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#स्वराज्य क्या है? लेखक : श्रीयुत भाई परमानंद, एम.ए., एम.एल.ए. | What is Swarajya - Bhai Parmanand


The state that do not do not distinguish Myth and history will always prefer Faith over Discretion - Vibhuti Narayan Rai
अगस्त 1935 की ‘सरस्वती’ में हिन्दू महासभा के भाई परमानंद ने स्वराज्य की एक मजेदार अवधारणा प्रस्तुत की थी। उनके अनुसार धर्म और राष्ट्र का अविभाज्य सम्बन्ध है और भारत के सन्दर्भ में स्वराज्य हिन्दुओं का राज्य ही हो सकता है। इसके उत्तर में जवाहर लाल नेहरू ने अल्मोड़ा जेल में बैठकर अपने जीवन का पहला हिंदी लेख लिखा और विस्तार से भाई परमानंद के तर्कों का जवाब दिया। यह लेख अक्तूबर 1935 की ‘सरस्वती’ में छपा। यह देखना दिलचस्प होगा कि 1935 में भी हिंदुत्ववादियों और धर्मनिरपेक्ष खेमे में बहसों का स्वरूप और चरित्र आज जैसा ही था। यहाँ हम दोनों लेखों का पुनर्प्रकाशन कर रहे हैं। — संपा. ‘वर्तमान साहित्य’

स्वराज्य क्या है?

लेखक : श्रीयुत भाई परमानंद, एम.ए., एम.एल.ए.


श्रीभाई जी हिन्दुओं के एक परम आदरणीय नेता हैं। कांग्रेस से आपका मतभेद है और उस मतभेद को आपने सदैव ज़ोर के साथ प्रकट किया है। स्वराज्य किसे कहते हैं? इस प्रश्न का आप कांग्रेस से भिन्न उत्तर रखते हैं। इस लेख में आपने अपने उसी भिन्न दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है। — सम्पा. ‘सरस्वती’

‘स्वराज्य’ शब्द ऐसा आम हो गया है कि हमको कभी ख़याल भी नहीं आता कि ज़रा इसका वास्तविक अर्थ समझने का प्रयत्न करें। इस समय यदि किसी बच्चे से भी पूछा जाय तो वह कह देगा कि हम स्वराज्य प्राप्त करना चाहते हैं। उसने अपने मन में स्वराज्य का कोई-न-कोई चित्र भी ज़रूर बना रक्खा होगा। परन्तु वह चित्र कोई हक़ीक़त रखता है या सिर्फ़ ख़याल है, यह बात वह बच्चा नहीं जानता। पाठक यह सुनकर हैरान हो जायँगे अगर मैं यह कहूँ कि कांग्रेस और हिन्दू-महासभा के बीच में भेद या ग़लतफ़हमी का कारण ही यह है कि यद्यपि दोनों स्वराज्य प्राप्त करना चाहते हैं, तथापि वास्तव में वे स्वराज्य को एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न समझते हैं । यदि आज हम इस बात का फैसला कर लें कि स्वराज्य किसे कहते हैं तो हमारे बहुत-से पारस्परिक मतभेद तुरन्त दूर हो जायँ।

‘स्वराज्य’ का शाब्दिक अर्थ ‘अपना राज्य’ या ‘सेल्फ़-गवर्नमेंट’ है । राज्य-शब्द के प्रयोग में भी बहुत मतभेद हो सकता है। एक मनुष्य ‘राज्य’ का अर्थ राजसत्तात्मक गवर्नमेंट समझता है। एक भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत रहते हुए ‘सेल्फ़-गवर्नमेंट’ को स्वराज्य कह देता है तो दूसरा इसके अर्थ ब्रिटिश गवर्नमेंट से स्वतंत्र होना समझता है। विधायक रूप के संबंध में इस प्रकार के भेदभाव हमारे दर्मियान हो सकते हैं, परन्तु जिस भेद को मैं यहाँ प्रकट करना चाहता हूँ वह स्वराज्य-शब्द के पहले भाग ‘स्व’ के सम्बन्ध में है।

'वर्तमान साहित्य' अक्टूबर, 2015 vartman sahitya cover Bharat Tiwari
आवरण : भरत तिवारी

कबिरा हम सबकी कहैं / विभूति नारायण राय
आलेख
मुस्लिम नवजागरण के अग्रदूत क्यों नहीं हो सकते मौलवी अब्दुल हफ़ीज मोहम्मद बरकतुल्ला / प्रदीप सक्सेना
महावीर प्रसाद द्विवेदी का अर्थशास्त्रीय चिंतन/ भारत यायावर
धारावाहिक उपन्यास–5
कल्चर वल्चर / ममता कालिया
बहस–तलब 
स्वराज्य क्या है ?     / श्रीयुत भाई परमानंद, एम.एम.एम.एल.ए.
भाई परमानंद और स्वराज्य / पंडित जवाहरलाल नेहरू 29
कविताएं
अशोक पाण्डे / सुरेश सेन निशान्त / फीरोज़ शानी
कहानी
चिल मार / जया जादवानी
भीड़ / एस. अहमद
उजाले की सुरंग / जीवन सिंह ठाकुर
पुस्तक चर्चा
‘अरविंद सहज समांतर कोश’ के बहाने / डॉ. योगेन्द्र नाथ मिश्र
समीक्षा
कवि महेंद्र भटनागर का चाँद / खगेंद्र ठाकुर
सुबह होगी / अणिमा खरे
मीडिया
मीडिया का हालिया तकनीकी नियतिवाद / प्रांजल धर
रपट
राग भोपाली : देख तमाशा हिंदी का / त्रिकालदर्शी
स्तम्भ
रचना संसार / सूरज प्रकाश
तेरी मेरी सबकी बात / नमिता सिंह
सम्मति :  इधर–उधर से प्राप्त प्रतिक्रियाएं
‘स्व’ का अर्थ ‘अपना’ या ‘सेल्फ़’ है। परन्तु तुरन्त ही यह प्रश्न उठता है कि ‘अपना’—शब्द में हम किसको सम्मिलित करते हैं। हमारे कुछ भाई तो यह कह देंगे कि इस प्रश्न के हल करने में दिक्कत ही क्या है; ‘अपना’—शब्द में वे सब लोग शामिल हैं जो इस देश में रहते हैं। परन्तु मैं इस प्रश्न को इतना आसान नहीं समझता। मैं यह पूछूँगा कि अगर इंग्लैंड की गवर्नमेंट यहाँ भारत में कोई ऐसा वाइसराय भेज दे जो यहाँ आकर हमेशा के लिए आबाद हो जाय और अपने शासन के रक्षार्थ समय-समय पर इंग्लैंड से अपने आदमियों को बुलाता रहे तो क्या वह राज्य हमारे लिए ‘स्वराज्य’ होगा या नहीं? कुछ सज्जन कह देंगे कि यह तो काल्पनिक बात है। मैं यह बताना चाहता हूँ कि यह बात काल्पनिक नहीं है। इस देश में मुग़लों का राज्य था। मुग़लों से पहले अन्य कई मुसलमान-वंशों की हुकूमत रही। वे शासक और उनके सिपाही जिनको वे साथ लाये थे, इस देश के निवासी बन गये। क्या उस युग के हिन्दुओं ने उस राज्य को अपना राज्य समझा या गैरों का? अगर उन्होंने उसे गैरों का समझा तो क्या वे ग़लती पर थे या जिन लोगों ने उन विदेशी शासकों को अपना समझा वे सचाई पर थे?

इस बात को स्पष्ट करने के लिए हमें समझ लेना चाहिए कि स्वराज्य लेने के दो विभिन्न तरीक़े हैं। एक तो यह कि हम राज्य की शकल को बदल दें और दूसरा यह कि हम अपनी शकल को बदल लें। इस देश पर जब मुसलमानों ने आक्रमण किये और स्थान-स्थान पर अपना शासन कायम करने का प्रयत्न किया तब भारत की हिन्दू-आबादी में दो प्रकार के मनुष्य पाये जाते थे। एक वे थे जिन्होंने यह समझा कि उनके लिए स्वराज्य लेना बहुत मामूली बात है। उन्होंने अपना धर्म छोड़ दिया, अपने पूर्वजों को तिलांजलि दे दी, अपनी जातीयता को त्याग दिया और इस्लामी मजहब इख्तियार कर लिया। मुसलमान होते ही वे इस्लामी राज्य को अपना राज्य समझने लगे। उनके लिए स्वराज्य लेने का तरीक़ा बहुत आसान था। केवल ‘स्व’ को बदल लेने से, बिना किसी प्रकार का बलिदान किये, बिना किसी चरित्र के, बगैर किसी मेहनत के उन्होंने स्वराज्य प्राप्त कर लिया। उस समय जितने लोग स्वधर्म तथा स्वजाति को छोड़कर मुसलमान बन गये वे महमूद ग़ज़नवी और तैमूर को अपना भाई समझने लगे और नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के हिन्दुओं पर किये गये अत्याचार उन्हें हर्ष एवं गर्व प्रदान करनेवाले कार्य दिखलाई पडऩे लगे। और, आज उन लोगों के वंश के जितने मुसलमान भारत में आबाद हैं उन सबके लिए इस्लामी शासन स्वराज्य हो गया है। भारत के इतिहास के सम्बन्ध में उनका दृष्टिकोण ही बदल गया है। स्वराज्य-प्राप्ति का यह एक निहायत आसान तरीक़ा है।

भाई परमानंद और #स्वराज्य  लेखक : पंडित जवाहरलाल नेहरू | Bhai Parmanand and Swarajya : Jawaharlal Nehru

एक अन्य तरीक़ा था जिससे दूसरे लोगों ने स्वराज्य प्राप्त करने का प्रयत्न किया। उसका एक उदाहरण हमें राजपूतों के इतिहास में मिलता है। उसका दूसरा उदाहरण हमें महाराज शिवाजी और मराठों के उत्कर्ष में मिलता है। उसका एक और उदाहरण हमें गुरु गोविंदसिंह, वीर वैरागी और सिक्ख-साम्राज्य में मिलता है। राजपूतों, मराठों और सिक्खों ने भी स्वराज्य प्राप्त किया। स्वराज्य-प्राप्ति का इनका तरीक़ा पहले तरीक़े से सर्वथा विरुद्ध था। इन्होंने बड़े भारी बलिदान किये, बड़ी-बड़ी यातनायें उठाईं, अपने कुटुम्बियों एवं महिलाओं तक को क़त्ल करवा दिया। इस प्रकार इन्होंने अपनी गिरी हुई जाति के अंदर सच्चरित्र उत्पन्न किया और नवजीवन संचार किया। यह उसी नये जीवन की बदौलत था कि महाराष्ट्र के मामूली देहातियों ने और पंजाब के ग्रामीणों ने अपने-अपने साम्राज्य बना लिये। परन्तु स्वराज्य-प्राप्ति का यह तरीक़ा इस लेख के विचार के बाहर की बात है।
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वर्ष 32 अंक 10  अक्टूबर, 2015
सलाहकार संपादक: रवीन्द्र कालिया
संपादक: विभूति नारायण राय
कार्यकारी संपादक: भारत भारद्वाज
कला पक्ष: भरत तिवारी


खैर, इन लोगों ने ‘स्व’ का अर्थ बिलकुल दूसरा समझा। इनके ‘स्व’ या ‘सेल्फ़’ और उनके ‘स्व’ या ‘सेल्फ़’ में ज़मीन-आसमान होगा कि वे लोग मिस्रियों और ईरानियों के समान थे जिन्होंने अपनी जातीयता का नाम मिटा दिया और अपने आपको एक विदेशी जाति के अंदर जज़्ब करवा दिया। नस्ल और खून, जाति और रक्त की जो अखंडता हज़ारों सालों से उनकी रगों में चली आती थी उसे उन्होंने मिटा दिया और अपनी कायरता या पतन के कारण कुछ से कुछ बन गये। यह अखंडता जातीयता है; यही जाति का जीवन और उसकी आत्मा है। जो लोग इस अखंडता को मिटाकर दूसरे तरीक़े से स्वराज्य प्राप्त करना चाहते हैं उनका स्वराज्य गर्हणीय है। उनके स्वराज्य की अपेक्षा मृत्यु हज़ार दर्जे बेहतर है।

वर्तमान काल में हमारे सामने स्वराज्य की वही दोनों शकलें विद्यमान हैं। हमारे कांग्रेसी भाई हैं जो इस जातीय अखंडता को इसलिए मिटा देना चाहते हैं कि उन्हें स्वराज्य प्राप्त हो जाय। वे कहते हैं कि भारत के पुराने इतिहास को भुला दो; महाराज शिवाजी, महाराना प्रताप, गुरु गोविंदसिंह और वीर वैरागी को भूल जाओ, क्योंकि उनको जातीयता का ठीक ज्ञान न था। आज हमको जातीयता का ठीक-ठीक ज्ञान है; न हमें हिन्दुत्व की परवा है, न हिन्दू-इतिहास की; हम तो स्वराज्य लेना चाहते हैं। हमने एक नई जातीयता ढूँढ़ निकाली है, जिसमें पिछला सारा ज़माना मिट जायगा और इस देश में एक नई जातीयता उत्पन्न होगी। मैं इस ‘थियरी’ या कल्पना को बिलकुल ग़लत समझता हूँ। यह उन लोगों का-सा ख़याल है जिन्होंने मुग़लों के समय में बड़ी आसानी के साथ स्वराज्य लेना चाहा। उन्होंने अपना ‘स्व’ बदल लिया। हमारे ये भाई भी अपना ‘सेल्फ़’ मिटा देना चाहते हैं। मैं ऐसे स्वराज्य को धिक्कार देता हूँ। अगर हमें इसी तरीक़े से स्वराज्य लेना है तो इससे भी ज़्यादा एक और आसान तरीक़ा है। हम सब अपना धर्म छोड़कर ईसाई बन जायँ। हमारा ‘स्व’ इंग्लैंड के लोगों का ‘सेल्फ़’ हो जायगा और हम स्वतन्त्र हो जायँगे। यह बात कि इससे हमें वास्तविक स्वतन्त्रता मिलेगी या नहीं, सर्वथा असंगत है। सवाल तो सिर्फ़ समझने का है। हम अपने ‘स्व’ को मिटाकर उसे इंग्लैंड के ‘स्व’ में जज़्ब करवा देंगे तो इंग्लैंड का राज्य हमारे लिए स्वराज्य का समानार्थक हो जायगा।

एक अन्य युक्ति जो मैं इस ‘थियरी’ या कल्पना के विरुद्ध देना चाहता हूँ वह यह है कि हम हिन्दू अपने आपको चाहे कितना ही भुला दें और नई जातीयता की खातिर हिन्दू-जातीयता को मिटा दें, पर पिछला सारा अनुभव हमें यही बतलाता है कि मुसलमान लोग कांग्रेस की इस थियरी को मानने के लिए बिलकुल तैयार नहीं हैं। वे किसी भी अवस्था में न इस्लाम को भुलायँगे और न नई जातीयता को ग्रहण करेंगे। इसलिए कांग्रेस की यह थियरी जहाँ तर्क की दृष्टि से बिलकुल ग़लत है, वहाँ क्रियात्मक दृष्टि से भी सर्वथा असंभाव्य है।

[‘सरस्वती’, अगस्त 1935 से साभार]


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विवेक निषेध के झटके - विभूति नारायण राय | 'वर्तमान साहित्य' अक्टूबर, 2015 | Faith Vs Discretion - Vibhuti Narayan Rai


मिथ और इतिहास में फर्क न करने वाला राज्य हमेशा आस्था को विवेक पर तरजीह देगा 

विभूति नारायण राय

कबिरा हम सबकी कहैं

विवेक और तर्क का निषेध भारतीय परम्परा के अंग रहे हैं। इसमें आस्था को हमेशा प्रश्नाकुलता पर तरजीह दी गयी है। ऐसा नहीं है कि हमारी मेधा ने स्थापित मान्यताओं को कभी चुनौती दी ही नहीं पर यह चुनौती हमेशा अल्पजीवी और कमजोर रही है। ईसा से छह सौ साल पहले गौतम बुद्ध ने कर्मकांड, पुनर्जन्म और असमानता पर आधारित वर्ण व्यवस्था का इतना जबरदस्त विरोध किया कि ब्राह्मणवाद की चूलें हिल गयीं पर कुछ शताब्दियों में ही सनातन धर्म दोहरे उछाल के साथ वापस आ गया। यही हश्र चार्वाकों का हुआ। उनके दो चार श्लोकों को छोड़ कर शेष सब नष्ट कर दिए गए। इन श्लोकों को पढ़ कर लगता है कि वेद विरोधी, भौतिकवादी चार्वाक सिर्फ भोग-विलासी हैं और ऋण लेकर भी घी पीने जैसे मूल्यों में विश्वास करते हैं। मध्य युग में भक्ति आन्दोलन ने विवेक के पक्ष में अलख जगाई और तुलसी तथा सूर जैसे सवर्ण कवियों को छोड़ दें तो शेष सभी पिछड़े और दलित कवियों ने कर्मकांड और जाति प्रथा का जम कर विरोध किया। उन्हें इस अर्थ में तो सफलता मिली कि उन्होंने संस्कृत के स्थान पर लोकभाषाओं को प्रतिष्ठित किया पर आस्था से वे भी हार गए। वे ईश्वर को नहीं छोड़ पाये और कहीं भी ईश्वर का कारोबार बिना आस्था के नहीं चलता। यह दूसरी परम्परा थी जो गौतम बुद्ध, चार्वाकों और कबीर से होती हुई फुले और अम्बेडकर तक पहुँची है। ऐसा नहीं है कि इस परम्परा को बलात् नष्ट करने की कोशिशें कम हुई हैं। पूरा भारतीय इतिहास इस सन्दर्भ में रक्तरंजित है।

The state that do not do not distinguish Myth and history will always prefer Faith over Discretion - Vibhuti Narayan Rai

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से इस हिंसा में कमी आनी शुरू हुई थी क्योंकि अविवेकी वर्ण व्यवस्था को बचाने में औपनिवेशिक भारतीय राज्य की कोई दिलचस्पी नहीं थी। वर्ण व्यवस्था के पक्ष में विवेक की कसौटी पर टिक सकने वाला कोई तर्क नहीं दिया जा सकता। इस समय तक औद्योगिक क्रान्ति और रेनेसां की प्रक्रिया से गुजरे पश्चिम ने दर्शन की सारी स्थापित मान्यताओं में जबर्दस्त उथलपुथल मचा दी थी और धर्म, ईश्वर, परिवार तथा राज्य जैसी संस्थाओं की बुनियाद को हिला देने वाली बहसें शुरू हो गयी थीं। स्वाभाविक था कि भारतीय समाज भी इनसे बच नहीं सकता था और विवेक का पहला आघात वर्ण व्यवस्था को ही झेलना पड़ा। ऐसे राज्य के अभाव ने, जो जन्माधारित श्रेष्ठता को चुनौती देने पर शम्बूक या एकलव्य को दंडित कर सकता था, वर्ण व्यवस्था के समर्थकों की स्थिति बड़ी दयनीय कर दी। वे तर्क से जीत नहीं सकते थे अतः उन्होंने सबसे आसान रास्ता अपनाया : संवाद का ही निषेध करना शुरू कर दिया। कभी मुसलमानों और ईसाइयों को म्लेच्छ कह कर उनसे संवाद से बचा गया तो कभी विदेश यात्राओं को प्रतिबंधित करने की कोशिश की गयी। कारण एक ही था कि आप किसी भी पढ़े-लिखे व्यक्ति को अगर यह कहें की आप इसलिए श्रेष्ठ हैं कि आप एक ब्राह्मण माँ-बाप की संतान हैं तो वह सिवाय ठठाकर हँसने के और कुछ नहीं करेगा। यूरोप में तो यह भी सम्भावना थी कि किसी ऐसे दावेदार को पागलखाने या चिड़ियाघर भेज दिया जाता, इसलिए सबसे सुविधाजनक था कि समुद्र पार करने को ही निरुत्साहित किया जाय। पर तेजी से परिवर्तित हो रही वैश्विक परिस्थितियों में यह अधिक दिनों तक चल नहीं सकता था और ठस ब्राह्मण परम्परा को भी विवेक और तर्क के लिए जगह छोड़नी पड़ी। यह शायद राज्य के समर्थन का अभाव ही था कि धीमी ही सही पर अनुभव की जा सकने वाली गति से परिवर्तन होते गये और भारतीय समाज ऊपर से जितना आस्थावान दिखे अंदर से विवेक को मान्यता देने लगा है। हिन्दू कोड बिल इसका एक उदाहरण हो सकता है : पचास के दशक में जो हिन्दू समाज अपनी स्त्रियों को पैत्रिक सम्पत्ति में हिस्सा देने को तैयार नहीं था, आज न सिर्फ कानून में परिवर्तन कर उन्हें यह अधिकार देने के लिए तैयार हो गया है बल्कि अविवाहित मातृत्व और लिव-इन-रिलेशनशिप जैसे सम्बन्धों की मान्यता के लिए भी धीरे-धीरे राज़ी हो रहा है।
'वर्तमान साहित्य' अक्टूबर, 2015 vartman sahitya cover Bharat Tiwari
आवरण : भरत तिवारी

कबिरा हम सबकी कहैं / विभूति नारायण राय
आलेख
मुस्लिम नवजागरण के अग्रदूत क्यों नहीं हो सकते मौलवी अब्दुल हफ़ीज मोहम्मद बरकतुल्ला / प्रदीप सक्सेना
महावीर प्रसाद द्विवेदी का अर्थशास्त्रीय चिंतन/ भारत यायावर
धारावाहिक उपन्यास–5
कल्चर वल्चर / ममता कालिया
बहस–तलब 
स्वराज्य क्या है ?     / श्रीयुत भाई परमानंद, एम.एम.एम.एल.ए.
भाई परमानंद और स्वराज्य / पंडित जवाहरलाल नेहरू 29
कविताएं
अशोक पाण्डे / सुरेश सेन निशान्त / फीरोज़ शानी
कहानी
चिल मार / जया जादवानी
भीड़ / एस. अहमद
उजाले की सुरंग / जीवन सिंह ठाकुर
पुस्तक चर्चा
‘अरविंद सहज समांतर कोश’ के बहाने / डॉ. योगेन्द्र नाथ मिश्र
समीक्षा
कवि महेंद्र भटनागर का चाँद / खगेंद्र ठाकुर
सुबह होगी / अणिमा खरे
मीडिया
मीडिया का हालिया तकनीकी नियतिवाद / प्रांजल धर
रपट
राग भोपाली : देख तमाशा हिंदी का / त्रिकालदर्शी
स्तम्भ
रचना संसार / सूरज प्रकाश
तेरी मेरी सबकी बात / नमिता सिंह
सम्मति :  इधर–उधर से प्राप्त प्रतिक्रियाएं
विवेक को प्रतिष्ठित करने वाले परिवर्तन शांतिपूर्ण और क्रमिक विकास की प्रक्रिया के तहत हों इसके लिए जरूरी है कि राज्य उसे प्रोत्साहित करे और उन्हें रोकने के लिए बल प्रयोग न करे। शम्बूक वध और एकलव्य का अंगूठा काटना दो ऐसे उदाहरण हैं जो सिद्ध कर सकते हैं कि राज्य का विपरीत हस्तक्षेप किस तरह से हाशिये के समुदायों की शिक्षा और कौशल विकास की इच्छाओं का सैकड़ों वर्षों के लिए गला घोट सकता है। कल्पना करें कि महाड़ जल सत्याग्रह के दौरान अम्बेडकर के सामने त्रेता या द्वापर का भारतीय राज्य होता तो इस सत्याग्रह के बाद उनके साथ क्या सलूक होता इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

मैं राज्य की भूमिका का उल्लेख सिर्फ उस खतरे को रेखांकित करने के लिए कर रहा हूँ जो आज का भारतीय राज्य विवेक के समक्ष पेश करने की कोशिश कर रहा है। कुछ उदाहरण देखें : एक अस्पताल के उद्घाटन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि गणेश के कटे सर के स्थान पर हाथी का सर लगाना किसी प्लास्टिक सर्जन का ही काम हो सकता है, हाल में रक्षा मंत्री ने रक्षा वैज्ञानिकों के सामने भाषण दिया कि उन्हें महर्षि दधीचि के ज्ञान पर शोध करना चाहिये कि कैसे उन्होंने अपने हड्डियों को वज्र बनाया था, भोपाल के अटल बिहारी बाजपेई हिंदी विश्वविद्यालय ने एक कार्यक्रम शुरू किया है जिसमें गर्भवती महिलाओं को नैतिक कथायें सुनायी जाती हैं जिससे उनके गर्भस्थ शिशु अभिमन्यु की तरह माँ के पेट में दुनिया भर का ज्ञान हासिल कर सकें। मौजूदा सरकार शिक्षा के क्षेत्र में आमूल चूल परिवर्तन कर रही है जिसके तहत पाठ्य सामग्री में भी बड़े बदलाव लाये जायेंगे। तैयार रहें कि आपके बच्चे अपनी किताबों में पढ़ें कि सूर्य और चन्द्र ग्रहण राहू-केतु की दुष्टता के कारण लगते हैं और वर्ण व्यवस्था दैवीय विधान है जिसके तहत ब्रह्मा ने अपने मुख से ब्राह्मणों और पैर से शूद्रों को जन्म दिया था। आखिर राज्य ने भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद का नेतृत्व एक ऐसे व्यक्ति को सौंप दिया है जिसके जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य ही महाभारत का काल निर्धारण है। मिथ और इतिहास में फर्क न करने वाला राज्य हमेशा आस्था को विवेक पर तरजीह देगा।

विवेक निषेध के झटके भारतीय समाज को लगने लगे हैं। हाल ही में हुई एम. एम. कलबुर्गी की हत्या विवेक और तर्क की हत्या है। उनके पहले कामरेड पंसारे और दाभोलकर की हत्यायें हुईं। इन तीनों हत्यायों के पीछे कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी। तीनों जादू-टोने, कर्मकांड और वर्णव्यवस्था का विरोध कर रहे थे, तीनों प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट थे और तीनों को ही पिछले दिनों धमकियां मिली थीं। राज्य ने उनकी सुरक्षा का कोई समुचित इंतजाम नहीं किया। यह भी कह सकते हैं कि राज्य के आचरण से हत्यारों का हौसला बढ़ा ही होगा। यह एक बड़ा खतरा है और हमें आने वाले दिनों में ऐसी तमाम घटनाओं के लिए तैयार रहना होगा।

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वर्ष 32 अंक 10  अक्टूबर, 2015
सलाहकार संपादक: रवीन्द्र कालिया
संपादक: विभूति नारायण राय
कार्यकारी संपादक: भारत भारद्वाज
कला पक्ष: भरत तिवारी

इस अंक में हम सन् 1935 की एक बहस दे रहे हैं जो हिन्दू महासभाई भाई परमानंद और जवाहर लाल नेहरू के बीच मासिक ‘सरस्वती’ में हुई थी। यह देखना बड़ा प्रासंगिक होगा कि तब भी हिंदुत्ववादी देश को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते थे और नेहरू जैसे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष धारा के प्रतिनिधि मजबूती से उसका मुकाबला कर रहे थे। यह बहस कमोबेश आज की लगती है। यह भी समझ में आता है कि कैसे जिन्ना को दो राष्ट्रों के सिद्धांत के रास्ते पर जाने में हिंदुत्ववादियों ने भी मदद की थी।
भोपाल में हाल में ही दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन सम्पन्न हुआ। कैसे भाषा संस्कृति विरोधियों के चंगुल में फंस कर छटपटाती है इसे समझने के लिए भोपाल के इस सम्मेलन का उल्लेख किया जाना चाहिए। गनीमत है कि गिरावट के इस दौर में भी ज्यादातर लेखक इससे दूर रहे। एक भूतपूर्व सम्पादक, जिनकी हालिया पिटाई को लेकर हिन्दी समाज में कुछ चुहलबाजी हुई थी, गये जरूर पर मुंह लटकाए घूमते रहे। उन्हें न खुदा ही मिला न विसाले सनम। ले दे कर मुख्य धारा की एक लेखिका जरूर दिखीं पर उन्हें माफ़ किया जा सकता है : वे तो हर सरकार में आयोजन समितियों में घुस जाती हैं। इस अंक में पेश है विश्व हिन्दी सम्मेलन की एक रपट।

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नज़्म : ये टोपी और तिलक-धारी ~ आलोक श्रीवास्तव | Nazm by Aalok Shrivastav


नज़्म : ये टोपी और तिलक-धारी  ~ आलोक श्रीवास्तव | Nazm by Aalok Shrivastav

हाल की घटनाओं पर जाने-माने ग़ज़लकार आलोक श्रीवास्तव की नई नज़्म

ये टोपी और तिलक-धारी

~ आलोक श्रीवास्तव


टोपी, कुर्ता, छोटा जामा
हर रोज़ नमाज़ें पढ़ता है
या सजा-तिलक हर माथे पर
मंदिर में पूजा करता है

तुम कब होते हो वहाँ कभी ?

क्या सोचा है इक बार ज़रा
तुम इस क़ाबिल रह पाए हो
जो उसकी मुक़द्दस चौखट पर
माथा टेके
सजदा करले
ये पूजा भी क्या पूजा है
ये सजदा भी क्या सजदा है

क्या सोचा है इक बार कभी
मायूस है कितना तुमसे वो ?
नाराज़ है किन सीमाओं तक !?

गर नहीं पता तो आज सुनो !

तुम जिसके सामने अब अपने
इन सजदों का पाखंड लिए
और पूजा का प्रपंच लिए
कभी झुकते हो
कभी गिरते हो
वो धर्म-नीति सब साथ लिए
अपनी सच्ची हर बात लिए
कब का परलोक सिधार चुका
ये टोपी और तिलक-धारी
कबका उसको भी मार चुका.


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कहानी - नदी जो अब भी बहती है : कथाकार कविता | #Hindi #Kahani 'Nadi jo Ab Bhi Bahti Hai' by Kavita

बड़े महीन धागों से बुनी है चर्चित लेखिका कविता ने यह #कहानी 'नदी जो अब भी बहती है'... भावनाएं बहुत कोमल हैं और इसलिए गुज़ारिश करूँगा कि ज़रा आहिस्ता-अहिस्ता पढियेगा ताकि #लेखन का पूरा आनन्द मिल सके...

कहानी - नदी जो अब भी बहती है : कथाकार कविता | #Hindi #Kahani 'Nadi jo Ab Bhi Bahti Hai' by Kavita

नदी जो अब भी बहती है

~ कविता


डॉक्टर अब भी हतप्रभ है और हम चुप। ऐसी स्थिति में इतना भावशून्य चेहरा अपने बीस साला कैरिअर में शायद उसने पहली बार देखा है।

हम चुप्पी साधे हुए उसके चैंबर से बाहर निकल पड़ते हैं।

उनकी और मेरी चुप्पी बतियाती है आपस में... "ऐसे कैसे चलेगा? अब तो तुम्हें...।" "....ऐसे ही चलने दीजिए।" "जिसे आना हो हर हाल में आता है औऱ जिसे नहीं...।" "वैसे भी मैं कुछ भी नहीं चाहती, बिल्कुल भी नहीं।" चुप्पी की तनी शिराएं जैसे दरकी हों; मैं भीतर ही भीतर हिचकियां समेट रही हूं... नील जानते हैं सब... नील  समझते हैं सब... नील संभाल लेना चाहते हैं मुझे, पर मैं संभलना चाहूं तब न...। मैं झटके से धकेल देती हूं अपने कंधे तक बढ़ आया उनका हाथ...। सिसकियां अपने आप तेज हो जाती हैं। मुझे परवाह नहीं किसी की...। एक कौवा जो ठीक अस्पताल के मेन गेट पर बैठा था, उड़ जाता है। कांव-काव करता, जैसे उसे मेरी सिसकियों से आपत्ति हो। आते-जाते लोग क्षण भर को देखते हैं मुझे ठहर कर... फिर... चौकीदार ने तो देखा तक नहीं मेरी तरफ। बस गेट पास...। आखिरकार अस्पताल ही तो है यह... यहां तो आए दिन...।

... महीनों से यह भावशून्य चेहरा लिए घूम रही हूं। जी रही हूं हर पल... घर, दफ्तर, आस-पड़ोस... हर जगह लोग कहने लगे हैं, अब ठीक लग रही हो पहले से। लेकिन मैं जानती हूं कुछ भी ठीक नहीं है मेरे भीतर और वे सब कुछ भी कहते हैं, सब मेरा मन रखने की खातिर...। फिर भी उनका कहना मुझे एक बार सब कुछ याद दिला जाता है...। एक सिरे से सब कुछ। वह सब जिसे कि मैं भूलना चाहती हूं या कि वह सब जिसे मैं बिल्कुल भी भूलना नहीं चाहती।

एक शून्य है मेरे भीतर... और इस शून्य को हर पल जिंदा रखना ही जैसे मेरे जीवन का मकसद हो...।

तेज चलते-चलते मैं पेट थाम लेती हूं... और सचमुच मुझे लगता है, जैसे कुछ है मेरे भीतर जो कह रहा है मुझे संभाल कर रखना।

रात को अब तक अकेले में सलवार सरका कर या कि नाइटी को थोड़ा खिसका कर सहलाती हूं। नाभि से ठीक-ठीक नीचे या कि ऊपर का वह भाग जहां कुछ खुरदुरे से चिन्ह हैं... उस खुरदुरेपन को महसूसते-महसूसते आंखों में नदियां उमड़ने लगदती हैं अपने आप, और नदियों के साथ बहने लगती हूं मैं जैसे यही मेरा भवितव्य...

मुझे लगता है कि वह है कहीं मेरे भीतर... कि वह गया ही नहीं कहीं... मीठे से दर्द का वही अहसास... खाने से वैसी ही अरुचि... वही थकान... वही उचाटपन...

ऐसे में जानबूझ कर याद करती हूं मैं अपनी हिचकियां... अपना निढालपन... और उसके बाद का लंबा-लंबा खालीपन... मैं याद करती हूं आधी-आधी रात को मुझे बेचैन कर देने वाले अपनी छातियों में समा आए समंदर को... जो बंधना नहीं चाहता... जो जाना चाहता है अपने गंतव्य तक। उस समंदर की उफनती बैचैनी मुझे तड़फड़ा देती है बार-बार। मैं हिचकियों में डूब जाती हूं ऊपर से नीचे तक... माई संभाल लेती हैं मुझे ऐसे में... गार लेती हैं उस समंदर को अपनी हथेलियों से किसी कटोरे में.. मैं असीम दर्द से कराह उठती हूं...

कमर और पीठ दर्द से जब तड़पती रहती हूं, माई कटोरे में तेल लेकर मालिश करने आ पहुंचती हैं। मना करने पर भी मानती नहीं... बनाती हैं मेरे लिए सोंठ-अजवायन के वही लड्डू जो मैंने अब तक जचगी के वक्त खाते देखा है भाभी और दीदियों को... तब मैं जिसे शौक से खाती थी आज उसे देख रुलाई और जोर से फूट पड़ती है... और प्लेट मैं परे सरका देती हूं।

रीतता है कुछ भीतर... पर रीतता कहां है... नील याद करके मुझे दवा खिलाते हैं... मेरी पसंद की किताबों के अंश पढ़-पढ़ कर सुनाते हैं... धीरे-धीरे सूख पड़े घाव की तरह सूखता है वह... पर सूख कर भी भीतर से कुछ अनसूखा ही रह गया हो जैसे।

... और वह चाहे सूख भी ले, उस निरंतर बहती नदी का क्या... जो याद दिलवाती रहती है अक्सर... वह नहीं रहा... वह... वही जो इस सबका वायस था... जिसके कारण ही थे यह सब कुछ... और जिसके होने भर से यह सारा दुःख सुख में बदल जाता...

वह नदी भी सूख ही रही है बहते-बहते। पूरे दो महीने बीत चले हैं इस बीच। जांघों के बीच दो टांके वाली वह सिलाई टीसती है कभी-कभी... और फिर याद आ जाता है डॉक्टर का कहा सब कुछ आहिस्त-आहिस्ता, मानो कल की ही बात हो... दो-दो सिर हैं, बिना टांके के काम नहीं चलेगा... वो तो यह प्रीमैच्योर है, नहीं तो ऑपरेशन ही करना पड़ता...

टू डाइमेंशनल अल्ट्रासाउंड करते हुए डॉ सिन्हा ने मुझसे कहा था- तुम्हें पता है कि बच्चा कन्ज्वाइंट है... मतलब इसका शरीर तो एक है पर सिर दो... मेरी सांसे जहां की तहां अटकी रह गई थीं। मैं भक्क-सी थी, जड़वत... पांच महीने बीत जाने के बाद भी कुछ बताया नहीं तुम्हारे शहर के डॉक्टरों ने...? नील ने खुद को संभालते हुए कहा था- नहीं, बस इतना कहा कि कुछ कॉम्प्लीकेशन लगता है, अच्छा हो आप एक बार बाहर दिखा लें... डॉक्टर निकल गई थी उस हरे पर्दे के पार।

सिस्टर मेरे पैरों में सलवार अटका रही है। मेरे हिलडुल नहीं पाने से उसे दिक्कत है, लेकिन फिर भी वह कुछ कहती नहीं... जैसे-तैसे सलवार अटका कर मुझे किसी तरह खड़ा करती है वह। फिर जैसे जागी हो उसके भीतर की स्त्री। मेरी आंखों के कोरों से बहते हुए आंसुओं को हौले से पोंछते हुए कहती है- ऐसे में हिम्मत तो रखना ही होगा।

मैं उसके सहारे जैसे-तैसे बाहर निकलती हूं। डॉक्टर पूर्ववत दूसरे अल्ट्रासाउंड की तैयारी में हैं। बाहर बैठा एक शख्स कहता है... नेक्स्ट...

रिक्शे पर हम दोनों बिल्कुल चुप-चुप बैठे हैं... ऊबड़-खाबड़ सड़क पर चलते रिक्शे के हिचकोलों के बीच कभी वो गिरने-गिरने को होते हैं तो कभी मैं... मैं हमेशा की तरह इन झटकों में पेट को थाम नहीं रही, सोच रही हूं बस...

इंटर की जूलॉजी की कक्षा में लंबे खुले बालों और खूब लंबी नाक वाली मिसेज सिन्हा पढ़ा रही हैं- टि्वन्स तीन तरह के होते हैं- 'आइडेंटिकल', 'अन-आइडेंटिकल' और 'कन्ज्वाइंट'। आइडेंटिकल में दोनों बच्चे बिल्कुल एक जैसे होते हैं, एक ही सेक्स के... चेहरा-मोहरा बिल्कुल एक ही जैसा... पूरा क्लास पीछे की ओर देखने लगता है जहां एक ही बेंच पर निशि और दिशि बैठी हैं, अपने-अपने बाईं हाथ की कन्गुरिया ऊंगली का नाखून चबाती हुई... निशिथा-दिशिता बनर्जी। पढ़ने में बहुत तेज पर जरूरत से ज्यादा अंतर्मुखी... उनकी दुनिया एक-दूसरे तक ही सीमित है। हम भी उन्हें भाव नहीं देते।

इस तरह सारी निगाहों का ध्यान अपनी ओर खिंच जाने से झेंप कर उन्होंने अपनी ऊंगलियां बाहर निकाल ली हैं... और अब दोनों एक ही साथ ब्लैक बोर्ड पर बने डायग्राम की नकल उतार रही हैं...

सिन्हा मैडम लगभग चीखती हैं... ध्यान कहां है आप लोगों का... और पल भर में पीछे की ओर देखती सारी निगाहें सामने देखने लगती हैं। मैडम की तरफ... ब्लैक बोर्ड की तरफ... मैडम कह रही हैं, आइडेंटिकल ट्विन्स अक्सर मोनोजायनोटिक होते हैं, यानी इनका फर्टिलाइजेशन (निषेचन) मां के एक ही अंडे से होता है... उसके दो भागों में बंट जाने और विकसित होने से... जबकि अन-आइडेंटिकल ट्विन्स में सेक्स या कि चेहरे की समानता नहीं होती। यह दो भिन्न स्पर्मों के मदर एग सेल से निषेचन के द्वारा बनते और विकसित होते हैं। मुझे नेहा और रितु की याद हो आती है, दीदी के दोनों जुड़वा बच्चे। नेहा जितनी चंचल, रितु उतनी ही शांत। बहुत दिनों से मैंने उन्हें नहीं देखा। बड़े हो गए होंगे... मैं बरबस अपना ध्यान लेक्चर की तरफ मोड़ती हूं। अगर मिसेज सिन्हा ने इस तरह कुछ सोचते हुए देख लिया तो कोई सवाल दे मारेंगी और जवाब देने की मनःस्थिति में जब तक आऊं उनका दूसरे लेक्चर शुरू हो जाएगा... आजकल के बच्चे... इसमें असली लेक्चर का बेड़ा तो गर्क होना ही है, मुझे तब तक खड़ा रहना पड़ेगा जब तक कि दूसरी बेल बज नहीं जाती।

सिन्हा मैम नाक तक खिसक आए अपने चश्मे को साध कर सचमुच सारी कक्षा का निरीक्षण कर रही हैं... कहीं कुछ मिल जाए ऐसा जहां से शुरू कर सकें वे अपने लेक्चर। लेकिन नहीं, सब कुछ ठीक-ठाक है या कि ठीक-ठाक लगा है उन्हें। ...वे आगे बढ़ती हैं... और अब, क्न्ज्वाइंट ट्विन्स। ऐसे बच्चे अक्सर कहीं न कहीं से जुड़े होते हैं और दो शरीरों के अनुपात में उनके सरवाइकल ऑर्गन्स पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाते या कि कम विकसित होते हैं। मां के एग सेल के पूरी तरह से विकसित और विभाजित न होने के कारण या कि दो एग सेल के एक में क्न्ज्वाइंट होने पर भी पूरी तरह से अलग-अलग विकसित न हो पाने के कारण।

बगल से मारी जाने वाली कुहनियों ने मेरा ध्यान खींचा है। सीमा फुसफुसा रही है धीरे-धीरे। यह बेल भी कब बजेगी। भूख लग गई है यार... ये ट्विन-विन तो फिर पढ़ लेगें, समझ भी लेंगे, कोई इतना बड़ा पज़ल भी नहीं है यह फिजिक्स की तरह। पर मैम हैं कि चुप ही नहीं हो रहीं...

मैं नजरें आगे रखे-रखे ही उसकी बातें सुन रही हूं... पर अब मेरा ध्यान भी कैंटीन से आती खुशबू खींच रही है... समोसे के अलावा मूंग दाल की पकौड़ियां भी बन रही हैं शायद। मुझे पसंद हैं। आज तो मजा आ जाएगा। मौसम भी बारिश-बारिश का-सा हो रहा है, शायद इसीलिए दादा ने...

गड्ढा शायद बहुत बड़ा था... गिरने-गिरने को हो आई मुझे नील संभाल लेते हैं। पानी के छींटे पड़े हैं नील और मेरे कपड़े पर। पर मैं कुड़बुड़ाती नहीं, न ही उसे रुमाल से पोंछने का उपक्रम करती हूं हमेशा की तरह... बस सोचती हूं। काश जिंदगी उतनी ही आसान होती जितनी कि उस वक्त थी या कि लगती थी... तब जिन चीजों को समझना आसान लग रहा था आज उन्हें भोगना...

हम अस्पताल तक आ पहुंचे हैं। नील मेरा हाथ पकड़ कर मुझे रिक्शे से उतार रहे हैं... मैं हैरत मैं हूं... अभी और इन परिस्थितियों में भी नील को इतना होश है। अपनी तकलीफ को इस तकर अपने भीतर समेट लेना...

डॉक्टर सक्सेना कह रहे हैं... क्न्ज्व्वाइंट बेबी के बारे में तो आपलोग जानते ही होंगे... मेरा सिर हां में हिलता है, नील का ना में...

डॉक्टर का उजला-उजला चेहरा अल्ट्रासाउंड देखते हुए संवलाने लगा है। रिपोर्ट के काले प्रिंट की छाया से या कि उसमें दिखते हुए सच से... कि दोनों से ही। वे संभालते हैं खुद को और पानी के गिलास का ढक्कन हटा कर एक ही सांस में पी जाते हैं उसे... ऐसे केस देखने-सुनने में बहुत कम आता है... शायद लाखों-करोड़ों में कोई एक... मैं तो अपने कैरिअर में आज तक कोई ऐसा केस नहीं देखा... क्न्ज्वाइंट ट्विन्स का भी यह एक रेयर केस है, रेयर ऑफ रेयरर्स... ऊपरी तौर पर तो बच्चे का सिर्फ सिर ही दो है... लेकिन बाकी के सारे ऑर्गन्स एक आम इंसान जैसे ही... अब देखना यह है कि इसके भीतर अंगों की क्या स्थिति है... दिमाग और हृदय का संबंध बड़ा गहरा होता है। अगर सिर दो हैं तो हार्ट का भी दो होना जरूरी है इस बच्चे के जिंदा पैदा होने के लिए... नील ने मेरा हाथ मजबूती से थाम रखा है जैसे कि उन्होंने मेरा हाथ छोड़ा और मैं...

डॉक्टर अब भी कह रहे हैं... हालांकि सब कुछ जान पाना बहुत कठिन है फिर भी इसकी कोशिश तो करनी ही होगी... अब तक जो मुझे समझ में आ रहा है उसमे ऐसे बच्चे का जीना... डॉक्टर रुक-रुक कर रहे हैं... बहुत... मुश्किल... सा... लगता... है। मेरे एक मित्र हैं डॉक्टर रितेश कपूर... आप एक बार जाकर उनसे मिलिए... वे आपका एक और अल्ट्रासाउंड करवाएंगे...

एक बार हम फिर रिक्शे में हैं। माई का फोन है... उसी शहर में हो, जाकर बाबा विश्वनाथ के दर्शन कर लेना... कहना उनसे जो है जैसा है, आ जाए... तो माई का मन मान गाय है... इस दो सिर वाले बच्चे के लिए... उन्होंने तैयार कर लिया है खुद को... मैं हैरत में हूं... घर के कामकाज में सनक की हद तक पूर्णता और सफाई चाहने वाली माई एक अपूर्ण बच्चे के पैदा होने की कामना कर रही है...

मैं टटोलती हूं नील को... अगर वो ऐसे ही इस दुनिया में आए तो आपको कोई परेशानी...?

नहीं... मुझे कोई परेशानी नहीं होगी.. वह जैसा भी है मेरा है... मेरा अपना बच्चा...

मेरे  भीतर की मां भी कहती है... हां, जैसा भी है हमारा है... पर दिमाग...?

मैं अपने दिमाग की सुनती हूं इस पल... पहले तो आपको बच्चे से ही परेशानी थी... मुझे समझाते रहते थे... और अब... नील, अपने दो सिरों को संभाल कर कैसे चल-फिर पाएगा यह बच्चा... उसकी जिंदगी तो शायद बिस्तर तक ही सिमट कर रह जाए... अपने हमउम्र और दूसरे बच्चों के लिए वह खेल हो कर रह जाएगा... मुझे तो इस बात का भी डर है कि कहीं लोग उसे देवता या कि राक्षस ही न समझने लगें... क्या आप चाहेंगे उसके लिए ऐसा कुछ...? और उसकी भी तो सोचिए... कितना खुश हो पाएगा वह अपनी जिंदगी से... न खेल-कूद... न स्कूल... न संगी-साथी...

नील चुप हैं... बिल्कुल चुप...

रोज अस्पताल के चक्कर लग रहे हैं... डॉक्टरों-नर्सों की टोली... ड्यूटी और बिना ड्यूटी के डॉक्टरों का भी मुझे आ कर बार-बार देखना... मेरा केस डिस्कस करना... मेरे अल्ट्रासाउंड को अलग-अलग कोणों से बार-बार भेदती वे निगाहें... यह सब मुझमें चिढ़ जगाता है... जैसे कि कोई तमाशा हो गई हूं मैं... सारी जिंदगी शायद मुझे यही झेलना हो... मेरी जिद और पुख्ता हुई जा रही है...

वह जाए.. वह नहीं रहे... यह मेरा निर्णय था... पर वही नहीं रह कर भी इस तरह रह जाएगा, मैं कहां सोच पाई थी तब... मैंने पूरे होशोहवास में कहा था, नील की समझाती हुई... नहीं, वह नहीं आए यही हम सबके लिए अच्छा है... उसके लिए भी...

नील का बदन सिसकियां ले रहा था... मैं तुम से नहीं कहूंगा कुछ भी... मैं पालूंगा... उसे आने दो... जैसा भी है वह... मैं उसकी कोई शिकायत कभी नहीं करूंगा तुम से...

मैंने कहा था... नील भावुक मत बनिए... ऐसे तो हम सबकी जिंदगी नर्क हो जाएगा और उसकी तो... नील सिसकते रहे थे और मैं भावशून्य।

... यह एक अच्छी बात है कि बच्चा लड़का है... नहीं तो गिराए जाने की बात हमारे संस्थान के लिए भी उतनी आसान नहीं होती... मैं अपने दर्द को भीतर ही भीतर धकेलती हूं... वह लड़की नहीं है यह तो तय है... अब जो भी करना है जल्दी कीजिए...

नील इन दिनों मेडिकल साइंस की किताबें पढ़ने लगे हैं। जर्नल्स भी... नेट पर पता नहीं क्या-क्या तलाशते रहते हैं...

उस दिन से ठीक एक दिन पहले नील बहुत दिनों के बाद खुश-खुश आते हैं... देखो निकिता, देखो... उन्होंने कुछ प्रिंट आउट मेरे सामने रख दिया है... यह है दो सिरों वाला बच्चे। फिलीपिंस के अस्पताल में जन्मा है चार दिन पहले... और अभी तक जिंदा है... मैं भी ध्यान से देखती हूं उस दो सिर वाले बच्चे को... और उसके साथ छपी सूचनाओं को पढ़ती हूं बार-बार... पता नहीं क्यों, प्यार के बजाय एक वितृष्णा-सी जागती है मेरे भीतर और उनकी बातों को खारिज करने का एक दूसरा तर्क खोज ही लेती हूं मैं... नील, इस बच्चे के सिर्फ सिर ही नहीं दिल भी दो हैं... डॉक्टर सक्सेना की कही बातें कौंधती हैं उनके भीतर और वे निरस्त से हो जाते हैं मेरे इस तर्क के आगे...

...लेबर रूम में दर्द शुरू होने के लिए दिया जाने वाला इंजेक्शन... मैं टूट रही हूं... छटपटा रही हूं मैं... एक असहनीय-सा दर्द, तन से ज्यादा मन का... और एक नॉर्मल डिलेवरी के सारे तामझाम... सब कुछ नॉर्मल... सिवाय उसके जिसे नॉर्मल होना चाहिए था...

दर्द की उस इंतहा से गुजरने के बाद जैसे मेरे भीतर सब कुछ हिल चुका है, मेरा आत्मविश्वास मेरा निर्णय और शायद मेरा दिमागी संतुलन भी... उस बच्चे के लिए अब तक सोई हुई मेरी ममता जैसे फूट निकली है इस धार के साथ... मेरा बच्चा... एक बार मुझे दिखा तो दीजिए... मुझे... देखकर क्या करना है... क्या मिल जाएगा देख कर.. फिर भी बस एक बार... न जाने कैसी तड़प बढ़ रही है मेरे अंतस में उस दो सिर के बच्चे की खातिर... मैं नील को बुलवाती हूं... उनके कांधे से चिपट-चिपट कर कहती हूं ... एक बार नील... बस एक बार दिखला दो मुझे... मेरा बच्चा... थोड़ी देर पहले तक सिसकते नील अब जैसे पत्थर हो गए हैं... न हिलते-डुलते हैं न कुछ कहते हैं... बस खड़े हैं जड़वत्।

तो क्या नील की नाराजगी मुझसे है... क्या मेरी दुविधा... मेरी पीड़ा... मेरी मजबूरी कुछ भी नहीं समझ में आ रही उन्हें... क्या इसलिए नाराज हैं वे मुझसे कि हर कुछ मेरी ही जिद से... या फिर उनकी चुप्पी मुझे समझने की कोशिश कर रही है...?

"हमें अभी बच्चे की जरूरत नहीं।" नील बार-बार कहते थे। "अभी तो हमने अपनी जिंदगी शुरू ही की है।" पर मैं अड़ जाती थी... "बस एक बच्चा... एक नन्हीं सी जान..." "बहुत मुश्किल होगा निकी... हम दोनों के दफ्तर... तुम्हारी मां हैं नहीं... माई हमेशा बीमार..."

...तो क्या हम इसलिए जिंदगी भर यूं ही... जिनके घर में कोई संभालने वाला नहीं होता क्या उनके घर में बच्चे पैदा नहीं होते? ...मिल ही जाता है कोई न कोई...

...कभी न कभी तो लेना ही होगा यह निर्णय तो फिर अभी क्यों नहीं... हर चीज की एक उम्र भी तो होती है...

नील धीरे-धीरे हारने लगे थे मुझसे पर हारते हुए भी खुद को जीता हुआ साबित करने की खातिर कहते... देख लेना मेरा बेटा बिल्कुल मेरे जैसा होगा... पर मैं अड़ जाती, नहीं बेटी... मेरे साथ रहेगी हर पल... मेरे कामों में मेरा हाथ बंटाएगा... सहेलियों की तरह रहेंगे हम दोनों।

अपने घर के उस अंधेरे कमरे में नील के कंधों पर हिलकती हुई कहती हूं मैं... सुना है गर्भ में बच्चा सुनता है सब कुछ और मां-बाप की कल्पना का ही रूप धरता है वह। वह शायद सुन रहा था मेरे भीतर... और कश्मकश में रहने लगा था। वह मां का बने कि पापा का। वह मां की बात माने या पापा की। कभी वह इस पलड़े झुकता होगा तो कभी उस पलड़े... और हंसी खेल कि यही लड़ाई उसके जान के लिए घातक बन गई होगी शायद...

हां निकिता, उसके दो चेहरों में से एक चेहरा बिल्कुल लड़कियों जैसा था... यह भी तो हो सकता है कि उसके दो सिर मेरी महत्त्वाकांक्षाओं के ही परिणाम हों... न जाने कितने सपने कितनी ख्वाहिशें पालने लगा था मैं उसकी खातिर... उसके आने से पहले ही...

...जो हो चुका था, अपनी-अपनी तरह से हम उसका कारण तलाश रहे थे...

यह उसके जाने के बाद की पहली रात थी जब हम साथ थे... सचमुच साथ-साथ...

ऐसे तो जब मैं रो रही होती नील उठ कर चल देता... और नील जब पास आते मुझे उसमें कोई साजिश नजर आती। वही साजिश जो मुझे आजकल हर आसपास के चेहरे में दिखती है, जिसके तहत माई बार-बार मेरे समानांतर लेटा हुआ बच्चा उठा कर कहीं फेंक आती हैं... वे कहती हैं नील से... बस एक ही उपाय है... डॉक्टर भी ऐसा कहती है... बस एक ही उपाय... इसी तरह भूल सकेगी वो यह सब कुछ...

मैं सूंघती रहती हूं नील के अपने पास आने का उद्देश्य...

वे मुझसे मेरा गुड्डा छीनने आए हैं... मैं रजाई की तहों के बीच छिपा कर रख देती हूं उस दो सिर वाले गुड्डे को... सात तहों के बीच... यह वही खिलौना है जिसे नील अपने बच्चे के लिए पहले ही खरीद लाए थे और उसमें मैंने अब कपड़े का एक अतिरिक्त सिर जोड़ दिया है, लड़कियों के से नैन-नक्श वाला...

मैं नील को या कि माई को घुसने नहीं देती अपने कमरे में... मेरा गुड्डा... मेरा बच्चा... मैं कमरा बंद करके हंसती हूं, खेलती हूं, बतियाती हूं उससे... उसकी मालिश करना... उसके कपड़े बदलना...

...पूरे साल में बस एक महीना कम... पर मेरे लिए तो घड़ी की सुई जैसे वहीं अटक गई है, ग्यारह महीने पहले के उसी दिन में...

पर उस रात जब नील आए फफक पड़े थे मुझे देख कर... और मैं हमस नहीं पाई थी हमेशा की तरह उनकी रुलाई पर।

निकी... निकिता यह हमारा बच्चा नहीं... हमारा बच्चा तो... तुमने ही तो वह निर्णय लिया था और ठीक लिया था... उन्होंने मुझे कंधे से झकझोरा था।

उसे तमाशा कैसे बनने देते हम... मुझे तो उसके लिए डॉक्टरों से भी लड़ना पड़ा था... वे तो रिसर्च करना चाहते थे उस पर... उसे जार में रख कर म्यूजियम का हिस्सा बनाना चाहते थे... काफी जद्दोजहद के बाद हासिल कर पाया था मैं अपने बच्चे को... और इन्हीं हाथों से उसे सुपुर्द कर दिया था माटी को... यह कहते हुए कि मेरे बच्चे का खयाल रखना... इसे छिपा कर रखना अपनी गोद में... कि फिर किसी की नजर न पड़े इस पर... नील ने अपना चेहरा वहीं छिपा लिया था जहां उसके होने का अहसास अब भी जिंदा था... और जिसे जिंदा ही रखना चाहते थे हम दोनों...

आपने एक बार... बस एक बार भी मुझे उसे देखने नहीं दिया... मुझे, मेरे उस बच्चे का चेहरा... मैं भी फूट पड़ा थी...

देख लेती तो उसे जाने नहीं दे पाती तुम... भोला-भाला-सा मासूम चेहरा... उसकी ऊंगलियां... उसकी आंखें मेरे लिए तो सब... नील की हिचकियां डूबती हैं भीतर ही भीतर...

मैं उन्हें बांहों में समेट लेती हूं कस कर... जैसे नील ही... मैं महसूसती हूं... नील की हड्डियां बाहर दिखने लगी हैं, कॉलेज के दिनों से भी ज्यादा... नील के दांत ऊपर की ओर उभर से गए हैं... नील की आंखें उदास... पीली... नील का चेहरा बुझा-बुझा सा निर्जीव... मैं कैसे भूली रही नील को इतने दिन... जबकि नील मेरी पहली जरूरत थे, मेरी जिंदगी का मकसद...
संपर्क:
कविता
सी 76/ एनएच 3,
एनटीपीसी विंध्यनगर,
जिला- सिंगरौली,
पिन 486 885 (मध्यप्रदेश)
ईमेल: kavitasonsi@gmail.com
मो. - 07509977020

मैंने नील को अपने अंकवारे में यों भर लिया है जैसे नील ही मेरा बच्चा हों...

और उसी क्षण, उसी पल वह खाली जगह कुनमुनाई थी...

...मैं हल्की-हल्की रहने लगी थी। नील भी खुश थे, मुझमें आई तब्दीली को देख। माई ने ही एक दिन उनसे कहा था कि वह मुझे डॉक्टर से दिखा लाएं...

उन्होंने मुझसे भी कहा था... वह लौट आया है शायद... तू खुश रहा कर इसी तरह... पर मेरी खुशी उसी क्षण काफूर हो गई थी... वह नहीं और उसकी स्मृतियां भी न रहे इसकी साजिश में सब कामयाब हो गए थे... खास कर के माई।

पर जब डॉक्टर ने इस बात की पुष्टि की.... मुझे लगा मैं हार गई... साजिशें जीत गईं मुझे उससे जुदा करने की...

...मैं जानबूझ कर मां और नील को चिढ़ा-चिढ़ा कर सब काम करती हूं... कपड़े धोना... सफाई करना... और वे सब बेआवाज सहते हैं यह...

खाने की सब अच्छी चीजें डस्टबिन में डाल आती हूं मैं... कमरा बंद करके बतियाती हूं अपने गुड्डे से... ये सब तुझे मुझसे छीनना चाहते हैं... दूर करना चाहते हैं मुझसे... मैं ऐसा कभी होने नहीं दूंगी... कभी भी नहीं...

उसके दोनों चेहरे हंसते हैं खिल-खिल...

अपनी हर सजा में जैसे मुझे आनंद मिलने लगा है... साइकेट्रिस्ट कहता है... सैडिस्ट हो गई हैं ये... इस तरह कभी खुद को भी चोट पहुंचा सकती हैं... या कि फिर बच्चे को...

वे सब जो मुझे सहानुभूति से देखते थे... मुझे समझाने आते थे... अब कतराने लगे हैं मुझसे... मेरे परिवार से। पर मुझे क्या...

मैं अपनी दुनिया में मगन हूं... नील कहते हैं.. ऐसे तो बहुत मुश्किल है मां... बच्चे का सही ग्रोथ कैसे होगा... सही खुराक न मिले तो...

मैं सुनती हूं पर सुनती नहीं हूं... नील आते हैं एक दिन... एक कौर... बस यह कौर... मैं दूर भागती हूं उनसे... वे खाकी लिफाफ में से एक एक्स रे प्रिंट निकालते हैं ... देखो यह है तुम्हारा बच्चा... बिल्कुल सही सलामत... इसका एक सिर... दो हाथ-पांव... सब ठीक-ठाक... मैं हंसती हूं... मेरा बच्चो तो यहां है मेरी गोद में...

मैं उनसे वह काला प्रिंट छीन कर फाड़ देना चाहती हूं...

... और इसी छीना-झपटी में गिर जाती हूं मैं। माई दौड़ी-दौड़ी आती हैं... अरे क्या हुआ...? नील उठाओ तो इसे...

नील उठाते हैं मुझे झट से... माई डॉक्टर को फोन लगाती हैं... मैं हंस रही हूं फिर भी... हंसी पकती है मेरी... और अचानक से रुलाई में तब्दील हो जाती है... मेरे पेट में असहनीय दर्द है... मैं अपना पेट संभाले जैसे चीख पड़ती हूं... माई मेरा बच्चा...

माई की हथेलियां मेरी मुट्ठियों को कसे हैं... नील मेरा पैर सहला रहे हैं... माई समझाती हैं मुझे... कुछ भी नहीं होगा तुझे और तेरे बच्चे को भी... बस धीरज धर... थाम खुद को...



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विनोद भारदवाज संस्मरणनामा - 15 : रघुवीर सहाय | Vinod Bhardwaj on Raghuvir Sahay


रघुवीर सहाय - विनोद भारदवाज संस्मरणनामा  


विनोद भारदवाज संस्मरणनामा - 15 : रघुवीर सहाय | Vinod Bhardwaj on Raghuvir Sahay

लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों, फिल्मकारों की दुर्लभ स्मृतियाँ

संस्मरण 14

कवि, उपन्यासकार, फिल्म और कला समीक्षक विनोद भारदवाज का जन्म लखनऊ में हुआ था और टाइम्स ऑफ़ इंडिया की नौकरी क़े सिलसिले में तत्कालीन बॉम्बे में एक साल ट्रेनिंग क़े बाद उन्होंने दिल्ली में दिनमान और नवभारत टाइम्स में करीब 25 साल नौकरी की और अब दिल्ली में ही फ्रीलांसिंग करते हैं.कला की दुनिया पर उनका बहुचर्चित उपन्यास सेप्पुकु वाणी प्रकाशन से आया था जिसका अंग्रेजी अनुवाद हाल में हार्परकॉलिंस ने प्रकाशित किया है.इस उपन्यास त्रयी का दूसरा हिस्सा सच्चा झूठ भी वाणी से छपने की बाद हार्परकॉलिंस से ही अंग्रेजी में आ रहा है.इस त्रयी क़े  तीसरे उपन्यास एक सेक्स मरीज़ का रोगनामचा को वे आजकल लिख रहे हैं.जलता मकान और होशियारपुर इन दो कविता संग्रहों क़े अलावा उनका एक कहानी संग्रह चितेरी और कला और सिनेमा पर कई किताबें छप चुकी हैं.कविता का प्रतिष्ठित भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार क़े अलावा आपको संस्कृति सम्मान भी मिल चुका है.वे हिंदी क़े अकेले फिल्म समीक्षक हैं जो किसी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म जूरी में बुलाये गए.1989 में उन्हें रूस क़े लेनिनग्राद फिल्म समारोह की जूरी में चुना गया था. संस्मरणनामा में विनोद भारद्धाज चर्चित लेखकों,कलाकारों,फिल्मकारों और पत्रकारों क़े संस्मरण एक खास सिनेमाई शैली में लिख रहे हैं.इस शैली में किसी को भी उसके सम्पूर्ण जीवन और कृतित्व को ध्यान में रख कर नहीं याद किया गया है.कुछ बातें,कुछ यादें,कुछ फ्लैशबैक,कुछ रोचक प्रसंग.

संपर्क:
एफ 16 ,प्रेस एन्क्लेव ,साकेत नई दिल्ली 110017
ईमेल:bhardwajvinodk@gmail.com
विनोद भारदवाज संस्मरणनामा - 15 : रघुवीर सहाय | Vinod Bhardwaj on Raghuvir Sahay
रघुवीर सहाय से मेरी पहली मुलाकात 1968 में हुई थी. वे अपने छोटे भाई धर्मवीर सहाय की शादी के सिलसिले में दिल्ली से अपनी एम्बेस्डर गाड़ी ले कर आये थे. दिनमान के संपादक की कुर्सी पर वे अभी नये नये बैठे थे और उनका चर्चित कविता संग्रह ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ अभी राजकमल प्रकाशन से आया ही था. लखनऊ के उनके पुराने मित्र कृष्णनारायन कक्कड़ के चित्रों की प्रदर्शनी में उन्हें मेरे साथ जाना था. कक्कड़जी युवा लेखकों के प्रिय थे जो अक्सर उनके रिक्शे में उनसे ज्ञान प्राप्त करते रहते थे. मैंने एक बार उनके केसर बाग वाले मकान में उन्हें कुछ अपनी कविताएं सुनाईं तो उनमें लोग शब्द कई बार सुन कर वे बोले रघुवीर सहाय को पढ़ो और अचानक मेरे साथ इतना बड़ा कवि कार में दोस्त की तरह घूम रहा था. उन्होंने मुझे हस्ताक्षर कर के अपना नया संग्रह दिया जो आज भी मेरे निजी पुस्तकालय की शान है. चित्रों को देख कर वे बोले. मुझे लगता है आज भी कला पर इमोशन हो कर ही लिखा जा सकता है. विदा लेते हुए वे बोले, दिल्ली आइए तो मेरे घर पर ही रुकिएगा. दिल्ली गया तो मामा के घर से उन्हें फ़ोन किया तो वे पहचान नहीं पाये. कई साल बाद मैं समझ पाया कि दिल्ली की व्यस्तता में हम कुछ और हो जाते हैं.

रघुवीर सहाय दिनमान में मुझसे लिखवाने लगे. मुझे जब उनका तार मिला, चॉम्स्की पर लिखिए, तो मेरे लिए यह बड़ी बात थी. बाद में जब मुझे रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, प्रयाग शुक्ल के साथ बैठ कर काम करने का मौका मिला, तो मुझे लगा मैं इतिहास बनानेवालों के बीच बैठा हूँ. पर हिंदी के इन तीन बड़े कवियों के बीच ईर्ष्या का ख़राब माहौल था. एक बार रघुवीरजी बहुत बीमार थे. श्रीकांतजी उनका हालचाल पूछने के लिए मुझे भी साथ ले गये. पहले उन्होंने अशोक होटल के बार में 2 पेग व्हिस्की के चढ़ाये, फिर आर. के. पुरम वाले रघुवीरजी के घर नर्वस हालात में पहुंचे. मैं पास में ही रहता था, इसलिए रुक गया. रघुवीरजी बोले, जिसकी वजह से बीमार पड़ा हूँ, वही हालचाल पूछने आया.

रघुवीरजी बहुत मूडी थे. दिनमान जब छपने चला जाता था, तो कभी कभी प्रेस क्लब बियर पिलाने ले चलते थे. एक बार बोले, कार चलाना सीख लीजिये. अगले दिन सुबह आठ बजे कार सिखाने आ गए. तीन दिन तक ड्राइविंग लेसन चले. उनका ज़ोर था जब बच्चे सामने आ जाएं, तो कैसे ध्यान से चलायें.

आलोचना में कवि धूमिल की मेरे नाम 27 चिट्ठियां पढ़ कर बोले, आप किसी दूसरे शहर में होते, तो आपको खूब पत्र लिखता.

एक आदमी के जीवन में नौकरी, मकान, प्रेम, विवाह से बड़ी चीज़ें क्या होती हैं? इन सब में रघुवीरजी का महत्वपूर्ण योगदान था. रघुवीरजी अत्यंत संवेदनशील व्यक्ति थे. एक बार हमारे बीच हल्का सा तनाव था. अगली सुबह रघुवीरजी मिले तो बोले, मैं रात को आपके फ्लैट के नीचे खड़ा शुबर्ट की पूरी सिम्फनी सुनता रहा. सोचा आपको डिस्टर्ब न करूँ. मन उदास है ये सब लिखते हुए.

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वक़्त मुक़र्रर था ... वंदना ग्रोवर की कवितायें | Poems of Vandana Grover (hindi kavita sangrah)


वंदना ग्रोवर की कवितायें


1 .
मैं क्यों दिन भर सोचती रहूँ
क्यों मैं रात भर जागती रहूँ
मैं क्यों थरथरा जाऊं आहट से
क्यों मैं  सहम जाऊं दस्तक से
मैं क्यों चुप रहूँ
मैं कुछ क्यों न कहूँ

मैं क्यों किसी के बधियाकरण की मांग करूँ
क्यों मैं किसी के लिए फांसी की बात करूँ
मैं क्यों न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाऊं
क्यों मैं जा जाकर आयोगों में गुहार लगाऊं
मैं क्यों न जीऊं
मैं क्यों खून के घूँट पिऊं

मैं क्यों खुद अपने दोस्त तय न करूं
क्यों मैं घर से बाहर न जाऊं
मैं क्यों अपनी पसंद के कपडे न पहनूं
क्यों  मैं रात को फिल्म देखने न जाऊं
मैं क्यों डरूं
मैं क्यों मरूं

वंदना ग्रोवर

शिक्षा :पी एच डी
जन्म स्थान :हाथरस
वर्तमान निवास :गाज़ियाबाद
सम्प्रति :लोक सभा सचिवालय  में राजपत्रित अधिकारी
कविता-संग्रह : मेरे पास पंख नहीं हैं (2013)
अन्य :  स्त्री होकर सवाल करती है (बोधि प्रकाशन),सुनो ,समय जो कहता है (आरोही प्रकाशन ),अपनी अपनी धरती (मांडवी प्रकाशन ) ,शतदल  (बोधि प्रकाशन ) कविता संग्रहों में रचनाओं का प्रकाशन
email id : groverv12@gmail.com

मैं क्यों अस्पतालों में पड़ी रहूँ वेन्टिलेटरों पर
क्यों मैं मुद्दा बनूँ कि चर्चा हो मेरे आरक्षणों पर
मैं क्यों इंडिया गेट के नारों में गूंजती रहूँ
क्यों मैं विरोध की मशाल बन कर जलती रहूँ
मैं क्यों न गाऊं
मैं क्यों न खिलखिलाऊं

मैं क्यों धरती-सी सहनशीलता का बोझ ढोऊँ
क्यों मैं मर मर कर कोमलता का वेश धरूँ
मैं क्यों दुर्गा, रणचण्डी, शक्तिरूपा का दम भरूं
क्यों न बस मैं जीने के लिए ज़िन्दगी जियूं
मैं क्यों खुद को भूलूं
मैं क्यों खुद को तोलूं

मैं क्यों अपने जिस्म से नफरत करूं
क्यों मैं अपने वज़ूद पर शर्मिंदा होऊं
मैं क्यों रोज़ अपने लिए खुद मौत मांगूं
क्यों मैं हाथ बांधे पीछे  पीछे रहूं
मैं क्यों होऊं तार-तार
मैं क्यों रोऊं जार-जार

मेरे लिए क्यों कहीं माफ़ी नहीं
क्यों मेरा इंसान होना काफी नहीं





2 .

विधि

एक औरत लें
किसी भी धर्म, जाति, उम्र की
पेट के नीचे
उसे बीचों-बीच चीर दें
चाहें तो किसी भी उपलब्ध
तीखे पैने औज़ार से
उसका गर्भाशय, अंतड़ियां बाहर निकाल दें
बंद कमरे, खेत, सड़क या बस में
सुविधानुसार
उसमे कंकड़, पत्थर, बजरी,
बोतल, मोमबत्ती, छुरी-कांटे और
अपनी सडांध भर दें
कई दिन तक, कुछ लोग
बारी बारी से भरते रहें
जब आप पक जाएँ
तो उसे सड़क पर, रेल की पटरी पर
खेत में या पोखर में छोड़ दें
पेड़ पर भी लटका सकते हैं
ध्यान रहे, उलटा लटकाएं .
उसी की साडी या दुपट्टे से
टांग कर पेश करें

काम तमाम न समझें
अभिनव प्रयोगों के लिए असीम संभावनाएं हैं।





3 .
हिंसा होती है तोपों से,बमों से
हिंसा होती है बंदूकों से, तलवारों से
हिंसा होती है लाठियों से, डंडों से
हिंसा होती है लातों से, घूसों से
हिंसा होती है नारों से, इशारों से
हिंसा होती है वादों से, आश्वासनों से
हिंसा होती है ख़बरों से, अफवाहों से
हिंसा होती है आवाज़ों से, धमाकों से
हिंसा होती है खामोशी से भी।





4 .
किशोरवय बेटियाँ
जान लेती हैं
जब मां होती है
प्रेम में
फिर भी वह करती हैं
टूट कर प्यार
माँ से
एक माँ की तरह
थाम लेती है बाहों में
सुलाती हैं अपने पास
सहलाती हैं
समेट लेती हैं उनके आंसू
त्याग करती हैं अपने सुख का
नहीं करती कोई सवाल
नहीं  करती खड़ा
रिश्तों को  कटघरे में
अकेले जूझती हैं

अकेले रोती हैं

और

बाट जोहती हैं माँ के घर लौटने की






5 .
घुटता है दम
लरज़ता है कलेजा
दरवाज़े खोल दो

मेरी सुबह को अंदर आने दो








6
शुक्र है
मुझे कोई गफलत
कोई गुमां न था कि
मैं दुनिया बदल डालूंगी

शुक्र है
मुझे पता था कि
मैं वह हूँ
इंसान के तबके में
जिसे औरत जैसा कुछ कहा जाता है
शुक्र है
मैंने कभी कोई कोशिश नहीं की
नेता बनने  की
क्रान्ति लाने की
यह सोचने की कि
सोचने से सपने साकार होते हैं

शुक्र है
इससे पहले ही
मैं अनचाहे पत्नी
और
अनजाने ही
मां बना दी गई

शुक्र है ..





7
तुम्हारे आने से पहले
तय था तुम्हारा जाना
वक़्त मुक़र्रर था

तुम आये सकुचाते, रुके, संवरे और निखर गए
मेरी आँखों के आईने में
अपना अक्स निहारा
गरूर झाँक रहा था तुम्हारी आँखों से
आखिर सबसे हसीन मौसम का
खिताब जो मिला था तुम्हे      
तुम्हारा खुद पर यूँ इतराना
अच्छा लगा मुझे
हर मौसम मेरा ही तो हिस्सा है
वो पतझड़ भी, जो अब आया है
वो भी मेरा है
तुम भी तो मेरे थे .
तुम बदल गए
क्यों कि तुम्हे बदलना था
मैं जानती थी
बदलाव बनाया भी तो मैंने ही था
तुम जाओ
कि
जाते मौसम का
सोग नहीं मनाती मैं
विलाप नहीं करती
कभी कभी बरस जाती हूँ
कि तपते दिल को राहत मिले
बह जाती हूँ कि  ज़ख्म धुलें
उठती हूँ गुबार बन के
कि न देखूं तुमको जाता

प्रकृति होने की यह सजा
खुद तय की है मैंने
अपने लिए



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जयप्रकाश मानस: कवि सूरदास से मिला | Diary - 2


कल मैं कवि सूरदास से मिला 

17 दिसंबर, 2013

'पातर पातर मुनगा फरय' जयप्रकाश #मानस_डायरी - १ | From Jayprakash #Manas_Diary - 1

छत्तीसगढ़ साहित्य की शान जयप्रकाश मानस की डायरी के पन्नों से रूबरू हों.
जयप्रकाश मानस
जन्म- 2 अक्टूबर, 1965, रायगढ़, छत्तीसगढ़
मातृभाषा – ओडिया 
शिक्षा- एम.ए (भाषा विज्ञान) एमएससी (आईटी), विद्यावाचस्पति (मानद)
प्रकाशन – देश की महत्वपूर्ण साहित्यिक/लघु पत्र-पत्रिकाओं में 300 से अधिक रचनाएँ
प्रकाशित कृतियाँ-
* कविता संग्रहः- तभी होती है सुबह, होना ही चाहिए आँगन, अबोले के विरूद्ध 
* ललित निबंध- दोपहर में गाँव (पुरस्कृत)
* आलोचना - साहित्य की सदाशयता
* साक्षात्कार – बातचीत डॉट कॉम
* बाल कविता- बाल-गीत-चलो चलें अब झील पर, सब बोले दिन निकला, एक बनेगें नेक बनेंगे
मिलकर दीप जलायें, 
* नवसाक्षरोपयोगीः  यह बहुत पुरानी बात है,  छत्तीसगढ के सखा
* लोक साहित्यः लोक-वीथी, छत्तीसगढ़ की लोक कथायें (10 भाग), हमारे लोकगीत
* संपादन: हिंदी का सामर्थ्य, छत्तीसगढीः दो करोड़ लोगों की भाषा, बगर गया वसंत (बाल कवि श्री वसंत पर एकाग्र), एक नई पूरी सुबह कवि विश्वरंजन पर एकाग्र), विंहग 20 वीं सदी की हिंदी कविता में पक्षी), महत्वः डॉ.बल्देव, महत्वः स्वराज प्रसाद त्रिवेदी, लघुकथा का गढ़:छत्तीसगढ़, साहित्य की पाठशाला आदि । 
* छत्तीसगढ़ीः कलादास के कलाकारी (छत्तीसगढ़ी भाषा में प्रथम व्यंग्य संग्रह)
* विविध: इंटरनेट, अपराध और क़ानून

संपर्क
एफ-3, छग माध्यमिक शिक्षा मंडल
आवासीय परिसर, पेंशनवाड़ा, रायपुर, छत्तीसगढ़, 492001
मो.- 9424182664
ईमेल- srijangatha@gmail.com

कल (डॉ. अरुण कुमार सेन स्मृति संगीत समारोह, रायपुर, 15 दिसंबर, 2014) शेखर सेन के अभिनय और संगीत की परिधि में पहुंचने की देरी भर थी । क्षण भर में ही मेरा मन, आत्मा और देह जैसे चौदहवीं सदी में जा पहुंचीं । ये सब के सब जुड़ चुके थे – भक्तिकाल के अनन्य कवि सूरदास से । मैं एकतारे की धुन में जैसे नहाता चला गया - मैंया मोरी मैं नहीं माखन खायो... भोर भयो गैयन के पाछे मधुबन मोहे पठायो । चार प्रहर बंसी बट भटक्यो । सांझ परे घर आयो । मैं सूरदास और सूरसखा श्रीकृष्ण के बारे में जितना जानता, समझता था कुछ भी याद नहीं था उस क्षण । ज्ञान और अभिमान के सारे किले ढह चुके थे । वहाँ केवल शेखर सेन थे या कि सूरदास, श्रीकृष्ण और उनका सारा समय । शेखर सेन भी कहां थे वहाँ ? वहां तो सिर्फ सूरदास थे । सूरदास के जीवन के बाल्यकाल से लेकर किशोर, युवा व वृद्धावस्था का जीवंत चलचित्र था । महाप्रभु वल्लभाचार्य से दीक्षा, स्वामी हरिदास, बादशाह अकबर के दरबारी कवि तानसेन, कृष्ण भक्त मीरा व गोस्वामी तुलसीदास जैसी समकालीन कवि विभूतियों से मुलाकात व उससे जुड़े सारे प्रसंग थे । लोदी का आंतक था । मथुरा, वृंदावन, काशी था । सदियों पहले व्यतीत हो चुका संपूर्ण समय और उसकी समूची संस्कृति दृश्यमान थी। कभी मेरा अंतर्मन खिलखिला उठता तो कभी गला भर आता, आंखे भर भर उठती, रोम रोम पुलकित हो उठता... । पिछली बार विवेकानंद जी से उन्होंने मिलाया था इस बार सूरदास से । इसे मेरा सौभाग्य ही कहिए !

क्या यह संभव है ? बेशक, संभव है जी । आप मुंबई (रायपुर) के कलापुत्र शेखर सेन के एक पात्रीय संगीतमय नाटक एक बार देख लीजिए । आपको भी बिलकुल यही अनुभव होगा । आप भी सूरदास के साथ कभी वात्सल्य रस के साक्षात् दर्शन कर लेंगे तो कभी श्रृंगार और विरह के । सूरदास के पदों व जीवन दृश्य के माध्यम से कृष्ण से आप ख़ुद ब खुद मिलकर ही लौटेंगे ।

।। शेखर सेन ।।

शेखर सेन हिन्दी नाट्य जगत के गायक, संगीतकार, गीतकार एवं अभिनेता हैं। वे अपने एक पात्रीय प्रस्तुतियों तुलसी, कबीर, विवेकानन्द और सूरदास के लिये सारी दुनिया में जाने-माने जाते हैं। वे मंच पर लगभग डेढ़ घंटे शेखर अकेले अभिनय करते हैं तो वहाँ समृद्ध अतीत के सारे दृश्य, ध्वनि, प्रकाश एकबारगी उनके नियंत्रण में आ जाते हैं । दर्शक भाव विभोर हो उठते हैं । वे वस्तुतः एक आदमी नहीं संपूर्ण अकादमी हैं ।

यूं तो हिंदी संस्कृति की पहुंच जहाँ जहाँ तक है शेखर दादा के बारे में सभी जानते हैं फिर भी यह बताना लाजिमी होगा कि शेखर सेन का जन्म एवं पालन पालन रायपुर, छतीसगढ़ में एक बंगाली परिवार में हुआ। उनके पिता डॉ. अरुण कुमार सेन इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ के कुलपति थे और मां डॉ. अनीता सेन ग्वालियर घराने के प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका और संगीतज्ञ थी। उन्हें संगीत विरासत में मिला। एकल अभिनेता शेखर सेन को संगीत विरासत में मिला है। रायपुर के रहने वाले शेखर अनेक संस्थाओं से पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। वे अपने एकल अभिनय वाले संगीत नाटकों के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। ये वही शेखर सेन हैं जिनके बारे में कभी धर्मवीर भारती बड़ी आत्मीयता से धर्मयुग में लिखा करते थे । पहले ये शेखर-कल्याण (दोनों सगे भाई) की संगीतकार जोड़ी के रूप में जाने जाते हैं । समय की गड़बड़ी कहिए या हमारा संस्कृतिप्रेमियों का दुर्भाग्य कि शेखर और कल्याण का रास्ता आज अलग अलग है ।

।। उन्हें मिले पद्म सम्मान।।

शेखर दादा का सच्चा सम्मान वैसे तो यही है कि देश-विदेश के हजारों दर्शक, श्रोता जब उनके थियेटर से निकलते हैं तो जीवन भर के लिए उनको नहीं भूला पाने का मर्म लेकर फिर भी विडंबना कहिए कि शेखर दादा के रहते सत्ता की चापलूसी करनेवाले, फूहड लोग पद्म सम्मान लेते रहे हैं पर यह दादा का सौभाग्य ही है कि वे ऐसी करतूतों पर विश्वास नहीं करते । और वे ऐसा क्यों करें ? पर क्या हम छत्तीसगढ़ के संस्कृतिप्रेमियों को यह आवाज़ नहीं पहुंचानी चाहिए कि शेखर दादा का सम्मान छत्तीसगढ़ की माटी को ही गौरवान्वित करेगा । चाहे कोई आगे आये या ना आये मैं मुक्त और निष्कलुश मन से चाहता हूँ कि उन्हें इस महादेश का पद्म सम्मान अवश्य मिले । अवश्य मिलेगा । मुझे पूरा विश्वास है हमारे अग्रज श्री गिरीश पंकज वरिष्ठ पत्रकार भाई अहफाज रशीद,  संपादक संदीप तिवारी  इस दिशा में जरूर आगे आयेंगे । और आप सभी संस्कृतिकर्मी भी....

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देश में बह रही है बदलाव की बयार ~ राहुल देव | Rahul Dev on Increasing Speed of Changes


देश में बह रही है बदलाव की बयार

~ राहुल देव



rahul dev journalist राहुल देव पत्रकार

जिधर देखिए, मंजर महीनों में बदल रहा है। पहले दशक, साल लग जाते थे। पिछली पीढियां बीस-पच्चीस-तीस साल एक ही नौकरी, शहर, मोहल्ले और घर में काट देती थीं। आज के युवा का मन साल- दो साल में उचटने लगता है, नया मांगने लगता है- चाहे काम हो, घर हो, गाड़ी हो, फोन हो, कपड़े हों। या फिर साथी हो। तेज परिवर्तन की यह लहर हर क्षेत्र में हैं। बाजार की मिजाज़ कब बदल जाएगा कोई नहीं जानता। आज जो कम्पनी, जो उत्पाद, जो टेक्नॉलॉजी अपने अपने बाजार या क्षेत्र में राज कर रही है उसे कब, कहां से आकर एक नई कम्पनी, उत्पाद, टेक्नॉलॉजी यकायक पटक कर बेदखल कर देगी कोई नहीं कह सकता। आर्थिक चक्र अब तिमाही हो गया है। कम्पनियों के भाव, उनके प्रबंधनों का टिकाऊपन, उनकी आर्थिक सेहत सब तिमाही की गिनती पर चलते हैं। सरकारी नीतियां पहले दशकों में बदलती थीं, अब साल दो साल चल जाएं तो लगता है बड़ा स्थायित्व है। नेताओं के लोकप्रियता अंक, बड़े मुद्दों पर जनता की राय, जनमत की दिशा सब घटना से घटना, सुर्खियों से सुर्खियों और विवाद से विवाद के आधार पर ऊपर-नीचे होते रहते हैं।

सर्वेक्षण बता रहे हैं देश में अपने भविष्य के प्रति लोगों का विश्वास और आशा बढ़े हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस विश्वास के बड़े आधार हैं। भले ही उनकी सरकार के बहुत से पक्षों, सदस्यों और उपलब्धियों को लेकर संदेह-प्रश्न जग रहे हों लेकिन उनकी अपनी लोकप्रियता और देश को विकास के तीव्रतर मार्ग तथा दिशा में ले जाने की उनकी क्षमता में लोगों का विश्वास- दोनों कायम हैं। अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय स्थिति, तेल के घटे दामों ने भी निवेश बढ़ाने और व्यावसायिक सक्रियता बढ़ाने का माहौल बनाया है। नई, तकनीक-आधारित अर्थ व्यवस्था में स्टार्टअप संख्या और पहलों, सौदों, नए युवा उद्यमियों के उदय में जैसे विस्फोट हो रहा है। लगता है युवा उद्यमिता को वेंचर और एंजेल पूंजी का जो सहारा मिला है तो उसके पंख लग गए हैं। प्रधानमंत्री की विश्व पूंजी और वैश्विक, महाकाय कंपनियों को भारत की संभावनाओं को साकार करने में भागीदार बनाने के प्रयासों और उन्हें मिलती सकारात्मक प्रतिक्रियाओं ने एक नई , अभूतपूर्व व्यावसायिक ऊर्जा को तरंगित कर दिया है।

rahul dev journalist राहुल देव पत्रकार

राहुल देव

पत्रकारिता के गिरते मूल्यों और घटती साख के बीच एक ऐसा नाम जो पत्रकारिता के सामाजिक सरोकारों और भारतीय भाषाओं के वजूद के लिए लंबी लड़ाई लड़ रहा है। हिन्दी पत्रकारिता में राहुल देव का नाम बेहद सम्मान के साथ लिया जाता है। राहुल देव ने 30 साल से भी अधिक वक्त इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट ‍मीडिया में बिताया है। वर्ष 1977 में सुरेन्द्र प्रताप सिंह की मृत्यु के बाद लोकप्रिय चैनल 'आज तक' पर एंकरिंग की जिम्मेदारी संभालने वाले राहुल देव पत्रकारिता में भाषा के स्वरूप और उसके संस्कार को लेकर बेहद संजीदा हैं। 'सम्यक फाउंडेशन' के माध्यम से वे सामाजिक विकास, सार्वजनिक स्वास्थ्य, एचआईवी-एड्स और सामाजिक मूल्यों के प्रति भी लोगों को जागरूक करने में लगे हैं। इसके साथ ही युवाओं को समाजोन्मुखी पत्रकारिता का प्रशिक्षण देना और उन्हें शोधकार्य करने का अभ्यास भी वे बखूबी करा रहे हैं। खुद का प्रोडक्शन हाउस शुरू कर कई न्यूज चैनल्स के लिए बेहतरीन कार्यक्रम और महत्वपूर्ण वृत्तचित्र बनाने वाले राहुल देव ने अनेक पत्र-पत्रिकाओं और न्यूज चैनल्स में काम किया। हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं पर उनकी गहरी पकड़ है। दि पायोनियर, करेंट, दि इलस्ट्रेटड वीकली, दि ‍वीक, प्रोब, माया, जनसत्ता और आज समाज में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभालने के अलावा उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी लंबे समय तक काम किया। टीआरपी की जगह हर हाल में कंटेंट को प्राथमिकता देने वाले राहुल देव ने आज तक, दूरदर्शन, जी न्यूज, जनमत और सीएनईबी न्यूज चैनल में शानदार समय गुजारा है।
बदलाव केवल चीजों के बदलने की और जीवन की गति में ही नहीं है। शहरी हो या ग्रामीण, जीवन मात्र का परिदृश्य जैसे हर दिन बदल रहा है। नई चीजें, नित नई मंजिलें, नित नई इच्छाएं, आकांक्षाएं, अभीप्साएं, वासनाएं, नई कामयाबियां और उससे ज्यादा नई नाकामाबियां- ये सब मिल कर मनुष्य के मन, मस्तिष्क और शरीर पर, जीवन शैलियों पर, पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों पर नए तनाव और दबाव पैदा कर रहे हैं। पवित्रतम माने जाने वाले रिश्तों में ऐसी खबरों का आना लगातार बढ़ रहा है जो मानवीय रिश्तों की गरिमा पर नए सवाल खड़े करती हैं। युवाओं-किशोरों-बालकों तक में छोटी छोटी बातों पर हत्या, सहपाठी लड़कियों से सामूहिक बलात्कार, फिल्म बना कर भयादोहन करना, नशे की लत का कॉलेजों से स्कूलों पर फैलना, मोबाइल और इंटरनेट पर पसरी अपार अश्लील सामग्री का बच्चों तक आसानी से पहुंचना और उससे विकृत होते उनके मन-मस्तिष्क-व्यवहार- ये देश में बह रही तकनीकी क्रांति की बयार के अंधेरे पहलू हैं। तकनीक अगर शादियां करा रही है तो तलाकों और वैवाहिक संघर्षों का कारण भी। इस तकनीक और उसके तमाम मंचों से लगातार जुड़े रहना समूची युवा पीढ़ी का महाव्यसन बन रहा है और इस जुड़ाव से बच्चों, किशोरों, युवाओं और विवाहितों तक के निजी जीवन, स्वाश्थ्य, व्यवसाय और आपसी सम्बन्ध जहरीले और बीमार बन रहे हैं।

एक ओर टेक्नॉलॉजी ने ऐसी नई सुविधाएं हमें दे दी हैं, और देती जा रही है, जिनकी हम पांच-दस साल पहले कल्पना भी नहीं कर  सकते थे। आज बैंक जाना लगभग गैरज़रूरी हो गया है। इंटरनेट पर आप दर्जनों ऐसे काम घर बैठे, या अपने मोबाइल पर ही, कर सकते हैं जिनके लिए पहले घंटे, दिन और हफ्तों लग जाते थे। यानी सिद्धांततः हमारे पास अपने लिए या काम के लिए ज्यादा समय और सुविधा है। पर क्या यह बचने वाला समय हमारे काम आ रहा है?

क्या हम इतने तेज, गहरे, व्यापक, बहुआयामी, लगातार बदलाव के लिए भीतर से तैयार हैं? क्या हमारे तन और हमारे मन, हमारे रिश्ते, हमारी सामाजिक-राजनीतिक-शैक्षिक संस्थाएं इन परिवर्तनों को ठीक से समझ कर इतने तैयार हो गए हैं कि कम से कम प्रभावित हुए, अपने पूरे होश, आन्तरिक स्थिरता और सन्तुलन को बिना खोए हुए इन परिवर्तनों के कदम से कदम मिलाते हुए जी सकें? क्या इन लगभग अनन्त, अनवरत और बहुधा अदृश्य, परिवर्तनों में से अच्छे और उपयोगी को अपना कर और घातक, खतरनाक को बाहर रख कर अपने निजी, सामूहिक, राष्ट्रीय हितों के लिए इस्तेमाल करने की प्रज्ञा, क्षमता और इच्छा हममें है?

राहुल देव


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रवीश कुमार: दादरी की भीड़ पर - साथियों 'अभी' समझना होगा | Were you a part of Dadri Mob - Ravish Kumar


हम समझ नहीं रहे हैं

   हम समझा नहीं पा रहे हैं 

     देश के गाँवों में चिंगारी फैल चुकी है ... 

दादरी की भीड़ में कहीं आप तो नहीं थे या हैं  -  रवीश कुमार

एक बछिया ग़ायब हो गई । लोग ग़ुस्से में आ गए । फिर कहीं माँस का टुकड़ा मिलता है । कभी मंदिर के सामने तो कभी मस्जिद के सामने कोई फेंक जाता है । इन बातों पर कितने दंगे हो गए । कितने लोग मार दिए गए । हिन्दू भी मारे गए और मुस्लिम भी । हम सब इन बातों को जानते हैं फिर भी इन्हीं बातों को लेकर हिंसक कैसे हो जाते हैं । 

इतना सब कुछ सामान्य कैसे हो सकता है ? बसाहडा गाँव की सड़क ऐसी लग रही थी जैसे कुछ नहीं हुआ हो और जो हुआ है वो ग़लत नहीं है । दो दिन पहले सैंकड़ों की संख्या में भीड़ किसी को घर से खींच कर मार दे । मारने से पहले उसे घर के आख़िरी कोने तक दौड़ा ले जाए । दरवाज़ा इस तरह तोड़ दे कि उसका एक पल्ला एकदम से अलग होने के बजाए बीच से दरक कर फट जाए। सिलाई मशीन तोड़ दे। सिलाई मशीन का इस्तमाल मारने में करे । ऊपर के कमरे की खिड़की पर लगी ग्रील तोड़ दे । उस भीड़ में सिर्फ वहशी और हिंसक लोग नहीं थे बल्कि ताक़तवर और ग़ुस्से वाले भी रहे होंगे । खिड़की की मुड़ चुकी ग्रील बता रही थी कि किसी की आंख में ग़ुस्से का खून इतना उतर आया होगा कि उसने दाँतों से लोहे की जाली चबा ली होगी । भारी भरकम पलंग के नीचे दबी ईंटें निकाल ली गई थी ।


कमरे का ख़ूनी मंज़र बता रहा था कि मोहम्मद अख़लाक़ की हत्या में शामिल भीड़ के भीतर किस हद तक नफरत भर गई होगी । इतना ग़ुस्सा और वहशीपना क्या सिर्फ इस अफवाह पर सवार हो गया होगा कि अख़लाक़ ने कथित रूप से गाय का माँस खाया है । यूपी में गौ माँस प्रतिबंधित है लेकिन उस कानून में यह कहाँ लिखा है कि मामला पकड़ा जाएगा तो लोग मौके पर ही आरोपी को मार देंगे । आए दिन स्थानीय अखबारों में हम पढ़ते रहते हैं कि भीड़ ने गाय की आशंका में ट्रक घेर लिया । यह काम तो पुलिस का है । पुलिस कभी भी कानून हाथ में लेने वाली ऐसी भीड़ पर कार्रवाई नहीं करती ।

बसेहड़ा गाँव के इतिहास में सांप्रदायिक तनाव की कोई घटना नहीं है । गाँव में कोई हिस्ट्री शीटर बदमाश भी नहीं है । मोहम्मद अख़लाक़ और उनके भाई का घर हिन्दू राजपूतों के घरों से घिरा हुआ है । यह बताता है कि सबका रिश्ता बेहतर रहा होगा । फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि एक अफवाह पर उसे और उसके बेटे को घर से खींच कर मारा गया । ईंट से सर कूच दिया गया । बेटा अस्पताल में जिंदगी की लड़ाई लड़ रहा है । उसकी हालत बेहद गंभीर है ।
#MurderOverBeef | Citing my position, Dadri youths coerced me into making the announcement: Priest to SAAHIL MENGHANI
हर जगह वही कहानी है जिससे हमारा हिन्दुस्तान कभी भी जल उठता है । लाउडस्पीकर से एलान हुआ । व्हाट्स अप से किसी गाय के कटने का वीडियो आ गया । एक बछिया ग़ायब हो गई । लोग ग़ुस्से में आ गए । फिर कहीं माँस का टुकड़ा मिलता है । कभी मंदिर के सामने तो कभी मस्जिद के सामने कोई फेंक जाता है । इन बातों पर कितने दंगे हो गए । कितने लोग मार दिए गए । हिन्दू भी मारे गए और मुस्लिम भी । हम सब इन बातों को जानते हैं फिर भी इन्हीं बातों को लेकर हिंसक कैसे हो जाते हैं । हमारे भीतर इतनी हिंसा कौन पैदा कर देता है ।

दादरी दिल्ली से बिल्कुल सटा हुआ है । बसेहड़ा गाँव साफ सुथरा लगता है । ऐसे गाँव में हत्या के बाद सब कुछ सामान्य हो जाएगा ये बात मुझे बेचैन कर रही है । आस पास के लोग कैसे किसी की सामूहिक हत्या की बात पचा सकते हैं । शर्म और बेचैनी से वे परेशान क्यों नहीं दिखे ? भीड़ बनने और हत्यारी भीड़ बनने के ख़िलाफ़ चीख़ते चिल्लाते कोई नहीं दिखा । जब मैं पहुँचा तो गाँव नौजवानों से ख़ाली हो चुका था ।

लोग बता रहे थे कि लाउडस्पीकर से एलान होने के कुछ ही देर बाद हज़ारों लोग आ गए । मगर वो कौन थे यह कोई नहीं बता रहा । सब एक दूसरे को बचाने में लगे हैं । यह सवाल पूछने पर कि वो चार लोग कौन थे सब चुप हो जाते हैं । यह सवाल पूछने पर उन चार पाँच लड़कों को कोई जानता नहीं था तो उनके कहने पर इतनी भीड़ कैसे आ गई, सब चुप हो जाते हैं । अब सब अपने लड़कों को बीमार बता रहे हैं । दूसरे गाँव से लोग आ गए । हज़ारों लोग एक गली में तो समा नहीं सकते । गाँव भर में फैल गए होंगे । तब भी किसी ने उन्हें नहीं देखा । जो पकड़े गए हैं उन्हें निर्दोष बताया जा रहा है ।

जाँच और अदालत के फ़ैसले के बाद ही किसी को दोषी माना जाना चाहिए लेकिन हिंसा के बाद जिस तरह से पूरा गाँव सामान्य हो गया है उससे लगता नहीं कि पुलिस कभी उस भीड़ को बेनक़ाब कर पाएगी । वैसे पुलिस कब कर पाई है । माँस गाय का था या बकरी का फ़ोरेंसिक जाँच से पता चल भी गया तो क्या होगा । जनता की भीड़ तो फ़ैसला सुना चुकी है । अख़लाक़ को कूच कूच कर मार चुकी है । अख़लाक़ की दुलारी बेटी अपनी आँखों के सामने बाप के मारे जाने का मंज़र कैसे भूल सकती है । उसकी बूढ़ी माँ की आँखों पर भी लोगों ने मारा है । चोट के गहरे निशान है ।

दादरी की घटना किसी विदेश यात्रा की शोहरत या चुनावी रैलियों की तुकबंदी में गुम हो जाएगी । लेकिन जो सोच सकते हैं उन्हें सोचना चाहिए । ऐसा क्या हो गया है कि हम आज के नौजवानों को समझा नहीं पा रहे हैं । बुज़ुर्ग कहते हैं कि गौ माँस था तब भी सजा देने का काम पुलिस का था । नौजवान सीधे भावना के सवाल पर आ जाते हैं । वे जिस तरह से भावना की बात पर रिएक्ट करते हैं उससे साफ पता चलता है कि यह किसी तैयारी का नतीजा है । किसी ने उनकी दिमाग़ में ज़हर भर दिया है वे प्रधानमंत्री की बात को भी अनसुना कर रहे हैं कि सांप्रदायिकता ज़हर है ।



मेरे साथ सेल्फी खींचाने आया प्रशांत जल्दी ही तैश में आ गया । ख़ूबसूरत नौजवान और पेशे से इंजीनियर । प्रशांत ने छूटते ही कहा कि किसी को किसी की भावना से खेलने का हक नहीं है । हमारे सहयोगी रवीश रंजन ने टोकते हुए कहा कि माँ बाप से तो लोग ठीक से बात नहीं करते और भावना के सवाल पर किसी को मार देते हैं । अच्छा लड़का लगा प्रशांत, पर लगा कि उसे इस मौत पर कोई अफ़सोस नहीं है । उल्टा कहने लगा कि जब बँटवारा हो गया था कि हिन्दू यहाँ रहेंगे और मुस्लिम पाकिस्तान में तो गांधी और नेहरू ने मुसलमानों को भारत में क्यों रोका । इस बात से मैं सहम गया । ये वो बात है जिससे सांप्रदायिकता की कड़ाही में छौंक पड़ती है ।

प्रशांत के साथ खूब गरमा गरम बहस हुई लेकिन मैं हार गया । हम जैसे लोग लगातार हार रहे हैं । प्रशांत को मैं नहीं समझा पाया । यही गुज़ारिश कर लौट आया कि एक बार अपने विचारों पर दोबारा सोचना । थोड़ी और किताबें पढ़ लो लेकिन वो निश्चित सा लगा कि जो जानता है वही सही है । वही अंतिम है । आख़िर प्रशांत को किसने ये सब बातें बताईं होंगी ? क्या सोमवार रात की भीड़ से बहुत पहले इन नौजवानों के बीच कोई और आया होगा ? इतिहास की आधू अधूरी किताबें और बातें लेकर ? वो कौन लोग हैं जो प्रशांत जैसे नौजवानों को ऐसे लोगों के बहकावे में आने के लिए अकेला छोड़ गए ? खुद किसी विदेशी विश्वविद्यालय में भारत के इतिहास पर अपनी फटीचर पीएचडी जमा करने और वाहवाही लूटने चले गए ।

हम समझ नहीं रहे हैं । हम समझा नहीं पा रहे हैं । देश के गाँवों में चिंगारी फैल चुकी है । इतिहास की अधकचरी समझ लिये नौजवान मेरे साथ सेल्फी तो खींचा ले रहे हैं लेकिन मेरी इतनी सी बात मानने के लिए तैयार नहीं है कि वो हिंसक विचारों को छोड़ दें । हमारी राजनीति मौकापरस्तों और बुज़दिलों की जमात है । दादरी मोहम्मद अख़लाक़ की मौत कवर करने गया था । लौटते वक्त पता नहीं क्यों ऐसा लगा कि एक और लाश के साथ लौट रहा हूँ ।
रवीश के ब्लॉग (http://naisadak.org) से साभार 
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क्या हम इतने मुर्ख बनाये जा चुके हैं कि हमें सामने खड़ा सच ही नज़र नहीं आ रहा है... आग दादरी तक आ पहुंची है और हमारी तन्द्रा ... अब टूटने से पहले जागे नहीं तो सब टूट जायेगा 
सारे लहू के मवाद हो जाने पर हम मवाद को ही लहू मानने लगेंगे... लहू को बचाइए ... साझा कीजिये, अपने दिल की बात मानिये ... बोलिए! चुप न रहिये #WakeupOrDie