ये सब जानना, एक कर्मयोगी के जीवन संघर्ष को जानने के लि‍ए जरूरी है।

कोशकार अरविंद कुमार के जीवन के वि‍भि‍न्‍न पहलुओं और कोशकारि‍ता के लि‍ए कि‍ए गए उनके कार्यों को समेटे हुए पुस्‍तक ‘शब्‍दवेध’ एक दस्तावेजी और जरूरी किताब है। अरविंदजी के जीवन और कर्मयोग के अलावा इस दस्‍तावेजी पुस्‍तक में प्रकाशन उद्योग के वि‍कास और हि‍न्‍दी पत्र-पत्रि‍काओं के उत्‍थान-पतन की झलक भी इसमें मि‍लती है। यह पुस्‍तक नौ संभागों पूर्वपीठि‍का, समांतर सृजन गाथा, तदुपरांत, कोशकारि‍ता, सूचना प्रौद्योगि‍की, हिंदी, अनुवाद, साहि‍त्‍य और सि‍नेमा में बंटी है। 

रीडर डायजेस्‍ट के हिंदी संस्‍करण 'सर्वोत्‍तम' की की शुरुआत कर उसे लोकप्रि‍यता के शि‍खर तक पहुंचाया
समांतर कोश बना कर हिंदी में क्रांति लाने वाले अरविंद कुमार की यह अपनी तरह की एकमात्र आत्मकथा है। कारण —  वह अपने निजी जीवन की बात इस के पहले संभाग पूर्वपीठिका के कुल 21 पन्नोँ मेँ निपटा देते हैं। जन्म से उस दिन तक जब वह माधुरी पत्रिका का संपादक पद त्याग कर दिल्ली चले आए थे और लोग उन्हें पागल कह रहे थे। उन का कहना है, ‘मेरे जीवन मेँ जो कुछ भी उल्लेखनीय है, वह मेरा काम ही है। मेरा निजी जीवन सीधा सादा, सपाट और नीरस है।’ इसके बाद तो किताब में शब्‍दों के संसार में उनके अनुभवों और योगदान की उत्तरोत्तर विकास कथा है।

समांतर सृजन गाथा और तदुपरांत नाम के दो संभागों में हम पहले तो समांतर कोश की रचना की समस्याओँ और अनोखे निदानोँ से अवगत होते हैं। यह जानते हैं कि कथाकार कमलेश्‍वर द्वारा उसके नामकरण में सहयोग और नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा उसका प्रकाशन कैसे हुआ और उनके अन्य कोशों (समांतर कोश, अरविंद सहज समांतर कोश, शब्देश्‍वरी, अरविंद सहज समांतर कोश, द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी, भोजपुरी-हिंदी-इंग्लिश लोकभाषा शब्दकोश, बृहत् समांतर कोश, अरविंद वर्ड पावर: इंग्लिश-हिंदी, अरविंद तुकांत कोश) से परिचित होते हैं। किसी एक आदमी का अकेले अपने दम पर, बिना किसी तरह के अनुदान के इतने सारे थिसारस बना पाना अपने आप मेँ एक रिकॉर्ड है।

कोशकारिता संभाग हमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोश कला के सामाजिक संदर्भ और दायित्व तक ले जाता है। अमर कोश, रोजेट के थिसारस और समांतर कोश का तुलनात्मक अध्ययन पेश करता है।

सूचना प्रौद्योगिकी संभाग में अरविंद बताते हैं कि उन्होंने प्रौद्योगिकी को किस प्रकार हिंदी की सेवा में लगाया। साथ ही वह वैदिक काल से अब तक की कोशकारिता को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य मेँ पेश करने में सफल होते है। मशीनी अनुवाद की तात्कतालिक आवश्यकता पर बल देते है।

हिंदी संभाग मे वह हिंदी की मानक वर्तनी पर अपना निर्णयात्मक मत तो प्रकट करते ही हैं, साथ ही हिंदी भाषा में बदलावों का वर्णन करने के बाद आंखों देखी हिंदी पत्रकारिता मेँ पिछले सत्तर सालोँ की जानकारी भी देते है।

अनुवाद संभाग मेँ अनुवादकों की मदद के लिए कोशों के स्थान पर थिसारसों की वांछनीयता समझाते हैं। इसके साथ ही गीता के अपने अनुवाद के बहाने संस्कृत भाषा को आज के पाठक तक ले जाने की अपनी सहज विधि दरशाते हैं और ऐसे अनुवादों में वाक्यों को छोटा रखने का समर्थन करते हैं। वह प्रतिपादित करते हैँ कि पाठक के लिए किसी संस्कृत शब्द का अर्थ समझना कठिन नहीँ होता, बल्कि दुरूह वाक्य रचना अर्थ ग्रहण करने मेँ बाधक होती है।



साहित्य संभाग हर साहित्यकार के लिए अनिवार्य अंश है। इंग्लैंड के राजकवि जान ड्राइडन के प्रसिद्ध लेख काव्यानुवाद की कला के हिंदी अनुवाद शामिल कर उन्होंने हिंदी जगत पर उपकार किया हैा ड्राइडन ने जो कसौटियां स्थापित कीं, वे देशकालातीत हैं। ग्रीक और लैटिन महाकवियों को इंग्लिश में अनूदित करते समय ड्राइडन के अपने अनुभवों पर आधारित लंबे वाक्यों और पैराग्राफ़ोँ से भरे इस लेख के अनुवाद द्वारा उन्होँने इंग्लिश और हिंदी भाषाओँ पर अपनी पकड़ सिद्ध कर दी है। यह अनुवाद वही कर सकता था जो न केवल इंग्लिश साहित्य से सुपरिचित हो, बल्कि जिसे विश्व साहित्य की गहरी जानकारी हो।

माधुरी पत्रिका
सिनेमा संभाग की कुल सामग्री पढ़ कर कहा जा सकता है कि यह सब साहित्य संभाग मेँ जाने का अधिकारी था। कोई और फ़िल्म पत्रकार होता तो सिने जगत के चटपटे क़िस्सों का पोथा खोल देता, लेकिन अरविंद यह नहीं करते। जिस तरह उन्होंने माधुरी पत्रिका को उन क़िस्सोँ से दूर रखा, उसी तरह यहाँ भी वह उस सब से अपने आप को दूर रखते हैँ। यहाँ हम पढ़ते हैं जनकवि शैलेंद्र पर एक बेहद मार्मिक संस्मरणात्मक लेख, राज कपूर के साथ उन की पहली शाम के ज़रिए फ़िल्मोँ के सामाजिक पक्ष और दर्शकों की मानसिकता पर पड़ने वाले प्रभाव की चर्चा, फ़िल्म तकनीक के कुछ महत्वपूर्ण गुर।

माधुरी पत्रिका की चर्चा करने के बहाने वह बताते हैँ कि क्यों उन्होँने फ़िल्म वालों से अकेले में मिलना बंद कर दिया- जो बात उजागर होती है, वह पत्रकारिता मेँ छिपा भ्रष्टाचार।

इस संभाग मेँ संकलित लंबा समीक्षात्मक लेख माधुरी का राष्ट्रीय राजमार्ग प्रसिद्ध सामाजिक इतिहासकार रविकांत ने लिखा है, जो अरविंदजी के संपादन काल वाली माधुरी के सामाजिक दायित्व पर रोशनी डालता है और किस तरह अरविंदजी ने अपनी पत्रिका को कलात्मक फ़िल्मोँ और साहित्य सिनेमा संगम की सेवा मेँ लगा कर भी सफलता हासिल की।
शब्दवेध: शब्दों के संसार में सत्तर साल– एक कृतित्व कथा अरविंद कुमार
पुस्‍तक : शब्दवेध: शब्दों के संसार में सत्तर साल– एक कृतित्व कथा
लेखक : अरविंद कुमार
मूल्य रु. 799.00
प्रकाशक: अरविंद लिंग्विस्टिक्स, ई-28 प्रथम तल, कालिंदी कालोनी, नई दिल्ली 110065
संपर्क:
मीता लाल
मो. 09810016568
ईमेल: lallmeeta@gmail.com

शब्दवेध की अंतिम रचना है प्रमथेश चंद्र बरुआ द्वारा निर्देशित और कुंदन लाल सहगल तथा जमना अभिनीत देवदास का समीक्षात्मक वर्णन। यह एक ऐसी विधा है जो अरविंदजी ने शुरू की और उन के बंद करने के बाद कोई और कर ही नहीँ पाया। देवदास फ़िल्म का उन का पुनर्कथन अपने आप मेँ साहित्य की एक महान उपलब्धि है। यह फ़िल्म की शौट दर शौट कथा ही नहीँ बताता, उस फ़िल्म के उस सामाजिक पहलू की ओर भी इंगित करता है। देवदास उपन्यास पर बाद मेँ फ़िल्म बनाने वाला कोई निर्देशक यह नहीँ कर पाया। उदाहरणतः ‘पूरी फ़िल्‍म मेँ निर्देशक बरुआ ने रेलगाड़ी का, विभिन्‍न कोणों से लिए गए रेल के चलने के दृश्यों का और उस की आवाज़ का बड़ा सुंदर प्रयोग किया है। पुराने देहाती संस्‍कारों में पले देवदास को पार्वती से दूर ले जाने वाली आधुनिकता और शहर की प्रतीक यह मशीन फ़िल्‍म के अंत तक पहुँचते देवदास की आवारगी, लाचारी और दयनीयता की प्रतीक बन जाती है।

अनुराग
433, नीति‍ख्ंड-3, इंदि‍रापुरम-201014 गाजि‍याबाद
मोबाइल-9871344533
ईमेल: anuraglekhak@gmail.com

००००००००००००००००

हिंदी कहानी — जव़ाब दो मित्र — राजेश झरपुरे Rajesh Zarpure


हिंदी कहानी — जव़ाब दो मित्र — राजेश झरपुरे Rajesh Zarpure

Hindi Kahani Jawab do mitr

— Rajesh Zarpure


जव़ाब दो मित्र ... — राजेश झरपुरे


वह आज फ़िर दयनीय हालत में खड़ा था। उसके चेहरे पर पहले से अधिक कातरता झलक रही थी। वह चुप था। मैं उपत कर बात नहीं करना चाहता था। उसने उद्योग में लागू आचार संहिता का उल्लघंन किया था। इसके बावजूद वह निर्दोष होने के प्रबल भाव के साथ मेरे सामने खड़ा था। एक अज़ीब तरह का आत्मविश्वास लिये, जिसे अकड़ तो कदापि नहीं कहा जा सकता था। इस तरह वह पहले भी कई बार मेरे सामने खड़ा रहा। मैंने अब तक हर सम्भव उसकी मदद की लेकिन उसकी सर्विस फ़ाईल गले तक भर चुकी थी। उसकी नौकरी को अनुशासनात्मक कार्यवाही के चक्र से बचा पाना मेरे वश में नहीं था। इसके पहले भी सारे सबूत उसके विरूद्ध रहे, लेकिन मैं मानवीय पहलुओं के आधार पर उसे बचाता रहा। इस बार मैं ख़ुद को असहाय पा रहा था। मेरी निर्बलता के कारण वह अपनी नौकरी से हाथ धो बैठे... मैं यह भी नहीं चाहता था। आज के समय में सरकारी नौकरी पर होना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। यह उपलब्धि उस समय और दुगुनी हो जाती है, जब यह बिना किसी योग्यता और आर्हताओं के प्राप्त हो जाये। मात्र... सरकारी सेवक की मृत देह के आश्रित पुत्र होने की हैसियत से... यानि अनुकम्पा नियुक्ति।

अनुकम्पा में संघर्ष और त्याग नहीं होता पर उसने ज़िम्मेदारी का ईमानदारी से वहन कर इस नौकरी का मान रखा था। खूब मेहनत करता। अपने काम के साथ, सहकामगार के काम भी निपटा देता। फ़ेस वर्कर था। फ़ेस में काम करने से सभी खनिक बचना चाहते। उसने अपने आपको बचाने की कोशिश नहीं की। जोख़िम उठाने से कभी पीछे नहीं रहा। सामान्य खनिक होने के बाव़जूद कोयला खान की सुरंग की छाती में पूरी निडरता से ड्रील मशीन से होल दाग देता। अकेले अपनी मजबूत बांहों से छानी (सुरंग की छत) को धसने से बचाये रखता। साईट वाल की छटाई इस तरह करता मानो किसी कटर मशीन की छटाई हो। सुपरवाईज़र्स और अधिकारी उसे सपोर्ट मास्टर कहते। इतनी सारी खूबियाँ होने के बावज़ूद उससे एक गलती अकसर हो जाया करती। वह अपनी नौकरी से महीने में एक दो बार अनाधिकृत रूप से अनुपस्थित रहता। उसकी इसी गंदी आदत के कारण अधिकारी उससे चिढ़ने लगे थे। खदान में जब उसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत होती वह अनुपस्थित पाया जाता। उद्योग में लागू आचार संहिता के अन्तर्गत यह एक गम्भीर दुराचार था, जिसके तहत उसे आदतन अपनी ड्यूटी से अनधिकृत तौर पर अनुपस्थित रहने के कारण सेवाच्युत किया जा सकता था.

राजेश झरपुरे

सम्पर्कः
नई पहाड़े कालोनी,
जवाहर वार्ड,
गुलाबरा,
छिन्दवाड़ा
(म.प्र.480001)
मोबाइल 9425837377
ईमेल: rajeshzarpure@gmail.com

“भाई मनकू! इस बार तुम्हें सेन्ट्रल टेªड यूनियन लीडर ही बचा सकता है। वह भी तब, जब वह औद्यौगिक सम्बन्धों की आड़ में अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों को भुनाये। उसके बाद भी तुम आरोपित कामगार ही रहोगे। बस! तुम्हें सुधरने का एक मौका और मिल जायेगा।”

मैंने उसे समझाते हुए कहा “यह कोई पहला-दूसरा आरोप नहीं हैं। पूरी सात चार्जशीट आपको जारी हो चुकी है। सातों में एक ही आरोप हैं ’...बिना किसी पूर्व सूचना के या सक्षम अधिकारी से अवकाश स्वीकृत कराये बगैर या बिना किसी संतोषप्रद कारणों से अपनी ड्यूटी से अनाधिकृत रूप से अनुपस्थित रहना।’

और दूसरा ...

’नियोक्त की सम्पत्ति या चालू कार्य में जानबूझकर व्यवधान उत्पन्न करना।’

यधपि इस तरह के कृत में दूसरा आरोप लगाने का कोई तुक नहीं होता लेकिन मैनेजमेन्ट पहले के समर्थन में यह दूसरा आरोप भी जड़ देती। पहला सिद्ध हो जाने पर दूसरा स्वयं सिद्ध हो जाता। कामगार जब अपीली प्राधिकरण अधिकारी से अपील करता तो दूसरे वज़नदार आरोप का सहारा लेकर उसकी याचना ख़ारिज कर दी जाती। मैनेजमेन्ट किसी कामगार को जब बाहर का रास्ता दिखाती तो इसी तरह घेरकर प्रमाणित स्थाई आदेश कानून के अन्तर्गत ले जाती... यह मैं अच्छी तरह जानता था। हालाँकि वह जानबूझकर आदेश का उलंघन करने वालों में से नहीं था।

वह बीमार नहीं रहता था और न ही किसी पारिवारिक सदस्य की बीमारी में तीमारदारी करता पाया जाता। न बाहर गाँव में किसी सामाजिक कार्य से गया होता और न ही घर में किसी काम में व्यस्त होता। बस! गुमशुम सा घर के आसपास धूमता पाया जाता। उन दिनों उसके चेहरे पर व्यग्रता होती और घर की बात घर से लगे घर के कानों तक भी न पहुँच पाये जैसी सतर्कता और सावधानी जैसा कुछ। बाकी जो था वह घर के पर्दे में ही छुपा रहता।

घर में मेडिकल अनफिट हुए पिता के गाली गलौच करने, बर्तनों को फेंकने और उसकी पत्नी के चीखने की आवाज़ अवश्य सुनाई देती पर सब अस्पष्ट होता। वह इन सबके बीच ड्यूटी से अनुपस्थिति और घर में अपनी उपस्थिति को बेहद मौन तरीके से बनाये रखने की कला में माहिर हो चुका था। अलबत्ता उसकी पत्नी के विरोध के स्वर अवश्य सुनाई देते पर कारण कभी स्पष्ट न हो सका। वह सदैव उसके विरोध को अपने मौन से जीत लेता था।

वह न कमजोर था, न अलाल। बुरी लत भी नहीं थी- जैसी कोयला खान श्रमिको को होती हैं। शराब,जुआ-सट्टा,औरतबाजी जैसी बुराईयों से तो वह कोसों दूर था। स्वास्थ्य सम्बन्धित कोई परेशानी नहीं थी। फिर... गैर हाज़िर रहने का क्या कारण हो सकता है, मेरी समझ से परे था। बिना जाने-समझे भी मुझे लगता कि हो न हो वह किसी बात को लेकर परेशान है और अपनी समस्या किसी को बताना नहीं चाहता। मैं नहीं चाहता था कि सच्चाई को जाने बिना उसके विरूद्ध कोई कठोर अनुशासनात्मक कार्यवाही हो। इसीलिए सदैव उसे बचाता रहा। वह बचता रहा पर अब उसका बचना मुश्किल लग रहा था।

वह चुपचाप खड़ा था।

“एक नहीं पूरे सात बार तुम्हें माफ़ किया जा चुका हैं। क्या आठवीं बार भी तुम इस तरह उम्मीद रखते हो।” मैंने आरोप पत्र थमाकर दूसरी कार्बन प्रति में हस्ताक्षर लेते हुए उपत कर पूछा।

पहले उसने भरपूर याचना भरी दृष्टि से मेरी ओर देखा फिर हस्ताक्षर कर आरोप पत्र की कापी ले ली।

उसकी चुप्पी के पीछे ढेर सारी असन्तुष्टि, व्यग्रता और चिन्तायें झलक रही थी, जो चिता पर जाकर ही शान्त होगी... यह मैंने उसकी आँखों में देखकर जाना।

“तुम तीन दिनों के भीतर इसका जव़ाब दे दो। डी.ई.(डोमैस्टिक ऐनक्काईअरी) होगी। अब तुम्ही जानो, समझो...क्या होगा?”

वह चुप खड़ा रहा। बस! मेरी तरफ़ अपलक देखता हुआ।

“जाओ! जव़ाब बनाकर लाओ।” मैंने पुनः कहा।

वह टस से मस नहीं हुआ।

उसे वहाँ से हिलता हुआ न देख, मैंने स्पष्ट कहा...

“नहीं ! अब बहुत हो गई। पूरे सात बार बचा चुका हूँ तुम्हें। इस बार मेरे बस की बात नहीं। तुम किसी बड़के नेता को पकड़ो। वही तुम्हारी कुछ मदद कर सके।”

वह निशब्द खड़ा रहा।

एक शब्द तक उसके होठ पर नहीं आया। जबकी शब्द और विचारों की उसके अन्दर जंग चल रही थी। रक्षा और सुरक्षा के भाव से दूर वह मेरे सामने से हिला तक नहीं।

“भाई मनकू ! मैं तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं कर पाऊँगा। तुम्हें बचाना अब मेरे वश में नहीं रहा। हबिचूअल ऐबसिण्टीज़म का मामला है। पुराने सभी मामले प्रूवड हैं। अब तो बस उनका रिफरेन्स देकर पनिशमेंट’ अॅवार्ड करना हैं। बड़े से बड़ा अधिकारी और बड़े से बड़ा नेता भी चाहकर कुछ नहीं कर पायेगा। फिर भला मैं किस खेत की मूली हूँ। मैं तो एक अदना सा कारकुन और ट्रेड यूनियन का छोटा सा सिपाही हूँ...।” मैंने स्पष्ट करते हुए कहा।

इस बार भी वह चुप खड़ा सुनता रहा लेकिन कहा कुछ नहीं।

मुझे लगा इस बार वह पहले से ज़्यादा चुप हैं। उसकी आँखों में कोयला खान की अंधी गहरी सुरंग का अंधेरा उतर आया हो।

“जाओ भाई मनकू।

मुझसे नहीं होगा। जानबूझकर किसी की नौकरी चली जाने का गुनाह मैं अपने सिर पर नहीं ले सकता। जाओ... और किसी अच्छे से नेता से जव़ाब बनवाकर ले आओ। और किसी बड़े नेता को ही इन्क्कारी में अपना को-वर्कर रखना। शायद वह तुम्हें बचा सके। तुम्हें दोषमुक्त करा सकूँ ऐसी सामर्थ्य अब मुझमें नहीं। जाईये... जव़ाब बनवाकर लाइये। मैंने एकदम बेरुखी से कहा।

उसके होंठ बुदबुदाये पर शब्द बाहर नहीं आये।

“ जाइये...”

मैंने झुंझलाकर कहा और टेबल पर रखी फ़ाईल में उसको अभी-अभी जारी की आफ़िशियल चार्जशीट की कापी नत्थी करने लगा।

“जव़ाब...!”

उसके होंठ फड़फड़ाये पर इस एक शब्द के बाद, वह दूसरा शब्द नहीं बोल पाया।

“हाँ! जव़ाब..!!

तुम्हें बचाने के लिए मैं मानवीय पक्षों का झूठमूठ हवाला देता रहा। मुझे लगा तुम सुधर जाओगे। तुम नहीं बदले। तुम्हारे नहीं बदलने मैं भी तुम्हारी तरह झूठी वकालत करने का आरोपी बन चुका हूँ। आपको चार्ज शीट मिल चुकी हैं। जाइये और जव़ाब बनवा कर लाइये। फिर जो हो... आपकी किस्मत।” इस बार मैंने लगभग चिड़ते हुए कहा।

“ जव़ाब...!

जव़ाब तो एक ही है।”

कुछ रूक कर उसने कहा...

“ जव़ाब...

मेरा अनुकम्पा जीवन हैं।

“ जव़ाब...

मेरी अनुकम्पा नौकरी हैं...।

पर इस तरह मैं जव़ाब नहीं दे पाऊँगा।

वह जो अब तक चुप खड़ा था, एकाएक फूट पड़ा। वह अनुकम्पा में अपने पिता के मेडीकल अनफिट होने पर ड्यूटी लगा था। जनरल मजदूर था पर शिक्षित। सब शिक्षित को नौकरी नहीं मिलती और सब अशिक्षित को मजदूरी। यही कारण था कि शिक्षित बेरोजगार अनुकम्पा में मिलने वाली सरकारी मजदूरी को भी राजी-खुशी करने के लिए तैयार हो जाते। और तो और अपने सेवाकाल के अंतिम दिनों में कोयले की महीन धूल खांसते-खखरते, लंगड़ाकर मुश्किल से ड्यूटी कर पाते बूढ़े खनिक पिता के स्वास्थ्य में अनुकम्पा नियुक्ति की तलाश लेते कुछ ऐसे होनहार बेरोजगार पुत्र भी समाज में नज़र आ जाते हैं। अंधेरा भूगर्भ में भी हैं और पृथ्वी की सतह पर भी। हम इससे बच नहीं सकते।”

“क्या मतलब..?”

मैंने आश्चर्य से पूछा।

“यही तो वह शब्द है सर, क्या मतलब... जिसका अर्थ खोजते-खोजते मैं पगला गया हूँ। पागल आदमी किसी की हत्या भी कर सकता हैं। पर मैंने नहीं किया। यह मेरा अपराध हैं। इस अपराध के लिए मैं हँसते-हँसते फाँसी चढ़ने को तैयार हूँ। दे दीजिये मुझे फाँसी...।” उसके चेहरे पर एक तरह की कठोरता आ चुकी थी जिसके पीछे आक्रोश और प्रतिहत की धधकती हुई ज्वाला को मैं स्पष्ट महसूस कर सकता था।

“तुम क्या कह रहे हो... मेरी समझ से परे हैं। आप जाइये... और जव़ाब बनाकर लाइये।”

“जव़ाब...

जव़ाब तो आपको ही ढूँढना हैं-सर!

आप हमारी यूनियन के नेता हैं और कार्यालय प्रधान भी। आप ही ने हमें मेम्बर बनाया हैं। अपने मेम्बर के लिए जव़ाब ढूँढ़ने की ज़िम्मेदारी भी आप की है। आपका गलत-सही जव़ाब ही मेरा जव़ाब होगा। फिर चाहे मेरी नौकरी चली जाये, मुझे रत्ती भर भी रंज नहीं होगा। अब तक मुझे आपके जव़ाब ने ही बचाया है। मैं बचा रहा। मुझे विश्वास है इस बार भी मैं बच जाऊँगा।” उसने अपनी बात दृढ़ता से कहा लेकिन विनम्रता का साथ नहीं छोड़ा।

उसका कहना उचित था। वह मेरी ही यूनियन का मेम्बर था। मैंने ही उसे सदस्य बनाया था। उसके प्रति मेरी जिम्मेदारी थी। मैं अपने कर्तव्य के निर्वाहन से चूक कैसे रहा। मुझे अफ़सोस हुआ।

“हाँ मनकू भाई! तुम सही कह रहे हो पर मजबूर हूँ। मैं तुम्हारे लिए मानवीय पक्षों के झूठ इकठ्ठा करते-करते ख़ुद अपनी ही निगाह में झूठा साबित हो चुका हूँ। औरों की निगाह से गिरकर उठा जा सकता है। स्वयं की निगाह से गिरा हुआ आदमी कैसे उठ सकेगा... कभी तुमने सोचा हैं? वैसे भी अब मेरे पास तुम्हें बचाने के लिए कोई झूठ नहीं बचा। कहीं इस तरह कोई और नया झूठ मिल सके, जैसी उम्मीद भी नहीं। अब तुम्हीं बताओ...? मैं क्या कर सकता हूँ..?” मैंने अपनी झुंझलाहट पर नियंत्रण पा लिया था।

“ अनुकम्पा नियुक्ति...

 अनुकम्पा जीवन... यही हैं, मेरा जव़ाब।

बस! इससे ज़्यादा मैं कुछ नहीं बता पाऊँगा सर।”

उसके चेहरे पर विवशता के काले बादल छा गये और उसने अपनी गर्दन झुकाकर नज़रें नीचे कर ली।

मुझे उस पर दया आ रही थी और क्रोध भी। उसके गोलमोल रहस्मयी जव़ाब से मेरा सिर चकराने लगा।

“...यह क्या अनुकम्पा, अनुकम्पा लगा रखा हैं। जो भी बात हैं साफ़-साफ़ कहो? यदि सूद पर किसी गुंडे से पैसा उठाया हो और वह मारने-पीटने की धमकी देता हो तो बताओ ? यूनियन तुम्हारे साथ है, वह निपटेगी। यदि कोई बीमारी हो तो खुलकर बोलो यूनियन तुम्हें बढ़िया अस्पताल में नागपुर रेफ़र करवा देगी। आख़िर तुम्हारे एब्सेन्ट करने की कोई तो वज़ह होगी ..?”

“तबीयत तो मेरी बिल्कुल ठीक हैं सर। सूदखोरों की जात में मुझे जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। दुश्मन बाहर कोई नहीं। अगर होता तो मैं पहली ही बार उससे निपट लेता। दुबारा फिर ऐसी गलती नहीं होती। दुश्मन तो मेरी अनुकम्पा नियुक्ति हैं। इस अनुकम्पा नौकरी ने मेरे पूरे जीवन को दयनीय बना दिया।” बेहद रूँआसे शब्दों में उसने कहा।

“अनुकम्पा... अनुकम्पा... अनुकम्पा...!

लगता है तुम मुझे पागल करके छोड़ोगे। आख़िर अपनी बात साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते?” मेरा गुस्सा अब नियंत्रण से बाहर हो चुका था। उसे काबू कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं जान पड़ रहा था।

“आप क्रोधित न हो सर। पूरे झगड़े की जड़ यहि अनुकम्पा नियुक्ति हैं। आप सच सुनना ही चाहते है तो सुने... अनुकम्पा नियुक्ति ने मेरे विरोध करने की शक्ति को मुझसे छीन लिया। मैं गलत बातों का विरोध नहीं कर पाता और सही बातों के समर्थन में मेरे हाथ नहीं उठते। मैं पहले दयनीय हुआ फिर अपंग होकर रह गया।” कहते हुए उसने एक गहरी साँस भरी और पुनः अपनी बात पर आ गया “...पिता जब से मेडीकल अनफिट हुए घर में ही रहते हैं। उनकी जगह मुझे अनुकम्पा नौकरी मिली। दारू तो वह शुरू से ही पीते हैं। शायद हमारे जन्म से भी पहले। फंड, ग्रेच्युटी का लाखों रूपये धरा हैं उनके पास। किसी चीज़ की कोई कमी नहीं। बस! रात दिन दारू के नशे में मस्त रहते हैं। घर में उनका ही साम्राज्य हैं। बहुत उत्पात मचाते हैं। सभी को हलाकान कर रखा हैं। माँ पहले ही उनसे तंग आकर चलती बनी। वह तो हमारा मुँह देखकर जैसे-तैसे हमें बड़ा करते तक जी गई। पर हमारा जी पाना मुश्किल हो रहा हैं। माँ के जाने के बाद भी उनका स्वभाव नहीं बदला। अब तो पहले से ज़्यादा उग्र और दुष्कामनाओं से भर गये हैं... दिन-रात शराब के नशे में जो रहते है। वे कहते है...सब मेरा हैं। तेरा कुछ नहीं। मैंने कभी विरोध नहीं किया। कोयले की तरह हमारे पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्ध काले पड़ चुके हैं। हमारे संस्कारों के मुँह पर कालिक पुत चुकी हैं। मान मर्यादा के मायने बदल गये। बूढ़े लोगों का चाल चलन अब पहले जैसा नहीं रहा। सगा अब पहले जैसा सगा नहीं रहा। रिश्तेदार मुँह देखी बात करते हैं। हम उन्हें दिन-रात हथेली पर रखते हैं। एक आवाज़ पर पूरा घर दौड़कर उनके सामने खड़ा हो जाता हैं। उसके बाद भी शिकायत और बिना गाली गलौच के बात नहीं करते। ऐसा बुरा कोसते हैं कि घर को घर और परिवार को परिवार कहने में लज्जा आती। घर-परिवार जिसे आदमी अपना स्वर्ग कहता हैं, वही हमारे लिए नरक बन चुका हैं। सच तो यह हैं कि अपनी नौकरी देकर वे हमें तरह-तरह से प्रताड़ित करते हैं। उनकी वांक्षित/अवांक्षित आकांक्षायें हमें जीने नहीं देती...” कहते हुए उसने पुनः उसाँस भरी और चुप हो गया।

 इस बार मैंने घूरकर उसको देखा पर बोला कुछ नहीं। मैं जानता था वह पढ़ा-लिखा हैं। आज नहीं तो कल इसी उद्योग में किसी अच्छे पद पर होगा, जैसी सम्भावना से मैंने कभी इंकार नहीं किया था। लेकिन इस तरह वह भेजा पका देगा... इसकी मैंने कल्पना नहीं की थी। मुझे चुप और परेशान देख उसने अपनी बात जारी रखी “...लोग कहते हैं वृद्धावस्था में लोग जिद्दी हो जाते हैं... मैंने मान लिया। लोग कहते हैं...इस उम्र में जीवन साथी के बिछड़ जाने से व्यक्ति भरे-पूरे परिवार में भी एकाकी महसूस करने लगता हैं। उदास और गुमशुम हो जाता हैं... मैंने यह और वह सब मान लिया जो लोगों ने कहा। लेकिन वह उन सब मान्यताओं के बाहर ही निकले। शराब को अपने जीवन का सहारा बनाये बैठे पिता के अन्दर लगातार कुत्सित भावनायें सिर उठाने लगी। मैं उनका बेटा हूँ। सब सहन कर सकता हूँ। मेरी पत्नी मुझसे बंधी है। वह भी मेरे लिए और मेरी मान-मर्यादा के लिए सब कुछ सहन कर लेती हैं। लेकिन जब पिता जैसे ससुर के हाथ कुत्सित भावना से उसकी अस्मिता की ओर बढ़े तो वह कैसे चुप रह सकती हैं..? कैसे उनकी इज़्जत कर सकती हैं..? और कैसे उनकी सेवा सुश्रूर्षा कर सकती हैं..? आप ही बताये सर..? इस अनुकम्पा नौकरी ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। इससे तो अच्छा था मेरी नौकरी ही नहीं लगती। नौकरी नहीं लगती तो शायद अभी तक शादी भी नहीं होती..? अब आप ही बताये... पहले मैं फांसी पर लटक जाऊँ या पहले अपने दरूयें पिता को फांसी पर लटका दूँ...? या अपने घर में अपनी ही पत्नी की असुरक्षित देह को मिट्टी का तेल डालकर आग लगा दूँ। बस! यही वे जव़ाब हैं, जिनमें से किसी एक सही जव़ाब को चुनने में मुझसे एब्सेन्ट हो जाती हैं। इस बार भी हुई लेकिन जव़ाब नहीं मिला। कमजोर आदमी हूँ न और डरपोक भी। अब आप ही जव़ाब दो सर...? मैं क्या जव़ाब दूँ..?” कहते हुए उसने अपनी तीक्ष्ण नज़रें मेरे चेहरे में घोंप दी।

मैं उसके इस अप्रत्याशित जव़ाब से सिहर उठा। मुझे लगा कोयला खान का काला घना अंधेरा मेरे दिमाग में आकर पसर गया। भूगर्भ की काली वजनी सिल्ली (चट्टान) धड़ाम से मेरे सिर पर आकर गिर पड़ी। मैं कराह भी नहीं सका।

मनकू के शब्द मेरे दिमाग में घंटे की टन, टनाहट की तरह गूंज रहे थे...

“ अब तुम ही जव़ाब दो सर..?”

टन... टन... टन... टन...

“ तुम ही...?

टन... टन... टन...

जव़ाब...

टन... टन...

मेरा दिमाग फटा जा रहा था। घंटे की टनटनाहट सहन करना मेरे बस में नहीं रहा तो दोनों हाथ कान पर रखकर मैं चीख पड़ा...

“ नहीं...!”

पर मेरा चीखा जाना किसी ने नहीं सुना।

मैंने भी नहीं।

मैं अब तक अपने कोयला खदान समाज में व्याप्त बहुत सी बुराईयों को देख-सुन चुका था पर अब जो सुना उसका जव़ाब उसे नहीं मुझे देना था और शायद आपको भी..?

“जव़ाब दो मित्र..?
००००००००००००००००

मालिनी अवस्थी जी को पद्म श्री की बधाई @maliniawasthi


मालिनी अवस्थी जी को पद्म श्री की बधाई

आपने हमारे लोक का सम्मान बढ़ाया है मालिनीजी


अवनीश अवस्थीजी मालिनी अवस्थी malini awasthi with husband awanish awasthi



असली सफलता और उसकी ख़ुशी तब और बढ़ जाती है जब आपका सारा परिवार आपकी सफलता में भागीदार हो. अवनीश अवस्थीजी ने जिस तरह पत्नी मालिनी अवस्थी का साथ दिया है वह अपने में एक विरल उदाहरण है.

मालिनीजी, उनके परिवार और उत्तर प्रदेश के हम-सब को उनकी इस अनमोल ख़ुशी की बधाई .

भरत तिवारी
  
००००००००००००००००

घोड़ा की टांग पे, जो मारा हथौड़ा — आरिफा एविस Arifa Avis #Achhedin


व्यंग —घोड़ा की टांग पे, जो मारा हथौड़ा Arifa Aris' satire

व्यंग —घोड़ा की टांग पे, जो मारा हथौड़ा

Arifa Aris' satire 


बचपन में गाय पर निबन्ध लिखा था। दो बिल्ली के झगड़े में बन्दर का न्याय देखा था। गुलजार का लिखा गीत ‘काठी का घोड़ा, घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा’ भी मिलजुलकर खूब गाया था। लेकिन ये क्या घोड़े की दुम पर, हथौड़ा नहीं मारा गया बल्कि उसकी टांग तोड़ी गयी। देखो भाई दाल में कुछ भी काला नहीं है, पूरी की पूरी दाल सफ़ेद है।
बहुत दिनों से महसूस हो रहा है कि प्राचीन किस्सागोई और प्राचीन प्रतीक अब गुजरे ज़माने की बात नहीं है। ये तो भला हो हमारे बुजुर्गों का जिनकी कही हुई बात समय-समय पर याद आ जाती है कि बड़ों की कही हुई बात और घर में रखी हुई वस्तु, कभी न कभी काम आ ही जाती है। इसीलिए आज फिर से प्राचीन इतिहास से घोड़े को निकाला गया है। देखो भाई जब वर्तमान में कोई हीरो न हो जो अपने समय का प्रतिनिधित्वकर सके तभी तो इतिहास से आपने अपने गिरोह के लिए ऐतिहासिक महापुरुष या प्रतीक तो लाने ही पड़ते हैं ।

मुझे ऐसा लगता है कि इतिहास में दबे उन सभी पात्रों और प्रतीकों को निकलने का सही समय आ गया है। जब गाय माता, भारत माता की जय और देशद्रोह जैसे मुद्दे फीके पड़ने लगेंगे तो घोड़े को बाहर निकालना तो पड़ेगा ही। आप जानते ही हैं कि यह साधारण घोड़ा नहीं है- जिताऊ घोड़ा है, कमाऊ घोड़ा है, राज्य को जीतने वाला घोड़ा है। गाय माता को अपने हाल पर इसलिए छोड़ दिया गया है ताकि उसको जब चाहे घर लाया जा सके।
आरिफा एविस Arifa Avis

आरिफा एविस 

हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार में  स्नातक
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, पुस्तक समीक्षा, कविता का प्रकाशन
ईमेल: arifa.avis@gmail.com

घोड़े को तभी छोड़ा जाता है जब दिग्विजय करनी हो, अश्वमेघ करना हो। अपनी पताका को लहराना हो। सब जानते हैं कि जब घोड़ा दौड़ता है तो उसके साथ गधे, जेबरा, टट्टू और खच्चर भी दौड़ते हैं। रेस में जीतता घोड़ा ही है। घोड़े को जिताने के लिए घुड़सवार क्या नहीं करता, सालभर उसकी सेवा करता, समय आने पर रेस में लगा देता है। खूब पैसा लगवाया जाता है। पैसा लगाने वाले चूँकि रेस में दौड़ने वाले सभी घोड़ों पर पैसा लगाते हैं। हारे या जीते, महाजन को सभी से भरपूर पैसा बनाने का मौका मिलता है। समय समय पर रेस में दौड़ने वाले घोड़ों को सेना में भर्ती कर लिया जाता है। लड़ाई लड़ने के लिए भी और जब राजा हार रहा हो तब भी उसी घोड़े का इस्तेमाल होता है।

घोड़ा अश्वमेघ के लिए छोड़ा जा चुका है। अश्वमेघ यज्ञ की पूरी तयारी हो चुकी है। अश्व नदी के तट पर अश्वमेघ नगर बसाया जा चुका है। बस नगर के राजा का घोषित होना बाकी है। पूरी दुनिया यह अच्छी तरह से जानती है अमृत मंथन के दौरान निकले चौदह रत्नों में से एक उच्च अश्व घोड़ा भी निकला था। देहरादून में जो घोड़ा अश्वमेघ के लिए छोड़ा गया है। वह भी अमृत के समान है। उसके विजयी होने का मुझे लेश मात्र भी संशय नहीं है।

चूँकि घोड़े कभी-कभी बेलगाम भी हो जाते है शायद इसीलिए घोड़े की टांग तोड़ी गयी है। भूल चूक होने पर लंगड़े घोड़े की दुहाई दी जा सके। इसका जानवरों की संवेदना से बिलकुल भी न जोड़ा जाये। कुत्ता, चूहा, हाथी बैल आदि भी अब अपने अच्छे दिन आने की बाट जोह रहे हैं। मुझे यकीन है, अगर सब कुछ ठीक रहा तो आने वाले दिन इनके भी अच्छे ही होंगे।
००००००००००००००००

लोकनायक और संपूर्णक्रांति की प्रासंगिकता — डॉ.ज्योतिष जोशी #BJPkillsDemocracy


जयप्रकाश पहले आम चुनाव के बाद से ही मानने लगे थे कि राजसत्ता चाहे जिस रूप हो, वह कल्याणकारी नहीं हो सकती; क्योंकि उसमें जनता की भागीदारी अप्रभावी रहती है...

— डॉ. ज्योतिष जोशी

लोकनायक और संपूर्णक्रांति की प्रासंगिकता—डॉ.ज्योतिष जोशी
Jayaprakash Narayan, at a rally in 1975. Photo: Frontline / The Hindu 



लोकनायक और संपूर्णक्रांति की प्रासंगिकता

— डॉ.ज्योतिष जोशी

स्वाधीनता प्राप्ति और देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना के बाद महात्मा गाँधी की परम्परा को विकसित करने में जिन नेताओं की भूमिका को सर्वाधिक याद किया जाता है, उनमें जयप्रकाश नारायण प्रमुख हैं। सत्ता से दूरी बनाकर देश के सर्वांगीण विकास और स्वराज के संघर्ष में निश्चय ही राममनोहर लोहिया का स्थान अन्यतम है, पर जयप्रकाश नारायण, महात्मा गाँधी के बाद अकेले ऐसे नेता के रूप में याद किये जाते हैं जिन्होंने अपनी ऐतिहासिक भूमिकाओं का निर्वाह कर देश की लोकतांत्रिकता की रक्षा की। गाँधी के जीवित रहते अनेक मुद्दों पर उनसे असहमत रहते हुए जयप्रकाश ने राज और समाज दर्शन के जिन विचारों को बहस का विषय बनाया उससे स्वयं गाँधीजी बेहद प्रभावित थे। भारतीय समाज और दर्शन पर उनके विचारों से वे इस कदर प्रभावित थे कि उन्होंने सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा भी की थी-‘समाजवाद के बारे में जो जयप्रकाश नहीं जानते, उसे इस देश में दूसरा भी कोई नहीं जानता’

A few days before the Emergency was declared, Jayaprakash Narayan led an anti-government rally in Patna. He was arrested after the rally | Raghu Rai | The Week
A few days before the Emergency was declared, Jayaprakash Narayan led an anti-government rally in Patna. He was arrested after the rally | Raghu Rai | The Week

स्वाधीनता-संघर्ष में एक क्रान्तिकारी के रूप में जयप्रकाश के काम आज हमें अगर किंवदंती की तरह लगते हैं तो यह उनके उस अदम्य जीवट का उदाहरण हैं जो शायद पीढ़ियों तक हमको चकित करते रहें। हर तरह के राजनीतिक लोभ और लाभ की विकृति से दूर रहकर जयप्रकाश ने अगर अपने को ‘दूसरा गाँधी’ और ‘लोकनायक’ के रूप में प्रतिष्ठित किया तो इसमें उनकी भूमिका के दो रूप स्पष्ट दिखते हैं। पहला रूप एक ऐसे अहिंसक सत्याग्रही का है जो देश को गाँधी के स्वराज तक ले जाने के दायित्व का हर संभव निर्वाह करता है तो दूसरा रूप ऐसे व्यावहारिक विचारक का है जो समाजवादी संकल्पों के माध्यम से देश में आमूलचूल परिवर्तन लाना चाहता है।

जयप्रकाश के अहिंसक सत्याग्रही का रूप देश ने देखा है। स्वाधीनता संघर्ष में उनके अप्रतिम योगदान को कई स्तरों पर परखा भी गया है। अमेरिका से समाजशास्त्र में एम.ए. की शिक्षा लेकर जब वे 1929 में भारत आये तो पहली बार वर्धा जाकर गाँधीजी से मिले थे। इसके पहले वे 18 वर्ष की अवस्था में अमेरिका जाने से पूर्व 1920 में असहयोग आन्दोलन में भाग ले चुके थे। गाँधीजी से मिलने के बाद 1930 में कांग्रेस के मजदूर प्रकोष्ठ का दायित्व संभालने के बाद उनकी सक्रियता बढ़ती गई और इस अवधि में जेलों में रहते हुए उन्होंने समाजवादी चिन्तन की तरफ रूख किया। इसके बाद उनकी समझ को देखते हुए गाँधीजी ने उन्हें कांग्रेस के समाजवादी प्रभाग का महामंत्री बनाया। इस दौरान उनका स्वाधीनता-संघर्ष और लगातार उत्पीड़न साथ-साथ चलता रहा। 8 नवम्बर, 1942 की उस ऐतिहासिक घटना को कौन भूल सकता है जब वे हजारीबाग केन्द्रीय कारागार की 17 फुट ऊँची दीवार को फाँदकर निकल गये थे। इसके बाद उन्होंने गोपनीय ढंग से अंग्रेजी सरकार से लड़ाई लड़ी। नेपाल जाकर ‘आजाद दस्ते’ का गठन करना और अज्ञातवास में रहते हुए अंग्रेजी शासन के विरुद्ध मोर्चा लेना, उन्हें एक ऐसे नायक के रूप में स्थापित करता है जो देश के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करता है। स्वाधीनता प्राप्ति और बाद के घटनाक्रमों में जयप्रकाश का व्यक्तित्व निरंतर उभरता गया। गाँधीजी के देहावसान के बाद जयप्रकाश ने अपने को अधिक उत्तरदायी व्यक्ति के रूप में ढाला और देश को अपने समाजवादी विचारों के अनुकूल बनाने की कोशिश की। पचास के दशक में आई पुस्तक ‘राज्य-व्यवस्था की पुनर्रचना
में भी वे राष्ट्र के समतामूलक आदर्श को उन प्रजातांत्रिक मानकों में देखते है जिन पर सत्ता का नहीं, जनता का अधिकार होता है। जवाहरलाल नेहरू की नीतियों से असहमति के कारण ही उन्होंने केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होना स्वीकार नहीं किया। सत्ता को अपने स्वभाव के विपरीत मानकर ही उससे दूरी बनाई। वे सही अर्थों में गाँधी के उस उत्तराधिकार को मानते थे जिसमें निःस्वार्थ सेवाभाव प्रमुख था। यही कारण है कि 1967 में जब सर्वसम्मति से उन्हें देश के राष्ट्रपति पद पर बैठाने की बात आई तो उन्होंने इंकार करते हुए जो आदर्श प्रस्तुत किया, उसकी मिसाल खोजना मुश्किल है।

लेकिन सही मायनों में जयप्रकाश की राष्ट्रीय भूमिका 1974 के बिहार आंदोलन के रूप में सामने आई जब उन्होंने कांग्रेसी कुशासन को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया और स्वाधीनता के बाद के सबसे बड़े आंदोलन का नेतृत्व किया। आपात स्थिति का लगना, देशव्यापी अशांति और स्वयं जयप्रकाश के उत्पीड़न के इतिहास से शायद ही कोई हो, जो परिचित न हो। जयप्रकाश का यह लोकनायकत्व था जिसने कांग्रेस के कुशासन से मुक्ति दिलाई और जनता पार्टी का शासन कायम हुआ। यह एक सत्याग्रही के रूप में गाँधी के उत्तराधिकार की कसौटी थी जिस पर जयप्रकाश ने खरा होकर दिखाया। लेकिन उन्होंने सर्वोदय के जिस सम्पूर्ण क्रान्ति का स्वप्न देखा था, वह उनके सत्तालोभी अनुयायिओं के कारण बिखर गया। जनता सरकार की विफलता और उसके नेताओं की पदलिप्सा से क्षुब्ध बीमार जयप्रकाश ने जब 8 अक्तूबर, 1979 को अपनी अंतिम सांस ली थी तब सब तरफ शून्य था-कहीं कोई ऐसी उम्मीद न बची थी जो देश को रौशनी दे सके।

गाँधीजी के वास्तविक उत्तराधिकार को एक सत्याग्रही के रूप में जीते हुए लोकनायक की भूमिका में जयप्रकाश ने सर्वोदय को जिस ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ से जोड़ा और उसे ‘सप्तक्रांति’ का रूप दिया, उसकी प्रासंगिकता पर कभी कोई संदेह न रहा, और न उसको क्रियान्वित करने की क्षमता और विश्वसनीयता पर; जिसे सत्तालोभी नेताओं ने कभी गंभीरता से नहीं लिया-ठीक उसी तरह जिस तरह गाँधीजी अपने विचारों के साथ जानबूझ कर अप्रासंगिक करार दिये गये।

जयप्रकाश के ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का दर्शन विनोबा के सर्वोदय का परिवर्तित दर्शन है जो ‘सप्तक्रांति’ के संकल्पों पर खड़ा है। जयप्रकाश ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा था-‘सम्पूर्ण क्रान्ति और सर्वोदय में कोई अंतर नहीं है, दोनों में भेद है तो सिर्फ इतना कि सर्वोदय अगर लक्ष्य है तो संपूर्ण क्रान्ति एक साधन है।’ यह जीवन में आधारभूत परिवर्तन का एक रूप है जिसके बिना सर्वोदय संभव ही नहीं है। जयप्रकाश की ‘सम्पूर्ण क्रांति’ प्रकारान्तर से गाँधीजी के स्वराज के संकल्पों का व्यवहारिक प्रत्याख्यान है जिसमें सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह बुनियादी रूप में स्थित हैं। लेकिन ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का दर्शन पहले समाज को बदलना चाहता है, उसके बाद वह व्यक्ति में बदलाव का कारण बनता है। इस दर्शन को व्यावहारिक स्तर पर क्रियान्वित करने का विचार जयप्रकाश में तब आया जब उन्होंने देख लिया कि ढाई दशक की स्वाधीनता के बाद भी हम स्वाधीनता को वास्तविक अर्थों में पा सकने में विफल रहे हैं।

Jayaprakash Narayan addresses a rally at Patna's Gandhi Maidan in 1974 | Photo: India Today
Jayaprakash Narayan addresses a rally at Patna's Gandhi Maidan in 1974 | Photo: India Today

अपने समाजवादी विचारों के कारण पहले से ख्यात जयप्रकाश ने कांग्रेस के समानांतर समाजवादी विचारों को हमेशा महत्व दिया और उसे प्रभावी बनाने की लगातार कोशिश की। इसमें कोई दो राय नहीं कि उनके ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के दर्शन में मार्क्सवादी विचारों के साथ-साथ पश्चिमी विचारकों की अवधारणाओं और स्वयं गाँधी-विनोबा के विचारों का समन्वय है। व्यक्ति में परिवर्तन को महत्व देते हुए भी उनका बल सम्पूर्ण सामाजिक परिवर्तन पर था जिससे स्वाधीनता को वास्तविक रूप में पाया जा सके। जयप्रकाश पहले आम चुनाव के बाद से ही मानने लगे थे कि राजसत्ता चाहे जिस रूप हो, वह कल्याणकारी नहीं हो सकती; क्योंकि उसमें जनता की भागीदारी अप्रभावी रहती है। अपने इन्हीं विचारों के आईने में जब उन्होंने देखा कि राजसत्ता आक्रामक तानाशाह की तरह काम करने लगी है जिसमें लोकतंत्र सिर्फ ओट भर है, तो वे उठ खडे़ हुए और उसे उखाड़ कर फेंकने में भी सफल हुए।



उनका ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का दर्शन जिस सप्तक्रांति का संकल्प लेकर चलता है उसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, नैतिक, बौद्धिक और शैक्षिक क्रांति का समग्र दर्शन है। इस दर्शन के जरिये जयप्रकाश पूरे देश में आमूलचूल परिवर्तन चाहते थे जिसमें सामाजिक जीवन का कोई पक्ष अछूता न था। इस सप्तक्रांति में सामाजिक क्रांति समरस समाज का पर्याय रही जो समान भाव से सभी वर्गों और जातियों को देखती है तथा उन्हें बराबर का अधिकार देती है। आर्थिक क्रांति के जरिये वे अर्थोपार्जन, सम्पत्ति पर अधिकार, न्यायसंगत उत्पादन तथा वितरण-व्यवस्था सहित आर्थिक व्यवस्था के हर क्षेत्र में प्रत्येक नागरिक की हिस्सेदारी को सुनिश्चित करते हैं। इसी तरह राजनीतिक क्रांति से उनका आशय यह है कि जनता अपनी सरकार से अधिक प्रभावी हो और राजनीतिक दल सत्ता को लेकर जनता की उपेक्षा न करें। इसी में जनता द्वारा अपने प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार शामिल है जिससे राजनीतिक चेतना निर्मित हो सकेगी। सांस्कृतिक क्रांति के माध्यम से जयप्रकाश देश को सांस्कृतिक रूप से सम्पन्न करना चाहते हैं। जयप्रकाश का स्पष्ट मत था कि बिना सांस्कृतिक क्रांति के हम उस हृदय परिवर्तन की कल्पना नहीं कर सकते जिससे सामाजिक बदलाव संभव हो सके। धर्म की बुनियादपरस्ती को चुनौती देकर यही सांस्कृतिक क्रांति अपने नागरिकों को राष्ट्रधर्म सिखा सकती है। बौद्धिक क्रांति से आशय एक ऐसा समाज बनाना जिसमें वैचारिकता की जगह हो। वे इस प्रसंग में बर्टेण्ड रस्सेल को उद्धृत करते हैं-‘अंततः विचार-शक्ति किसी भी अन्य मानवीय शक्ति से बड़ी होती है।’ इसमें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और एक ऐसे वातावरण का निर्माण प्रस्तावित है जिसमें कला, साहित्य, संस्कृति के विकास का रास्ता प्रशस्त रहे और बौद्धिक वर्ग सतत् जागरूकता के साथ जनता की वैचारिक चेतना को प्रखर बनाये रख सके। जयप्रकाश की शैक्षिक क्रांति सबको शिक्षा का अधिकार देती है और राष्ट्रीय शिक्षा में बुनियादी क्रांति की पैरोकार है। वे ऐसी शिक्षा के पक्षधर हैं जो रोजगार का आधार तो बने ही, देश और समाज के दायित्वों के प्रति सजगता के साथ राष्ट्र-निर्माण का भाव भी विकसित कर सके।

जयप्रकाश की सप्तक्रांति की अंतिम क्रांति नैतिक-आध्यात्मिक क्रांति है। इसमें वे स्पष्ट मानते हैं कि बिना नैतिक हुए न तो हम कृतकार्य हो सकेंगे और न हमारा समाज ही शुद्ध हो सकेगा। नैतिक क्रांति के बारे में जयप्रकाश गाँधीजी के विचारों के साथ हैं जिसमें वे कहते हैं कि नैतिक हुए बिना हम दावा नहीं कर सकते कि ईश्वर हमारे पक्ष में खड़ा है। नैतिकता धार्मिकता का ही पर्याय है जो कभी भी अनुचित, अवांछित और अपवित्र आचरण की छूट नहीं देती।

डॉ.ज्योतिष जोशी

डॉ.ज्योतिष जोशी

साहित्य, कला, संस्कृति के सर्वमान्य आलोचक के रूप में प्रतिष्ठित ज्योतिष जोशी ने आलोचना को कई स्तरों पर समृद्ध किया है। साहित्य इनकी आलोचना का केन्द्रीय क्षेत्रा है, पर कला तथा नाटक-रंगमंच सहित संस्कृति के दूसरे अनिवार्य अनुशासनों पर भी इन्होंने मनोयोग से काम किया है। अपनी सहज प्रवहमान भाषा तथा विवेचन की तार्किक पद्धति के कारण प्रसिद्ध इस आलोचक ने जहाँ आलोचना को सहज-स्वीकार्य बनाया है, वहीं उसे मानवीय विमर्शों का आख्यान भी। अपने महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् का ‘साहित्य सेवा सम्मान’, हिन्दी अकादमी, दिल्ली का ‘साहित्यिक कृति सम्मान’, आलोचना में विशिष्ट योगदान के लिए ‘देवीशंकर अवस्थी’ तथा ‘प्रमोद वर्मा स्मृति सम्मान’ पा चुके ज्योतिष जोशी को अनेक महत्त्वपूर्ण शिक्षावृत्तियाँ भी मिली हैं जिनमें केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी, केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मन्त्रालय, दिल्ली, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्राकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल तथा इंडिया फाउंडेशन फॉर द आर्ट्स, बंगलौर की शिक्षावृत्तियाँ उल्लेखनीय हैं। इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं—सम्यक्, जैनेन्द्र संचयिता, विधा की उपलब्धि: त्यागपत्रा, आर्टिस्ट डायरेक्टरी, कला विचार, कला परम्परा, कला पद्धति, प्रतीक-आत्मक (दो खण्ड), (सम्पादन), जैनेन्द्र और नैतिकता, आलोचना की छवियाँ, उपन्यास की समकालीनता, पुरखों का पक्ष, संस्कृति विचार, साहित्यिक पत्राकारिता, विमर्श और विवेचना, भारतीय कला के हस्ताक्षर, आधुनिक भारतीय कला के मूर्धन्य, आधुनिक भारतीय कला, रूपंकर, कृति आकृति, रंग विमर्श, नेमिचन्द्र जैन (आलोचना), सोनबरसा (उपन्यास) तथा यह शमशेर का अर्थ। हिन्दी अकादमी, दिल्ली के सचिव रह चुके श्री जोशी इन दिनों केन्द्रीय ललित कला अकादमी (संस्कृति मन्त्रालय, भारत सरकार) में हिन्दी सम्पादक हैं।
संपर्क:
डी-4/37,
सेक्टर-15,रोहिणी,
दिल्ली-110089
ईमेल: jyotishjoshi@gmail.com


जयप्रकाश की सम्पूर्ण क्रांति का दर्शन अंग्रेजी में प्रकाशित उनके दो महत्वपूर्ण निबंधों-‘ए प्ली फॉर री कंस्ट्रक्शन ऑफ इंडियन पॉलिटी’ (1959) और ‘स्वराज फॉर द पीपुल’ (1961) में दिखाई देता है जिसके आधार पर उन्होंने एक समग्र विचार देने की चेष्टा की और अपने कर्मों से उसे चरितार्थ करने की कोशिश भी की। पर दुःखद यह हुआ कि जयप्रकाश जैसे विराट् व्यक्ति को उनके जीवन के अंतिम काल में ऐसे नैतिक लोग न मिल सके जो उनके संकल्पों को अपने जीवन का लक्ष्य बनाकर चल सकते। उनका उत्तराधिकार जिन लोगों के हिस्से आया, वह अधिक से अधिक समाजवादी सपनों को बाँटकर, उनके उत्तराधिकार की माला जपकर सत्ता-सुख ले सकते थे और उन्होंने वही किया। विडंबना ही है कि जयप्रकाश ने जिस जाति, क्षेत्र, धर्म, सत्ता लिप्सा और पदलोलुपता से जीवन भर दूरी बरती, उनके अनुयायिओं ने उनके जीते जी ही उसे अपनी राजनीति और जीवन का ध्येय बना लिया। उसके बाद तो इसका जो हश्र हुआ वह कितना हास्यास्पद बना, इसे पूरे देश ने देखा है। जिस बिहार की धरती ने जयप्रकाश को दूसरे गाँधी के रूप में खड़ा किया और लोकनायक बनाया, उसी धरती ने उनके सपनों को ध्वस्त करनेवाले चेहरे भी दिये।

जयप्रकाश अब नहीं है लेकिन अपने व्यक्तित्व की अदम्यता और राष्ट्रव्यापी विचार के रूप में उनकी उपस्थिति कभी ओझल न हो सकेगी। वे उसी तरह जीवित रहेंगे जैसे गाँधी हैं क्योंकि हमारी धरती का कण-कण उनके ऋण से कभी उऋण न हो सकेगा। लेकिन प्रश्न यह है कि जयप्रकाश को याद करके हम उनके उन विचारों को अमल में लाने की कोशिश क्यों नहीं करते जो लोकतंत्र में स्वाधीनता की चरितार्थता से जुड़े हैं? आठवें दशक में अमल में आया ‘संपूर्ण क्रांति’ का दर्शन आज पहले के मुकाबले अधिक प्रासंगिक है। भूमंडलीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति के इस युग में अगर हम एक राष्ट्र के रूप में अपने को सही अर्थों में पाना चाहते हैं तो इस दर्शन का कोई दूसरा विकल्प नहीं है क्योंकि यह जयप्रकाश के समाज-चिन्तन से उपजा था। यह कांग्रेस की पश्चिमपरस्त राजनीति की स्वदेशी प्रतिक्रिया का वैचारिक दर्शन था। अगर लोकनायक ने देश में वैकल्पिक राजनीति का आधार दिया और सही अर्थों में लोकतांत्रिक गणराज्य की सैद्धांतिकी दी तो क्या उनके समग्र दर्शन को व्यवहार में लाकर हम ‘सप्तक्रांति’ की कल्पना का भारत बनाने की तरफ नहीं बढ़ सकते; जो कदाचित् स्वराज का समुचित मार्ग हो सकता है?

००००००००००००००००